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रेडियोधर्मी किरणें- अल्फा, बीटा और गामा (adioactive Rays - Alpha, Beta and Gamma)

 रेडियोधर्मी किरणें- अल्फा,  बीटा और गामा  (adioactive Rays - Alpha, Beta and Gamma)

नमस्कार आंसर दुनिया के इस पेज में आपका स्वागत है। इस पोस्ट में रेडियोधर्मी किरणें, अल्फा, बीटा और गामा  किरणों के बारे में जानकारी दिया गया हैं। रेडियोसक्रियता (रेडियोऐक्टिविटी / radioactivity) या रेडियोधर्मिता वह प्रकिया होती है जिसमें एक अस्थिर परमाणु अपने नाभिक (न्यूक्लियस) से आयनकारी विकिरण (ionizing radiation) के रूप में ऊर्जा फेंकता है। ऐसे पदार्थ जो स्वयं ही ऐसी ऊर्जा निकालते हों विकिरणशील या रेडियोधर्मी (रेडियोऐक्टिव) कहलाते हैं। यह विकिरण अल्फा कण (alpha particles), बीटा कण (beta particle), गामा किरण (gamma rays) और इलेक्ट्रॉनों के रूप में होती है।

1902 ई. में रदरफोर्ड ने रेडियोधर्मी तत्व को शीशे के प्रकोष्ट में रखकर निकलने वाली किरणों को विद्युत क्षेत्र से गुजार कर निकलने वाली किरणों का अध्ययन किया और इन्हें अल्फा, बीटा एवं गामा किरणों के नाम दिया।

radioactive-rays-alpha-beta-gamma

अल्फा किरणें -

  • अल्फा किरणें धनावेशित होती हैं।
  • इन पर दो इकाई धन आवेश होता है।
  • ये हीलियम नाभिक (He) होते हैं।
  • इनका द्रव्यमान हाइड्रोजन परमाणु द्रव्यमान का चार गुना होता है।
  • इसके नाभिक में 2 प्रोटॉन और 2 न्यूट्रॉन होते हैं।
  • ये विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र में ऋणावेशित प्लेट की ओर मुड़ जाती हैं।
  • किसी तत्व स एक अल्फा उत्सर्जन परमाणु भार से परमाणु क्रमांक में 2 की कमी होती है।
  • इनका वंग 2.3 X 10 सेमी/सेकंड होता है।
  • इनकी भेदन क्षमता गामा एवं बीटा किरणों को कम होती है। अतः 1 मिमी. मोटी एल्यूमिनियम चादर कर नहीं पाती है।
  • ये शरीर के मांसपेशियों को जला सकता है।

बीटा किरणें -

  • तीव्र वेग से चलने वाली इलेक्ट्रॉन पुंज होती हैं। इन ऋणावेश होता है।
  • फोटोग्राफी प्लेट पर एल्फा किरणों की अपेक्षा अधिक डालती हैं।
  • इनकी भेदन क्षमता एल्फा किरणों से 100 गुन होती है। इनका वेग 2.79 X 10 सेमी/संकेण्ड (लगभग प्रकश के बराबर) होता है। 

गामा किरणें -

  • गामा किरणें उच्च ऊर्जा वाली विद्युत तरंगे होती है।
  • इसका तरंगदैर्ध्य सबसे कम होता है।
  • ये द्रव्यमान तथा आवेश रहित होने के कारण विद्युत में चुम्बकीय क्षेत्र में विक्षेपित नहीं होती हैं।
  • ये फोटोग्राफी प्लेट को एल्फा एवं बीय किरणों की अधिक प्रभाव डालती हैं।
  • इनकी भेदन क्षमता इतनी अधिक होती है कि ये 100 सेमी. मोटी एल्यूमिनियम की चादर को भी भेद सकती हैं।
  • इनका वग प्रकाशक वेग के बराबर होता है।
इस पोस्ट में हमने  रेडियोधर्मी किरणें- अल्फा,  बीटा और गामा किरणों के बारे में जाना । विभिन्न परीक्षाओं में  रेडियोधर्मी किरणें- अल्फा,  बीटा और गामा  से जुड़े प्रश्न पूछे जाते हैं ।

उम्मीद करता हूँ कि यह पोस्ट आपके लिए उपयोगी साबित होगी, अगर आपको पोस्ट पसंद आये तो पोस्ट को शेयर जरुर करें।

प्रोटीन का वर्गीकरण (classification of proteins)

प्रोटीन का वर्गीकरण (classification of proteins)

नमस्कार, आंसर दुनिया में आपका स्वागत है। प्रोटीन का वर्गीकरण को को हम इस पोस्ट में विस्तृत रूप में जानेंगे प्रोटीन के वर्गीकरण से जुड़े कई प्रश्न अक्सर परीक्षा में पूछे जाते हैं ।

प्रोटीन, जैविक स्थूलअणुओं के एक महत्वपूर्ण वर्ग हैं जो सभी जैविक अवयवों में मौजूद होते हैं और मुख्य रूप से कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, आक्सीजन और सल्फर तत्वों से बने होते हैं। सभी प्रोटीन, अमीनो एसिड के बहुलक हैं। अपने भौतिक आकार द्वारा वर्गीकृत किए जाने वाले प्रोटीन, नैनोकण हैं (परिभाषा: 1-100 nm). प्रत्येक प्रोटीन बहुलक - जिसे पॉलीपेप्टाइड के रूप में भी जाना जाता है - 20 अलग-अलग L-α अमीनो एसिड के अनुक्रम से बने होते हैं, जिन्हें अवशेष के रूप में भी उद्धृत किया जाता है। 40 अवशेषों के अंतर्गत श्रृंखला के लिए प्रोटीन के बजाय अक्सर पेप्टाइड शब्द का प्रयोग किया जाता है।
classification of proteins

प्रोटीनों का वर्गीकरण (Classification of Proteins)

प्रोटीन को भौतिक गुणों तथा विलेयता के आधार पर निम्नलिखित श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है -


(1) साधारण प्रोटीन (Simple proteins) -

इनमें केवल ऐमीनों अम्ल अवयव होते हैं, अत : इनका जल अपघटन करने से केवल ऐमीनो अम्ल प्राप्त होते हैं। इनको पुनः निम्नालिखित वर्गों में विभाजित किया गया है-

(i) ऐल्ब्यूमिन (Albumins) - ये जल, अम्ल तथा क्षार में विलेय होते हैं। गर्म करने पर इनका स्कन्दन हो जाता ह। अमोनियम सल्फेट विलयन से इनका अवक्षेपण हो जाता है।

उदाहरण- सीरम ऐल्ब्यूमिन (Serum albumin) रक्त में, लेक्ट ऐल्ब्यूमिन (Lect albumin) दूध में, एग ऐल्ब्यूमिन (Egg albumin) अण्डे में।

उदाहरण- ऊतक ग्लोब्यूलिन (Tissue's globulin) तथा वनस्पति ग्लोब्यूमिन (Vegetable globulin) बीज में। 

(ii) ग्लूटेलिन (Glutelines) - ये जल तथा लवण विलयन में अविलेय परन्तु अम्लों व क्षारों में विलेय हैं। गर्म करने पर इनका स्कन्दन हो जाता है। 
उदाहरण- ग्लूटेनिन (glutenin) गेहूँ में तथा ओरिजेनिन (oryzenin) चावल में। 

(iii) प्रोलामीन (Prolamines) - ये जल तथा लवण विलयन में अविलेय किन्तु तनु अम्लों, क्षारकों और 70-90% ऐल्कोहॉल में विलेय है। 

