जीवाणुओं का आर्थिक महत्त्व (Economic Importance of Bacteria)

हम दैनिक जीवन में अक्सर जीवाणु के बारे में सुनते रहते हैं जिसे अंग्रेजी में बैक्टीरिया(Bacteria) कहते हैं। जिसे हम सभी नुकसान कारक ही मानते हैं । लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस जीवाणु के लाभ भी हो सकते हैं। इस पोस्ट में हम जीवाणुओं का आर्थिक महत्त्व (Economic Importance of Bacteria) के बारे में जानेंगे। जिसमे जीवाणु से होने वाले लाभ और हानि के बारे में बताया जा रहा है।


जीवाणुओं का आर्थिक महत्त्व (Economic Importance of Bacteria)

जीवाणु हमारे लिए विभिन्न प्रकार से उपयोगी होने के साथ-साथ हानिकारक भी होते हैं। अत: जीवाणु के
आर्थिक महत्व का अध्ययन हम निम्नलिखित दो शीर्षकों के अन्तर्गत करेंगे-
(A) लाभदायक जीवाणु, (B) हानिकारक जीवाणु

(A) लाभदायक जीवाणु (Useful Bacteria)

(a) कृषि के क्षेत्र में (In field of agriculture) - ये भूमि की उर्वरता को निम्नलिखित क्रियाओं के द्वारा
बढ़ाते हैं—
(i) N, स्थिरीकरण द्वारा (By N2 fixation)- कुछ जीवाणु भूमि में स्वतन्त्र रूप से जैसे- क्लॉस्ट्रिडियम
(Clostridium) और ऐजोटोबैक्टर (Azotobactor) या लेग्यूमिनोसी कुल की जड़ों में जैसे- राइजोबियम
(Rhizobium) उपस्थित रहकर N, स्थिरीकरण के द्वारा भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते हैं।
(ii) नाइट्रीकारी जीवाणु द्वारा (By nitrifying bacteria) - ये अमोनिया को नाइट्राइट और नाइट्राइट
को नाइट्रेट में बदलकर भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते हैं। उदाहरण— नाइट्रोसोमोनास (Nitrosomonas
नाइट्रोवॅक्टर (Nitrobactor) |
(iii) मृत जीवों को सड़ाना (Decomposition of death organism) – मृत जीवों को सड़ाकर अपघटक भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते हैं।

(b) डेयरी उद्योग में (In dairy industry)- दूध में उपस्थित लैक्टिक ऐसिड जीवाणु दूध को लैक्टोर
शर्करा को दही या लैक्टिक ऐसिड में बदलते हैं, जिससे मक्खन प्राप्त किया जाता है।

(c) सिरका उद्योग में (In vineger industry)- सिरका उद्योग में ऐसीटोबैक्टर ऐसीटी (Acetobactar
acei) जीवाणु के द्वारा शर्करा के घोल को सिरके में बदला जाता है।

(d) रेशे की रेटिंग में (In ratting of fibres)- विभिन्न पौधों के तनों के रेशों को अलग करने को रेटि
कहते हैं। जूट, पटसन, सन, अलसी इत्यादि के रेशों को, इनके पौधों को पानी में सड़ाकर प्राप्त किया जाता है
इस क्रिया में जलीय जीवाणु क्लॉस्ट्रिडियम ब्यूटीरिकम (Clostridium butyricum) कार्य करती है।

(e) तम्बाकू और चाय उद्योग में (In tobacco and tea industry )- इन दोनों उद्योगों में चाय तप
तम्बाकू की पत्तियों को जीवाणुओं के द्वारा किण्वित कराया जाता है तथा अच्छी खुशबू (Flavour), क्वालिटी के
चाय व तम्बाकू प्राप्त की जाती है। मायकोकोकस कॉण्डिसैन्स (Mycococcus condisans) द्वारा चाय क
पत्तियों पर किण्वन क्रिया द्वारा क्यूरिंग (Curing) किया जाता है।

(f) चमड़ा उद्योग में (In leather industry)- चमड़ा उद्योग में वसा आदि पदार्थों का विघटन जीवाणु
के द्वारा कराया जाता है।