उदाहरण - जीन (Zein) मक्का में, ग्लाइडीन (gliadin) गेहूँ में तथा होरडीन (hordein) जौ में।

(iv) हिस्टोन (Histones) - ये जल, तनु अम्लों में। बिलेय है, किन्तु क्षारों में अविलेय हैं। गर्म करने पर इनका स्कन्दन नहीं होता। ये हीमोग्लोबिन तथा न्यूक्लियोप्रोटीन पाये जाते हैं। 

(v) प्रोटामीन (Protamines) - ये जल, तनु अम्ने तथा अमोनिया में विलय हैं। गर्म करने पर इसका स्कन्दन नाही होता। ऐल्कोहॉल विलयन में इनका अवक्षेपण हो जाता हैयह भी न्यूक्लियो-प्रोटीन में पाया जाता है तथा क्षारकीय है।

(vi) स्क्लेरोप्रोटीन (Scleroproteins) - ये जल तथा लवण विलयन में अविलेय हैं, किन्तु प्रबल अम्लों क्षारों में विलेय हैं। ये एन्जाइम द्वारा अप्रभावित रहते हैं।

उदाहरण- 

(a) केरोटीन (Keroteins) - यह बाल नाखुनों तथा सींगों में पाया जाता है।

(b) फाइब्रोइन (Fibroin) - सिल्क में तथा कोलेजन (Collagen) त्वचा और हड्डियों में पाया जाता है। 

पढ़ें- भौतिक विज्ञान का सामान्य परिचय।

(2) संयुग्मित प्रोटीन (Conjugated proteins) -

इनमें ऐमीनो अम्ल के अतिरिक्त कोई अन्य अवयव भी रहता है। ऐमीनो अम्ल के अवयव के अतिरिक्त जो दूसरा भाग होता है, उसे प्रोस्थेटिक समूह (Prosthetic group) कहा जाता है।

संयुग्मित प्रोटीनों को पुनः निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जाता है-

(i) न्यूक्लियोप्रोटीन (Nucleoproteins) - इनमें ऐमीनो अम्ल के अतिरिक्त न्यूक्लिक अम्ल (Nucleicacid) प्रोस्थेटिक समूह रहता है। ये मन्द अम्लीय होते हैं। ये जल, लवण विलयन तथा शारों में विलेय होते हैं। ये कोशिका (Cell) के न्यूक्लियस में रहते हैं।

(ii) फॉस्फोप्रोटीन (Phosphoproteins)- इनमें प्रोस्थेटिक समूह फॉस्फोरस अम्ल होता है। ये जल में अविलेय किन्तु क्षारों में विलेय होते हैं। क्षारीय विलयन में अन्त मिलाने पर इनका अवक्षेपण हो जाता है। 

उदाहरण- 

(a) केसीन (Casein) - यह दूध में। पाया जाता है। 

(b) विटेलीन (Vitelline) - यह अण्डे में पाया जाता है। 

(iii) ग्लाइकोप्रोटीन (Glycoprotein) - इनमें प्रोस्थेटिक समूह फॉस्फोरस अम्ल होता है। ये अम्लीय प्रकृति के होते हैं तथा क्षारों में विलेय होते हैं। ये अण्डे की सफेद तथा जेलीफिश में पाये जाते हैं। 

(iv) क्रोमोप्रोटीन(Chromoprotein) - इनमें स्थेटिक समूह पाइरोल होता है। इनमें Fe,Cu, Ms Coजैसी धातुएँ भी होती है, जिसके कारण यह रंगीन होता 

उदाहरण-

(a) हीमोग्लोबिन (Haemoglobin) - यह रक्त में पाया जाता है।

(b) क्लोरोफिल (Chlorophyll) - यह पौधों में पाया जाता है। 

जानें- वाष्पोत्सर्जन क्या है।

(3) व्युत्पन प्रोटीन (Derived protein) -

ये प्रोटीन के निम्नाकृत (Degraded) यौगिक हैं तथा प्रोटीन का अम्ल, क्षार तथा एन्जाइम द्वारा जल-अपघटन करने से प्राप्त होते हैं। 

ये निम्नलिखित प्रकार के होते हैं -

(i) विकृत अथवा स्कन्दित प्रोटीन (Denatured or Coagulated proteins) - ये जल में अविलेय हैं तथा ऊष्मा के प्रभाव से बनाये जाते हैं। 

(ii) प्राथमिक प्रोटिओसेस (Primary proteoses) - ये जल में अविलेय परन्तु अम्लों और क्षारों में विलेय होते हैं। ये प्रोटीन पर क्षार की अभिक्रिया द्वारा बनते हैं। 

(iii) द्वितीयक प्रोटिओसेस (Secondary pro teoses) - ये जल तथा लवण विलयन में अविलेय हैं तथा ऊष्मा द्वारा स्कन्दित नहीं होते। ये HCI या H.SO, द्वारा जल-अपघटन करने से बनते हैं। 

(iv) पेप्टोन (Peptones) - ये जल में विलेय हैं तथा ऊष्मा द्वारा स्कन्दित नहीं होते। ये बाइयूरेट परीक्षण देते हैं। इन्हें HCI अथवा HASO, द्वारा जल-अपघटन करके बनाते हैं।

(v) पेप्टाइड (Peptide) - ये जल में विलेय हैं तथा ऊष्मा द्वारा स्कन्दित नहीं होते। ये बाइयूरेट परीक्षण नहीं देते हैं। इन्हें भी HCI अथवा H.So, द्वारा जल-अपघटन से बनाया जाता हैं।

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जैव-अकार्बनिक रसायन (Bio-Inorganic Chemistry) के सवाल

जैव-अकार्बनिक रसायन (Bio-Inorganic Chemistry) के सवाल

नमस्कार, आंसर दुनिया में आपका स्वागत है। इस लेख में हम जैव-अकार्बनिक रसायन (Bio-Inorganic Chemistry) के सवाल और उनके जवाब के बारे में जानेंगे जो विभिन्न परीक्षाओं में पूछे गए हैं और भविष्य के परीक्षाओं में इन प्रश्नों के पूछे जाने की सम्भावना है। जैव अकार्बनिक रसायन(Bio-Inorganic Chemistry) एक ऐसा क्षेत्र है जो जीव विज्ञान में धातुओं की भूमिका की जांच करता है। जैव-अकार्बनिक रसायन (Bio-Inorganic Chemistry)  में प्राकृतिक घटनाओं जैसे मेटलोप्रोटीन के व्यवहार के साथ-साथ कृत्रिम रूप से पेश की गई धातुओं का अध्ययन शामिल है , जिनमें गैर-आवश्यक धातुएं भी शामिल हैं , दवा और विष विज्ञान में ।

Bio-Inorganic Chemistry

जैव-अकार्बनिक रसायन के सवाल देखें -

प्रश्न 1. जैव-अकार्बनिक रसायन क्या है?

उत्तर - जैव-अकार्बनिक रसायन (Bio-inorganic chemistry) रसायन विज्ञान की आधुनिकतम शाखा है। इसके अन्तर्गत जैव-रासायनिक प्रक्रियाओं में भाग लेने वाले अकार्बनिक तत्वों एवं यौगिकों का अध्ययन किया जाता है। जैविक प्रक्रियाओं में अकार्बनिक तत्वों एवं यौगिकों के लाभप्रद एवं हानिप्रद भूमिकाओं के निर्धारण में जैव-अकार्बनिक रसायन का महत्वपूर्ण योगदान है।


प्रश्न 2. धातु पोरफायरिन्स किसे कहते हैं? 

अथवा

धातु पोरफायरिन्स की संरचना पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

उत्तर - जैविकीय तन्त्र में उपस्थित धातु आयन वृहद् चक्रीय लिगैण्डों के साथ एक विशेष प्रकार के संकुल बनाते हैं। इन वृहद् चक्रीय लिगैण्डों को पोरफायरिन्स कहते हैं, जो कि पोरफिन के व्युत्पन्न होते हैं। पोरफिन वलय तन्त्र वस्तुतः दीर्घ चक्रीय टेट्रापाइरोल तंत्र होता है, जिसमें संयुग्मित द्विबन्ध पाये जाते हैं। पोरफिन अणु में विभिन्न प्रतिस्थापी समूहों के जुड़ने पर बने व्युत्पन्न को पोरफायरिन्स कहते हैं। इस प्रकार धातु तथा पोरफायरिन्स लिगैण्डों से बने संकुलों को धातु पोरफायरिन्स कहते हैं।

उदाहरण-क्लोरोफिल तथा हीम धातु पोरफायरिन्स का पौधों तथा जन्तुओं के मौलिक जैविक प्रक्रमों में अत्यधिक निकटता से संबंध होता है। इनमें इलेक्ट्रॉन तथा अणुओं को स्थानान्तरित करने की क्षमता पायी जाती है।

porphyrin molecule
पोरफाइरिन अणु - porphyrin molecule

प्रश्न 3. सूक्ष्म मात्रा (Trace) तत्व से क्या समझते हैं? 

अथवा 

सूक्ष्म तत्व पर टिप्पणी लिखिए।

उत्तर - वे अकार्बनिक तत्व, जो जैव-रासायनिक (Bio-chemicals) तथा शरीर क्रियात्मक (Physiological) प्रक्रियाओं के लिये आवश्यक होते हैं, किन्तु इन तत्वों की अपेक्षाकृत कम मात्रा की आवश्यकता होती है। ये सूक्ष्म मात्रा तत्व कहलाते हैं। उदाहरण-मॉलिब्डेनम, मैंगनीज, फ्लुओरीन, कोबाल्ट, जिंक, कॉपर, आयोडीन। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे आवश्यक तत्व हैं, जिनकी अतिसूक्ष्म या परासूक्ष्म (Ultratrace) मात्रा हो, आवश्यक होती है। जैसे - निकिल, वैनेडियम, क्रोमियम, सिलीनियम, बोरॉन, टिन, टंगस्टन आदि। 


प्रश्न 4. आवयश्क तत्वों के जैविक कार्यों का वर्णन कीजिये।

अथवा

जैविक तंत्र में निम्न धातु आयनों का योगदान लिखिए- Zn2+, Mg2+ तथा Ca2+

उत्तर - प्रकृति में पाये जाने वाले धातु तथा अधातु तत्व अनेक जैविक प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैंइन्हें आवश्यक तत्व कहते हैं व अब तक 60 से अधिक तत्वों की उपस्थिति जीवाणु (Bacteria), फफूंद (Fungi), पौधों, पशुओं तथा मनुष्य में ज्ञात की जा चुकी है। इन तत्वों के बिना जीवन का सामान्य रूप से चलना संभव नहीं है। इनमें से कुछ आवश्यक तत्वों के जैविक कार्य या जैव-रासायनिक भूमिकाएँ निम्नानुसार हैं -

  1. पोटैशियम (K) - यह एक आवश्यक धातु तत्व है। यह अन्तःकोशिकीय तरल का एक मुख्य धनायन है। 

  2. सोडियम (Na) - जैव प्रक्रियाओं में यह एक आवश्यक तत्व है। यह कोशिका में बाह्य तरल (Extra cellular fluid) में उपस्थित धनायनों का प्रमुख भाग है। पर अधिकांशतः क्लोराइड तथा बाइकार्बोनेट आयनों से सम्बद्ध रहता है तथा अम्ल-क्षार साम्य को नियंत्रित रखता है। यह कोशिका भित्ति के दोनों ओर परासरणी दाब (Osmotic pressure) को स्थिर रखता है तथा तन्त्रिकाओं की सुग्राहिता को बनाये रखता है। 

  3. मैग्नीशियम (Mg) - प्राणी कोशिकाओं में Mg++ आयनों की सान्द्रता पायी जाती है। स्वस्थ मनुष्य के शरीर में लाभग 21.00 mg/Mg++ उपस्थित रहता है। रक्त में इसकी मात्रा 2.4 mg/100 ml होती है। Mg++ परासरणी तथा वैद्युत् अपघट्यों के साम्य को बनाये रखता है। Mg++ आयनों द्वारा ATP के साथ संकुल बनाता है। हरे पौधों में पाये जाने वाले क्लोरोफिल के लिए Mg++ आयन महत्वपूर्ण होते हैं। 

  4. कैल्सियम (Ca) - कैल्सियम प्रमुखतः हड्डियों में पाया जाता है। शरीर का 99% हड्डियों में अक्रिस्टलीय कैल्सियम फॉस्फेट तथा क्रिस्टलीय हाइड्रॉक्सी एपेटाइट के रूप में जमा रहता है। यह Car, के रूप में अल्प मात्रा में हड्डियों तथा दाँतों में पाया जाता है। Ca' आयन रक्त के स्कन्दन के लिये अत्यधिक महत्वपूर्ण है। Ca'' आयन हृदय की मांसपेशियों तथा तंत्रिकाओं के सामान्य उत्तेजना के लिए भी महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त Ca++ आयन मांसपेशियों के संकुचन के लिए भी उपयोग होता है।

  5. क्रोमियम (Cr) - ग्लूकोज उपापचय में इसकी मुख्य भूमिका होती है। यह लिपिड, प्रोटीन तथा कार्बोहाइड्रेट उपापचयन में सहायक होता है। 

  6. मैंगनीज (Mn) - यह अनेक धातु एन्जाइमों (Metallo enzyme) को सक्रिय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जैसे-ऑर्जिनेज, पायरुवेट, कार्बोक्सलेज आदि। इसकी कमी से स्तनधारियों (Mammals) में नपुंसकता हो जाती है।


प्रश्न 5. Co तथा CN हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करते हैं। समझाइये।

उत्तर - Fe++ आयन मृदु अम्ल है तथा O2 एक सीमा रेखा क्षार है। O2 की तुलना में CO तथा CN- मृदु क्षार है, अत : 02 की तुलना में CO तथा CN- मृदु क्षार Fe2++ मृदु अम्ल से अधिक प्रबल बन्ध बनाते हैं, जिससे हानिकारक प्रभाव उत्पन्न होता है। CO तथा CN द्वारा निर्मित संकुल हीमोग्लोबिन की ऑक्सीजन वाहक क्षमता को कम करता है, जिससे मृत्यु होने की संभावना बढ़ जाती है। CO द्वारा निर्मित कार्बोक्सी-हीमोग्लोबिन ऑक्सी हीमोग्लोबिन की अपेक्षा 400 गुना अधिक स्थायी है। इसके अतिरिक्त CN- आयन साइटोक्रोम एन्जाइम तंत्र में बाधा उत्पन्न करता है, जो कि CN- की विषाक्तता उत्पन्न करने का प्रमुख कारण है।


प्रश्न 6. NO तथा co का जैव क्रियाओं में महत्व स्पष्ट कीजिए। 

उत्तर - हीमोग्लोबिन अणु का Fe++ आयन एक मृदु अम्ल है। यह मृदु क्षार NO तथा CO के साथ प्रबल बन्ध बनाते हैं, जिससे हीमोग्लोबिन का O2 परिवहन का कार्य बाधित होता है तथा विषाक्त प्रभाव उत्पन्न होता है। सन् 1995 में एक अध्ययन द्वारा NO एवं CO के निम्नलिखित जैविकीय कार्यों को स्पष्ट किया गया है  