(g) औषधि उद्योग में (In medicine industry)- दवा उद्योग में कुछ प्रमुख ऐण्टिबायोटिक (प्रतिजैविक
तथा कुछ प्रमुख प्रकीण्व जीवाणुओं से प्राप्त किये जाते हैं और बीमारियों को ठीक करने के लिए प्रयोग में त
जाते हैं। प्रतिजैविक (Antibiotic) सूक्ष्मजीवों (Microorganism) द्वारा उत्पन्न जटिल रासायनिक पदार्थ हैं,
दूसरे सूक्ष्मजी़ीवों को नष्ट करते हैं। जीवाणुओं द्वारा उत्पादित कुछ ऐण्टिबायोटिक निम्नलिखित हैं-

(i) पॉलिमिक्सिन (Polymyxin)- इसे बैसिलस पॉलिमिक्सा (Bacillus polymyxa) नामक ग्राम
ऋणात्मक जीवाणु से प्राप्त किया जाता है।
उपर्युक्त के अलावा कुछ जीवाणु हमारे शरीर में भी सहजीवी रूप में पाये जाते हैं। जैसे-ई. कोलाई (E,
col) हमारे आँत में विटामिन संश्लेषण का कार्य करता है। कुछ जीवाणु सड़े-गले पदार्थों को अपघटित करके
हमारी मदद करते हैं।

(ii) बैसिट्रेसिन (Bacitracin)- इसे बैसिलस सबटिलिस (B. subtilis) नामक ग्राम धनात्मक जीवाणु
से प्राप्त किया जाता है।

(B) हानिकारक जीवाणु (Harmful Bacteria)

इनकी हानिकारक क्रियाएँ निम्नलिखित हैं-
(1) बीमारियाँ (Diseases)- ये मनुष्य, जानवरों तथा पौधों में बीमारियाँ पैदा करते हैं।
(a) जन्तुओं की बीमारियाँ (Animal diseases)- सामान्यतः मनुष्य तथा दूसरे जन्तुओं के शरीर में
पाये जाने वाले परजीवी जीवाणु कोई न कोई बीमारी फैलाते हैं। कुछ प्रमुख जीवाणु रोग तथा उनके कारक
निम्नलिखित हैं-

रोग का नाम- ट्यूबरकुलोसिस (T.B.)
कारक जीवाणु का नाम- मायकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस (Mycobacterium tuberculosis)

रोग का नाम- प्लेग (Plague)
कारक जीवाणु का नाम- पाश्चुरेला पेस्टिस (Pasteurella pestis)

रोग का नाम- डिफ्थीरिया (Diphtheria)
कारक जीवाणु का नाम-  कोरिनीबैक्टीरियम डिफ्थेरी (Corynebacterium diphtheriae)

रोग का नाम- टायफॉइड (Typhoid)
कारक जीवाणु का नाम- साल्मोनेला टायफी (Salmonella typhii)

रोग का नाम- कॉलरा (Cholera)
कारक जीवाणु का नाम- विब्रियो कॉलेरी(Vibrio cholerae)

रोग का नाम- निमोनिया (Pneumonia)
कारक जीवाणु का नाम- डिप्लोकोक्कस न्यूमोनी (Diplococcus pneumoniae)

रोग का नाम- भोजन जहर (Food Poisoning)
कारक जीवाणु का नाम- क्लॉस्ट्रिडियम बाटुलिनम (Clostridium botulinum)

रोग का नाम- कुष्ठ रोग (Leprosy)
कारक जीवाणु का नाम-  मायकोबैक्टीरियम लेप्री (Mycobacterium leprae)

रोग का नाम- टीटेनस (Lock Jaw)
कारक जीवाणु का नाम- क्लॉस्ट्रिडियम टिटैनी (Clostridium tetani)


रोग का नाम- सिफिलिस (Syphilis)
कारक जीवाणु का नाम- ट्रीपोनीमा पैलिडुम (Treponema pallidum)

रोग का नाम- मेनिन्जाइटिस (Meningitis)
कारक जीवाणु का नाम- नीसेरिया मेनिंजीटाइडिस (Neisseria meningitides)

जानवरों के रोग 

रोग का नाम- भेड़ का एन्थ्रेक्स रोग
कारक जीवाणु का नाम- बैसिलस एन्थेसिस (Bacillus anthracis)

रोग का नाम- जानवरों का काला पैर रोग (Black leg of animals)
कारक जीवाणु का नाम- क्लॉस्ट्रिडियम चूवी (Clostridium chauvei)

पौधों की बीमारियाँ

रोग का नाम- नीबू का कैंकर रोग (Citrus canker)
कारक जीवाणु का नाम- जन्थोमोनास सिट्टी (Kanthomonas citri)


रोग का नाम- ब्लाइट ऑफ राइस (Blight of rice)
कारक जीवाणु का नाम- जैन्थोमोनास ओराइजी (Xoryzae)