  • NO तथा CO दोनों तंत्रिका कोशों से तंत्रिका संचारण कार्य करते हैं।
  • NO मृदु मांसपेशियों के संकुचन तथा शिथिलीकरण में सहायक है।
  • शरीर में रोग उत्पादकों (Pathogens) को कम करने में सहायक है।


प्रश्न 7. कॉपर जैविक प्रक्रियाओं के लिए आवश्यक तत्व है। स्पष्ट कीजिए। 

उत्तर - कॉपर जैविक प्रक्रियाओं के लिए आवश्यक तत्व है। यह जीवधारियों तथा पौधों के लिये आवश्यक तत्व है, किन्तु कॉपर की अधिक मात्रा विषैला प्रभाव उत्पन्न करता है तथा शरीर के लिए हानिकारक होता है। जन्तुओं में कॉपर की कमी से लीवर में आयरन संग्रहण की प्रक्रिया क्षीण होती है, जिससे जन्तुओं में रक्त अल्पता उत्पन्न होती है। कॉपर शरीर में प्रोटीनों को अपने साथ धातु प्रोटीन के रूप में या एन्जाइम के रूप में संयुक्त रखते हैं। कॉपर हीमोग्लोबिन की तरह ऑक्सीजन वाहक का कार्य करता है। मनुष्य में 100-150 mg कॉपर उपस्थित होता है। इसमें शरीर में लगभग 64 mg मांसपेशियों में, 23 mg हड्डियों में तथा 18 mg यकृत में होता है। मनुष्य के रक्त में लगभग 100 mg/ 100 ml कॉपर होता है।


प्रश्न 8. नाइट्रोजन स्थिरीकरण या यौगिकीकरण क्यों आवश्यक है?

उत्तर - वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का नाइट्रोजन के यौगिकों में रूपान्तरण को नाइट्रोजन स्थिरीकरण या यौगिकीकरण कहते हैं। वायुमण्डलीय नाइट्रोजन अपेक्षाकृत अक्रिय होता है। वायुमण्डलीय N2 को सक्रिय नाइट्रोजन बनाना होता है। सक्रिय नाइट्रोजन अन्य पदार्थों से क्रिया करके यौगिक बनाता है। नाइट्रोजन को सक्रिय बनाने के लिए ऊर्जा संवर्धित वातावरण आवश्यक है। 

उच्च ताप या विद्युत् विसर्जन आवश्यक सक्रियण ऊर्जा प्रदान कर सकते हैं, जिससे N, क्रियाशील होकर यौगिक बनाता है। इसके अतिरिक्त अक्रिय जीवाणु तथा कुछ नील हरित-शैवाल अनुकूल परिस्थितियों में नाइट्रोजन का यौगिकीकरण कर सकते हैं। इस प्रक्रिया में धात्विक एन्जाइम महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नाइट्रोजन उर्वरक कृषि के लिए अत्यन्त आवश्यक है, किन्तु नाइट्रोजन उर्वरकों का उत्पादन अत्यधिक महँगा है। नाइट्रोजन तथापि नील-हरित शैवाल तथा कुछ बैक्टीरिया सामान्य ताप एवं दाब पर N, के यौगिकों में परिवर्तित करने के लिए सक्षम होते हैं। वनस्पतियों तथा जीवों को नाइट्रोजन के यौगिकों की आवश्यकता है, जिसकी पूर्ति नाइट्रोजन चक्र द्वारा होती है।


प्रश्न 9. नाइट्रोजन का स्थिरीकरण नाइट्रोजिनेस द्वारा कैसे होता है ? 

अथवा 

नाइट्रोजन स्थिरीकरण पर एक टिप्पणी लिखिए।

उत्तर - नील-हरित शैवाल, वायुमण्डलीय N, का अति सुगमता से स्थिरीकरण करती है। इन शैवालों में नाइट्रोजन फिक्सिंग एन्जाइम होता है, जिसे नाइट्रोजीनेज कहते हैं। नाइट्रोजीनेज एन्जाइम में दो प्रोटीन होते हैं। यह एन्जाइम N, को में परिवर्तित कर देता है। इससे H2 भी उत्पन्न होती है।

N2 +8H+ + 8e- → 2NH3 + H2 

Sequential diagram for the production of stable nitrogen compounds



स्थिर नाइट्रोजन यौगिकों के उत्पादन के लिए क्रमबद्ध रेखाचित्र

नाइट्रोजीनेज एन्जाइम में दो घटक पाये जाते हैं, पहला Mo-Fe युक्त प्रोटीन तथा दूसरा Fe युक्त प्रोटीन में दो Mo तथा Fe एवं सल्फाइड, प्रत्येक के लगभग 30 परमाणु होते हैं। इसका मोलर द्रव्यमान लगभग 22,000 होता है। Fe युक्त प्रोटीन में दो संगत उप-इकाइयाँ होती हैं, जिनमें से प्रत्येक में Fe4S4 कलस्टर पाये जाते हैं। नाइट्रोजीनेज के लघु प्रोटीन का जिसमें पदार्थ एवं उर्जा के अणुभार 60-70 mg/mol होता है, जबकि दीर्घ प्रोटीन का अणुभार 200-250 mg/mol होता है। लघु प्रोटीन प्रबल अपचायक का कार्य करती है। 

नाइट्रोजीनेज में आयरन, Mo तथा सल्फर प्रमुख तत्व हैं। सल्फर परमाणु अम्ल द्वारा आसानी से हटाये जा सकते हैं। यद्यपि नाइट्रोजीनेज की क्रिया-विधि आज भी अनिश्चित है, परन्तु इसे निम्न प्रकार से समझाया जा सकता है। अपचयन के लिए आवश्यक इलेक्ट्रॉन फेरीडॉक्सिन या प्लेवोडॉक्सिन से नाइट्रोजीनेज स्थानान्तरित होते हैं। इन इलेक्ट्रॉनों का स्रोत पायरुवेट का ऑक्सीकरण है। पहले इलेक्ट्रॉन Fe प्रोटीन को स्थानान्तरित होते हैं। अपचयित Fe प्रोटीन Mo-Fe प्रोटीन के साथ एक संकुल बनाते हैं। समग्र उत्प्रेरकीय चक्र को चित्र द्वारा प्रदर्शित किया गया है।


प्रश्न 10. जैव-रासायनिक क्रियाओं में आवश्यक तत्वों के नाम लिखिये। 

अथवा

जैव रासायनिक क्रियाओं में आवश्यक तत्वों के नाम लिखिए।

उत्तर - जैव-रासायनिक क्रियाओं में आवश्यक तत्वों के नाम निम्नानुसार हैं-1. हाइड्रोजन, 2.ऑक्सीजन, 3. नाइट्रोजन, 4. कार्बन, 5. कैल्सियम, 6. सोडियम, 7. पोटैशियम, 8. मैग्नीशियम, 9. सल्फर, 10. फॉस्फोरस, 11. क्लोरीन, 12. सिलिकॉन, 13. मॉलिब्डेनम, 14. मैंगनीज, 15. फ्लोरीन, 16. कोबाल्ट, 17. जिंक, 18. कॉपर, 19. आयोडीन, 20. निकिल, 21. वैनेडियम, 22. सिलीनियम, 23. टिन, 24. टंगस्टन इत्यादि।

प्रश्न 11. आवश्यक तत्व, लाभदायक तथा विषैला तत्व को संक्षेप में समझाइए। 

उत्तर -
आवश्यक तत्व - वे तत्व, जिनकी उपस्थिति जीवन चक्र को पूरा करने के लिए अपरिहार्य है, आवश्यक तत्व कहलाते हैं। इनकी कमी या अनुपस्थिति से जीवों में रोग उत्पन्न होने लगते हैं, जैसे-K,Ca,Mg, Fe इत्यादि। 

लाभदायक तत्व - ऐसे तत्व, जिनकी जीवों में उपस्थिति से वृद्धि तथा प्रजनन में सहायता करते हैं, परन्तु उनकी कड़ी कहते हैं, जैसे-As, Sn, Bi, Ti इत्यादि।

विषैला तत्व - जैव प्रक्रियाओं में कुछ तत्व ऐसे भी होते हैं, जिन्हें हम आवश्यक तथा लाभदायक तत्वों के बीच की अनुपस्थिति से जीवों में कोई बुरा प्रभाव उत्पन्न नहीं होता है, जैसे-AI, Ba, Li, Ag. इत्यादि।

प्रश्न 12. सोडियम पोटैशियम पम्प पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये?

अथवा

सोडियम पम्प या Na+/K+ पम्प पर टिप्पणी लिखिए।

उत्तर- सोडियम एवं पोटैशियम पौधो के साथ-साथ जन्तुओं में अकार्बनिक अम्लों के लवणों के रूप में प्रोटीनों तथा कार्बनिक अम्लों के लवणों के रूप में पाया जाता है। सोडियम प्रमुख बाह्य कोशिकीय धनायन तथा पोटैशियम प्रमुख अन्तः कोशिकीय धनायन है। सोडियम तथा पोटैशियम के जैविकीय योगदान या जैव रसायन निम्नानुसार होता हैं 

  1. जलयोजन एवं परासरण दाब नियंत्रण- सोडियम तथा पोटैशियम आयनों का शरीर में मुख्य कार्य विभिन्न शरीर द्रवों के सामान्य परासरण दाब को बनाये रखना होता हैं, जिसके माध्यम से द्रवों की अधिक कमी को रोका जाता हैं। 

  2. अम्ल-क्षार साम्य नियंत्रण- बाह्य कोशिकीय द्रव में सोडियम आयन तथा अन्तःकोशिकीय द्रव में पोटैशियम आयन वहाँ उपस्थित दुर्बल अम्लों के साथ लवण बना लेते हैं। ये लवण बफर का कार्य करते है, तथा शरीर में द्रवों का pH नियंत्रित रहता हैं। 

  3. CO2 का संवहन- Na+, K+ तथा C+ तथा आयन गैसीय CO2 के संवहन में मुख्य भूमिका निभाते हैं। 

  4. रक्त श्यानता नियंत्रण- Na+ एवं K+ आयन रक्त प्लाज्मा में ग्लोबुलिन को बनाये रखते हैं तथा प्लाज्मा प्रोटीन में जल की मात्रा को नियंत्रित करते हैं। 

  5. पाचक द्रवों का स्त्राव- रक्त के NaCl के कारण गैस्ट्रिक HCI रक्त के Na+ एवं K+ लवणों से क्षारीय पाचक रसों का स्त्राव होता है। 

  6. प्रोटीन एवं ग्लाइकोजन के संग्रहण में- Na',एवं K लीवर एवं मासपेशियों मे ग्लाइकोजन के संग्रहण के लिए अनुकूल स्थिति निर्मित करता हैं। 

  7. सोडियम पोटैशियम पम्प -प्रत्येक कोशिका की बाह्य झिल्ली की मोटाई लगभग 70A (angstrom) होती है। यह झिल्ली प्रोटीन से बनी होती है तथा कोशिका दोहरी झिल्ली से घिरी होती है। लिपिड दोनों झिल्लियों के मध्य में पाया जाता है। धनायन बिना किसी सुरक्षित आवरण के लिपिड से नहीं गुजर सकते हैं। अतः धनायन कोशिका झिल्ली को लिपिड विलेय सतह प्रदान करते हैं। 

sodium potassium pump
सोडियम पोटैशियम पम्प (sodium potassium pump)

0-15M तथा 0.01M क्रमश : K+ तथा Na+ आयनों की सान्द्रता अधिकांश प्राणी कोशिकाओं के अन्दर होती है। कोशिकाओं के बाहर द्रव्य Na+ में K+ तथा आयनों की सान्द्रता क्रमश: 0-15M/0.004M तथा होती है। इस प्रकार Na+ तथा K+ आयनों के बड़े सान्द्रण प्रवणता के लिये सोडियम पम्प या Na+/K+ पम्प की आवश्यकता होता है। इन आयनों के स्थानान्तरण के लिये आवश्यक ऊर्जा ATP के जल अपघटन द्वारा प्राप्त होती है। 

सोडियम पम्प द्वारा Na+ आयनों का कोशिका के बाहर सक्रिय बींगमन तथा K*आयनों का सक्रिय कोशिका के अन्दर प्रवेश किया जाता है। एक ATP अणु के जल-अपघटन से प्राप्त ऊर्जा तीन Na+ आयनों को कोशिका के बाहर करने के लिए, दो K+ आयनों तथा एक H+ आयन को कोशिका के अंदर रखने के लिए पर्याप्त होती है।

कोशिका के अन्दर तथा बाहर Na+ एवं K+ के भिन्न अनुपातों से कोशिका झिल्ली के दोनों ओर विभव उत्पन्न होता है, जो कि तंत्रिका तथा माँसपेशियों के क्रियाओं के लिये आवश्यक है। कोशिका में Na+ आयन ग्लूकोज अणु के साथ प्रवेशित होता है, जिससे उच्च सान्द्रण की स्थिति निर्मित हो जाती है इसीलिये Na+ को कोशिका के बाहर करना आवश्यक होता है। कोशिका के अन्दर ग्लूकोज अणुओं के चयापचय के लिये Kआयन की आवश्यकता होती है। जब कोशिका के अन्दर वाले भाग में Na* तथा बाहर वाले भाग में K आयनों की सान्द्रता अधिक हो जाती है तो एक संरूपण परिवर्तन के द्वारा Na+/K+ पम्प से Na+ आयन कोशिका के बाहर तथा K+ कोशिका के अन्दर हो जाते हैं। यह पम्प उत्क्रमणीय होता है। कोशिका झिल्ली की सोडियम / पोटैशियम ऐडिनोट्राइफॉस्फेटेज एन्जाइम Na+/K+ पम्प की तरह कार्य करते हैं।



आज के इस लेख में हमने जैव-अकार्बनिक रसायन (Bio-Inorganic Chemistry) के सवाल और उनके जवाब के बारे में जाना। विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में जैव-अकार्बनिक रसायन (Bio-Inorganic Chemistry) के सवाल पूछे जाते हैं।

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चुम्बक से संबंधित सवाल (Magnet related questions in Hindi)

चुम्बक से संबंधित सवाल (Magnet related questions)

हेलो दोस्तों, इस लेख में चुम्बक से संबंधित सवाल जैसे- चुम्बक क्या है, चुम्बकीय व्यवहार क्या है, प्रतिचुम्बकीय ,लौह्चुम्बकीय क्या है के बारे में विस्तृत रूप में जानेंगे। चुम्बक विज्ञान के प्रमुख खोजो में से एक हैं. यदि चुम्बक ना होता तो आज न जाने कितनी ही विधुत से चलने वाली चीजे ना बन पाती क्योंकि चुम्बक अपने आप पास एक चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न करता हैं जिसके सहारे आज कई सरे यंत्र चलायें जा रहें हैं. आज के इस लेख में हम चुम्बक से संबंधित सवाल और उनके सही और सटीक जवाब को कारण सहित जानेंगे।

Magnet related questions in Hindi


चुम्बक क्या है ?

चुम्बक वह पदार्थ या वस्तु है ,जो चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न करता है । इसी चुम्बकीय क्षेत्र के कारण चुम्बकीय पदार्थ आकर्षित या प्रतिकर्षित होते हैं। चुम्बकीय पदार्थ जैसे- लोहा ,निकिल, कोबाल्ट इत्यादि को चुम्बक आकर्षित करता है। चुम्बक प्राकृतिक रूप में भी पाए जाते हैं लेकिन अधिकतर चुम्बक को कृत्रिम रूप से बनाया जाता है।
कृत्रिम चुम्बक दो प्रकार के होते हैं- 

1. स्थायी चुम्बक: स्थायी चुम्बक वे चुम्बक होते हैं, जिनमे चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न करने के लिए विद्युत् धारा की आवश्यकता नहीं होती है। स्थायी चुम्बक में चुम्बकत्व आसानी से समाप्त नहीं होती है।

2.अस्थायी चुम्बक: अस्थायी चुम्बक वे चुम्बक होते हैं जिनमे विद्युत् धारा की सहायता से चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न किया जाता है। इनका चुम्बकत्व आसानी से समाप्त हो जाता है।

चुम्बकीय व्यवहार से आप क्या समझते हैं? चुम्बकीय व्यवहार कितने प्रकार के होते हैं?

उत्तर – संक्रमण धातु संकुल बन्ध चुम्बकीय क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। संकुलों द्वारा प्रदर्शित भिन्न-भिन्न व्यवहार को चुम्बकीय व्यवहार कहते हैं। संक्रमण धातु संकुलों में चुम्बकीय गुण संकुल के धातु आयन में उपस्थित अयुग्मित इलेक्ट्रॉन के चक्रण गति या कक्षक गति या दोनों के कारण उत्पन्न होता है। इस प्रकार संकुलों द्वारा प्रदर्शित चुम्बकीय व्यवहार अलग-अलग प्रकार के होते हैं, जो निम्नानुसार हैं.

चुम्बकीय व्यवहार के प्रकार- 

  1. प्रति चुम्बकीय व्यवहार,
  2. अनुचुम्बकीय व्यवहार, 
  3. लौहचुम्बकीय व्यवहार, 
  4. प्रति लौह चुम्बकीय व्यवहार, 
  5. फेरी चुम्बकीय व्यवहार।


प्रतिचुम्बकत्व एवं प्रतिचुम्बकीय पदार्थ को समझाइये।

उत्तर - ऐसे पदार्थ, जो किसी चुम्बकीय क्षेत्र में रखे जाने पर क्षेत्र के विपरीत दिशा में आंशिक रूप से चुम्बकित हो जाते हैं अर्थात् चुम्बकीय बल रेखायें निर्वात् की अपेक्षा इन पदार्थों में कठिनाई से गुजरती है, इन्हें प्रतिचुम्बकीय पदार्थ कहते हैं। पदार्थों के इस गुण को प्रतिचुम्बकत्व कहते हैं,प्रतिचुम्बकीय पदार्थ चुम्बकीय बल रेखाओं को प्रतिकर्षित करते हैं। ऐसे पदार्थ, जिनमें युग्मित इलेक्ट्रॉन होते हैं। चुम्बकीय व्यवहार प्रदर्शित नहीं करते हैं।

प्रतिचुम्बकीय पदार्थ को चुम्बकीय क्षेत्र में रखने पर उनमें एक प्रेरित चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है, जो लगाये गये चुम्बकीय क्षेत्र का विरोध करता है। प्रतिचुम्बकत्व सभी पदार्थों में मिलता है, क्योंकि यह युग्मित इलेक्ट्रॉनों के कारण होता है। केवल हाइड्रोजन इसका अपवाद है। युग्मित इलेक्ट्रॉनों वाले पदार्थों में एक इलेक्ट्रॉन द्वारा उत्पन्न चुम्बकीय आघूर्ण अपने साथी इलेक्ट्रॉन द्वारा उत्पन्न चुम्बकीय आघूर्ण के बराबर एवं विपरीत होने के कारण एक-दूसरे को निरस्त कर देते हैं, जिससे युग्मित इलेक्ट्रॉन युक्त पदार्थों में चुम्बकीय आघूर्ण नहीं पाया जाता है।

जैसे- Sc (III), Ti (IV), Zn (II), Cr (I), TiO2, V2O5 आदि।

अनुचुम्बकत्व एवं अनुचुम्बकीय व्यवहार की व्याख्या कीजिए।

उत्तर- जब किसी पदार्थ को चुम्बकीय क्षेत्र में रखा जाता है, तो पदार्थ के अन्दर चुम्बक की क्षेत्र-शक्ति लगाये गये चुम्बकीय क्षेत्र शक्ति से अधिक होती है, तो ऐसे पदार्थों को अनुचुम्बकीय पदार्थ कहते हैं। चुम्बकीय बल रेखायें निर्वात् की अपेक्षा इन पदार्थों में से आसानी से गुजर जाती है। इस प्रकार अनुचुम्बकीय पदार्थ चुम्बकीय बल रेखाओं को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। पदार्थों के इस गुण को अनुचुम्बकत्व कहते हैं। ऐसे संक्रमण तत्व,जिनके (n-1)d कक्षक में अयुग्मित इलेक्ट्रॉन पाये जाते हैं । ये अनुचुम्बकीय व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। ऐसे संक्रमण तत्वों के संकुलों को चुम्बकीय क्षेत्र में रखने पर इनका परिणामी चुम्बकीय आघूर्ण शून्य नहीं होता है तथा संकुल चुम्बकीय क्षेत्र द्वारा आकर्षित होता है। इन संकुलों में अयुग्मित इलेक्ट्रॉनों n की संख्या जितनी अधिक होगी, अनुचुम्बकत्व गुण उतना ही अधिक होगा। 

अनुचुम्बकत्व तीन प्रकार का होता है -

  1. सामान्य अनुचुम्बकत्व
  2. ताप पर निर्भर न करने वाला अनुचुम्बकत्व
  3. मुक्त इलेक्ट्रॉन अनुचुम्बकत्व

लौह चुम्बकत्व एवं लौह-चुम्बकीय पदार्थ की व्याख्या कीजिए।

उत्तर - यह एक विशेष प्रकार का अनुचुम्बकत्व है। वे पदार्थ, जिनमें बड़ी संख्या में अयुग्मित इलेक्ट्रॉन होते हैं तथा जिसे स्थायी रूप से चुम्बकीत किया जा सकता है, उसे लौह-चुम्बकीय (Ferromagnetic) पदार्थ कहते हैं। ये पदार्थ चुम्बकीय क्षेत्र में अत्यधिक प्रबलता से आकर्षित होते हैं। जैसे-Fe, Co, Ni, CrO2, एवं Fe3O4 आदि ।

लौह-चुम्बकत्व तथा अनुचुम्बकत्व में तीव्रता का अन्तर पाया जाता है । लौह-चुम्बकीय पदार्थों का चुम्बकीय क्षेत्र में चुम्बकन बहुत तीव्र एवं प्रबल होता है। अनुचुम्बकीय पदार्थों में चुम्बक की भाँति व्यवहार करने वाले परमाणु या आयन अधिक दूरी पर होते हैं, अतः इनके मध्य कोई अन्योन्य क्रिया नहीं होती है। ये पदार्थ तनु चुम्बकीय कहलाते हैं। लौह-चुम्बकीय पदार्थों में अनुचुम्बकीय परमाणु या आयन एक-दूसरे के अधिक निकट होते हैं। ये पदार्थ सान्द्र चुम्बकीय पदार्थ कहलाते हैं। सान्द्र चुम्बकीय पदार्थ के सभी अनुचुम्बकीय आयनों के कुल चक्रण मूल अवस्था में एक ही दिशा में सरेखित हो जाते हैं, यह प्रक्रिया ही लौह-चुम्बकत्व है।


लौह-चम्बकत्व एवं प्रति लौह-चुम्बकीय पदार्थ की व्याख्या कीजिए।

उत्तर - ऐसे पदार्थ, जिनमें आधे इलेक्ट्रॉन चक्रण एक प्रकार से पंक्तिबद्ध होते हैं तथा आधे इलेक्ट्रॉन चक्रण दूसरे प्रकार से पंक्तिबद्ध होते हैं, प्रति लौह-चुम्बकीय पदार्थ कहलाते हैं। इन पदार्थों में चुम्बकीय आघूर्ण नहीं होता तथा ये चुम्बकीय क्षेत्र में अनुचुम्बकीय व्यवहार प्रदर्शित नहीं करते हैं। ऐसे पदार्थों को जब गर्म किया जाता है, तो एक निश्चित ताप के बाद ये अनुचुम्बकीय हो जाते हैं। वह ताप, जिसके ऊपर प्रति लौह-चुम्बकीय पदार्थ अनुचुम्बकीय गुण प्रदर्शित करते हैं, उस ताप को नील-ताप (Neel-temp.) कहते हैं। 

जैसे-MnC एवं Fe3+, Mn2+, Gd3+ के अनेक लवण तथा V2O3, Cr2O3, CoO, NiO आदि प्रति लौह-चुम्बकीय गुण प्रदर्शित करते हैं।

विधि - दिये गये पदार्थ के चूर्ण को सेम्पल नली में भरकर इसे वैश्लेषिक तुला में लटका देते हैं। सेम्पल नली चित्रानुसार विद्युत् चुम्बकीय क्षेत्र में लटकी रहती है। पहले पदार्थ का भार ज्ञात कर लेते हैं । इसके बाद 5,000 से 15,000 ऑस्टैड शक्ति का चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न कर पदार्थ का पुन: भार ज्ञात कर लेते हैं। दोनों भार का अन्तर An ज्ञात करके सूत्र द्वारा चुम्बकीय आण्विक सुग्राहिता की गणना कर लिया जाता है।


चुम्बकीय सुग्राहिता की परिभाषा दीजिये। 

उत्तर- चुम्बकीय सुग्राहिता (Magnetic Susceptibility)- चुम्बकीयकरण की तीव्रता (I) तथा चुम्बकीय क्षेत्र शक्ति (H) के अनुपात को चुम्बकीय सुग्राहिता कहते हैं।

K = I / H 

जहाँ K = चुम्बकीय सुग्राहिता है. 

जिसे चुम्बकीय सुग्राहिता प्रति इकाई आयतन में व्यक्त की जाती है, जिसे आयतन सुग्राहिता भी कहते हैं। प्रति चुम्बकीय पदार्थों के लिये K का मान ऋणात्मक होगा तथा अनुचुम्बकीय पदार्थों के लिए धनात्मक होगा।

इस लेख में चुम्बक से संबंधित सवाल जैसे- चुम्बक क्या है, चुम्बकीय व्यवहार क्या है, प्रतिचुम्बकीय ,लौह्चुम्बकीय पदार्थ क्या है के बारे में जाना। विभिन्न परीक्षाओं में चुम्बक से संबंधित सवाल पूछे जाते हैं।

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और महत्वपूर्ण सवाल -

क्रिस्टल क्षेत्र से सम्बंधित महत्वपूर्ण सवाल | Important question related to crystal field

क्रिस्टल क्षेत्र से सम्बंधित महत्वपूर्ण सवाल - जवाब 

क्रिस्टल क्षेत्र - क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत (सीएफटी) के टूटने का वर्णन करता है पतित इलेक्ट्रॉन ऑर्बिटल राज्यों में, आमतौर पर डी या एफ ऑर्बिटल्स, एक स्थैतिक विद्युत क्षेत्र के कारण जो एक आसपास के आवेश वितरण (आयनों पड़ोसियों) द्वारा उत्पादित होता है।

क्रिस्टल क्षेत्र से सम्बंधित महत्वपूर्ण सवाल  Important question related to crystal field

क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत
- क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत (CFT) के टूटने का वर्णन करता है पतित इलेक्ट्रॉन ऑर्बिटल राज्यों में, आमतौर पर d या f ऑर्बिटल्स, एक स्थैतिक विद्युत क्षेत्र के कारण जो एक आसपास के आवेश वितरण (आयनों पड़ोसियों) द्वारा उत्पादित होता है।

क्रिस्टल क्षेत्र से सम्बंधित महत्वपूर्ण सवाल 

Q.1 क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धान्त के प्रमुख विशेषताओं तथा सीमाओं का वर्णन कीजिए।

उत्तर- क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत- इस सिद्धान्त का प्रतिपादन सर्वप्रथम एच. बेथे (H. Bethe) ने सन् 1929 तथा जे. एच. वानब्लेक (J.H. Vanvleck) ने सन् 1932 में आयनिक क्रिस्टलों के अध्ययन लिए किया। इसी कारण इसे क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धान्त कहते हैं। ऑरगेल ने सन् 1952 में क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धान्त का उपयोग संकुलों में धातु-लिगैण्ड बंधन की प्रकृति समझाने के लिए किया। इस सिद्धांत के अनुसार संकुल में धातु आयन तथा लिगैण्ड के मध्य पाया जाने वाला आकर्षण पूर्णतः स्थिर-वैद्युत या आयनिक (Electrostatic or ionic) होता है। 

इस सिद्धांत के अनुसार, लिगैण्ड बिन्दु आवेश या बिन्दु द्विध्रुव (Point charge or point dipoles) होता है। ये लिगैण्ड धातु आयन के आस-पास सममित व्यवस्था में धातु आयन पर विद्युतीय विभव क्षेत्र का निर्माण करते हैं, जो केन्द्रीय धातु आयन के d-ऑर्बिलों पर प्रतिकर्षी प्रभाव डालते हैं। 

क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत की मुख्य विशेषताएँ / मुख्य परिकल्पनाएँ -

  1. संकुल लवणों में केन्द्रीय धातु आयन धनायन होता है, जिसके रिक्त कक्षकों को लिगैण्ड इलेक्ट्रॉन प्रदान करता है। 
  2. लिगैण्ड पर असहभाजित इलेक्ट्रॉन जोड़ा होने के कारण इसे बिन्दु आवेश के रूप में माना जाता है, जैसे-H0 तथा NH3. 
  3. कक्षकों की आपेक्षिक ऊर्जाएँ सदैव समान नहीं होती हैं, यह भिन्न लिगैण्ड के लिए भिन्न होती हैं। 
  4. (iv) केन्द्रीय धातु आयन तथा लिगैण्डों में विपरीत आवेश होने के कारण दोनों के मध्य आयनिक बन्ध कार्य करने लगता है। 
  5. जटिल यौगिकों के स्पेक्ट्रा विभिन्न त कक्षकों की विभिन्न ऊर्जाओं के मध्य इलेक्ट्रॉनिक संक्रमण के आधार पर समझाये जा सकते हैं।
  6. लिगैण्ड के ऋणावेशित इलेक्ट्रॉन धनायन के संयोजकता इलेक्ट्रॉन को प्रतिकर्षित करते हैं, जिससे कक्षकों की सम्भ्रशता (degeneracy) समाप्त होकर ये कक्षक विभिन्न ऊर्जा स्तर प्राप्त कर लेते हैं, साथ ही संयोजकता इलेक्ट्रॉन उन 
  7. उप-सहसंयोजी यौगिक व चुम्बकीय गुण लिगैण्ड द्वारा d कक्षक के विस्फुटन (splitting) की मात्रा पर निर्भर करता है। d कक्षकों का विस्फुटन अधिक होने पर अयुग्मित इलेक्ट्रॉनों की संख्या में कमी हो जाती है तथा चुम्बकीय गुण भी कम हो जाता हैं.

क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत की मुख्य सीमाएँ - 

क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धान्त हालाँकि जटिल लवणों के निर्माण को समझाने में सफल रहा, किन्तु निम्नलिखित कमियों से मुक्त रहा -

  1. विभिन्न लिगैण्डों की आपेक्षिक शक्ति के निर्धारण का आधार संतोषजनक नहीं रहा है। 
  2. लिगैण्ड कक्षकों की अपेक्षा धातु कक्षकों पर पूर्णरूपेण विचार किया गया। 
  3. विभिन्न लिगैण्डों की आपेक्षिक शक्ति के निर्धारण का आधार संतोषजनक नहीं है।

Q.2 क्रिस्टल क्षेत्र विभाजन या विस्फुटन ऊर्जा क्या है ? इसे प्रभावित करने वाले कारकों को संक्षेप में लिखिए।

अथवा 

क्रिस्टल तंत्र विपाटन ऊर्जा (C.E.S.E.) को प्रभावित करने वाले कारकों का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए।

उत्तर- स्थिर विद्युत् क्षेत्र में धातु आयन के d कक्षक, लिगैण्ड रूपी बिन्दु आवेश के प्रभाव से पृथक् हो जाते हैं और उनकी ऊर्जा में परिवर्तन हो जाता है। यह बिखराव विस्फुटन कहलाती है तथा ऊर्जा में परिवर्तन विस्फुटन ऊर्जा कहलाती है। इस प्रक्रिया में विभिन्न लिगैण्डों के प्रभाव से विभिन्न तरंगदैर्घ्य का प्रकाश अवशोषण होता है, जो स्पेक्ट्रम द्वारा ज्ञात होता है। 

धातु के d कक्षकों का त्रिविम विन्यास के कारण उनमें ऊर्जा परिवर्तन भिन्न-भिन्न होता है। फलस्वरूप t2g कक्षक(तीन) और eg कक्षक (दो) इस प्रकार अलग-अलग ऊर्जा क्षेत्र में आ जाते हैं। 

विस्फुटन ऊर्जा को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं- 

(अ) धातु आयन की प्रकृति, 
(ब) लिगैण्ड की प्रकृति, 
(स) संकुल की ज्यामिति । 

(अ) धातु आयन की प्रकृति -

(i) समान धातु पर आवेशों की भिन्नता- धातु आयन में आवेश की वृद्धि से आयन का आकार छोटा हो जाता , इससे अधिक आवेश युक्त धनायन लिगैण्ड को अधिक ध्रुवित कर सकता है, फलस्वरूप दोनों आयनों के निकट आने - अधिक विपाटन हो जाता है अर्थात् 10D, में वृद्धि हो जाती है। जैसे-
[Fe(H2O)6]++, Fe++  10Dq के मान 10400 cm-1 
[Fe(H2O)6]++, Fe+++  10Dq के मान 13700 cm-1 

(ii) भिन्न धातु आयनों पर भिन्न आवेश- 10D, के मान आवेश के परिमाण के समानुपाती होता है। दो भिन्न धातु पर आवेशों की संख्या भिन्न किन्तु इलेक्ट्रॉनों की संख्या समान होता है अर्थात् अधिक आवेश वाले धातु आयनों के लिए 10D, का मान अधिक होता है। जैसे-

[V(H2O)6]++  10Dq = 12400 cm-1
[Ga(H2O)6]+++  10Dq = 17400 cm-1 

(iii) भिन्न धातु आयनों पर समान आवेश-जब दो भिन्न धातु आयन समान आवेश रखते हैं, तो एक ही संक्रमण श्रेणी होने पर उनमें उपस्थित d इलेक्ट्रॉनों की संख्या भिन्न होगी। d इलेक्ट्रॉनों की संख्या जैसे -

[CO(H2O)6]++  10Dq के मान 9300 cm-1 

[Ni(H2O)6]++  10Dq के मान 8500 cm-1

(ब) लिगैण्ड की प्रकृति - केन्द्रीय धातु आयन के d कक्षकों को विभिन्न लिगैण्ड विभिन्न प्रमाण में विस्फुटित करते हैं । केन्द्रीय धातु आयन के d कक्षकों का विस्फुटन करने वाले लिगैण्ड तथा अपेक्षाकृत कम विस्फुटन करने वाले लिगैण्ड दुर्बल लिगैण्ड कहे जाते हैं। CN- आयन A का अधिक मान देने से प्रबल लिगैण्ड तथा CI आयन A का कम मान देने से दुर्बल लिगैण्ड कहा जाता है। लिगैण्डों को उनकी विस्फुटन क्षमता (splitting power) के क्रम में रखे जाने पर यह श्रेणी स्पेक्ट्रो रसायन श्रेणी कहलाती है। कुछ लिगैण्डों का उनकी बढ़ती हुई विस्फोटन ऊर्जा A (क्षमता) के अनुसार क्रम है। 
I- < Br- Cl- <F- <OH- <C2O4-- <H2O <Gly < ED.A4- etc. 

(स) संकुल की ज्यामिति - अष्टफलकीय संकुल की अपेक्षा समचतुष्फलक संकुल के लिए 10D, का मान कम होता है, जबकि समतल वर्गाकार संकुल के लिए यह मान अधिक होता है । इस प्रकार के मान विभिन्न ज्यामितियों के लिए निम्न क्रम में पाये जाते हैं.
समतल वर्गाकार > अष्टफलकीय > समचतुष्फलकीय


Q 3. क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धान्त द्वारा संकुल यौगिकों के रंगीन गुण को समझाइए।

उत्तर- संकुल यौगिकों पर श्वेत प्रकाश डालने पर श्वेत प्रकाश का कुछ भाग संकुल द्वारा शोषित हो जाता है। यह शोषित प्रकाश 10 Dq अर्थात् क्रिस्टल क्षेत्र स्थायीकरण ऊर्जा के बराबर होता है। यदि संकुल द्वारा अवशोषण दृश्य क्षेत्र में होता है, तो संकुल के रंग की घोषणा करना संभव होता है। 

स्पेक्ट्रम का दृश्य क्षेत्र 4000A से 7000A तरंगदैर्घ्य के मध्य होता है। अवशोषण के अतिरिक्त शेष रंग ही संकुल का रंग होता है, जैसे -

(i) [Ti(H2O)6]+++ के लिए दृश्य क्षेत्र में 10Dq का मान लगभग 20000 cm-1 है। इसका अर्थ है कि यह संकुल नीला-हरा रंग शोषित करेगा। 

(ii) हाइड्रेटेड कॉपर (II) सल्फेट (CuSO4.5H2O) में [Cu(H2O)6]2+ आयन होता है, इसलिए यह नीला (Blue) होता है, क्योंकि यह पीले (Yellow) रंग के प्रकाश को अवशोषित करता है.

(iii) टेट्राऐमीन कॉपर (II) सल्फेट [Cu(NH3)6]2+ का रंग बैंगनी होता है, क्योंकि यह पीले - हरे प्रकाश को अवशोषित करता है।