रोग का नाम- आलू का शिथिल रोग (Potato wilt)
कारक जीवाणु का नाम- स्यूडोमोनास सोलनेसीरम (Pseudomonas solanacearum)

रोग का नाम- वीन ब्लाइट (Bean blight)
कारक जीवाणु का नामजैन्थोमोनास फेजिओली (X plhaseoli)

रोग का नाम- काटन का ब्लैक आर्म रोग (Black arm of cotton)
कारक जीवाणु का नाम- जन्थोमोनास मालवेसीरम (X malyacearum)

रोग का नाम- पोटेटो स्कैब (Potato scab)
कारक जीवाणु का नाम- स्ट्रोटोमाइसिस स्कैबीज (Streptomyces scabies)

(2) विनाइट्रीकरण (Denitrification)- विनाइट्रीकरण वह क्रिया है, जिसमें उपयोगी नाइट्रोजन के
यौगिकों को पुनः अमोनिया और N, में बदल दिया जाता है। कुछ जीवाणु इस क्रिया के द्वारा भूमि की उर्वरा शक्ति
को कम करते हैं। कुछ जीवाणु जैसे- थायोबैसिलस डीनाइट्रीफिकेन्स (Thiopbacillus denitrificaus
और माइक्रोकोकस डीनाइट्रीफिकेन्स (Micrococus denitrificans) नाइट्रेट को स्वतन्त्र नाइट्रोजन
अमोनिया में बदल देते हैं।

(3) भोजन को विषावत करना (Food poisoning)- कुछ जीवाणुओं द्वारा भोज्य पदार्थों के उत्तयो
को विषैले पदार्थों में बदल दिया जाता है, जिससे भोजन जहरीला हो जाता है और खाने वाले की मृत्यु हो जह
है। क्लॉस्ट्रिडियम बॉटुलिनम (Clostridium botulinum) मांस एवं दूसरे अधिक प्रोटीन वाले शाकों को ऋ
कर देता है।

उपर्युक्त लाभकर तथा हानिकर क्रियाओं के आधार पर जीवाणु हमारे मित्र एवं शत्रु दोनों हैं।

इस पोस्ट में हमने जीवाणुओं का आर्थिक महत्त्व (Economic Importance of Bacteria) के बारे में जाना। जो कॉलेज की परीक्षाओं में एक महत्वपूर्ण प्रश्न है।

उम्मीद करता हूँ कि जीवाणुओं का आर्थिक महत्त्व (Economic Importance of Bacteria) का यह पोस्ट आपके लिए उपयोगी साबित होगा। अगर आपको यह पोस्ट पसंद आया हो तो इस पोस्ट को शेयर जरुर करें।

मधुमक्खी की विषाक्तता (Toxicity of - honey bee)

क्या आपको कभी मधुमक्खी ने काटा है? क्या आप जानना चाहते हैं की मधुमक्खी विष क्या होता है? मधुमक्खी के काटने पर इसका उपचार(treatment) कैसे करें? ये जानने के नीचे लिखे content आपके लिए बहुत उपयोगी होने वाला है.

मधुमक्खी की विषाक्तता (Toxicity of - honey bee)– 



भारतवर्ष में मधुमक्खियों की पाँच जातियाँ पाई जाती हैं, जिन्हें एपिस डार्सेटा (Apis dorsata), एपिस इंडिका (Apis indica), एपिस फ्लोरिया (A. flora), मेलिपोना इरिडिपेन्निस (Melipona iridipennis) तथा एपिस मेलिफेरा (A. mellifera), इन मधुमक्खियों में बहुरूपता (Polymorphism) एवं श्रम विभाजन (Divison of labour) स्पष्ट एवं अच्छी विकसित अवस्था में पाया जाता है। 

बहुरूपी प्रकारों की रानी (Oueen), एवं श्रमिक (Workers) मधुमक्खियों में दंशक उपकरण (Sting ap paratus) पाया जाता है। दंश उपकरण में एक जोड़ी अम्लीय विष ग्रंथि (Acid venom gland) एक क्षारीय ग्रंथि (AI kaline gland) एक मजबूत पेशीय बल्ब तथा काइटिन युक्त डंक (Chtinized sting) पाए जाते हैं ।

मधुमक्खी विष (Honey bee poison)  

मधुमक्खी के विष में हिस्टामीन (Histamine) एवं मैलिटिन (Melli tine) नामक विशिष्ट प्रोटीन पाए जाते हैं। इन प्रोटीन्स के अतिरिक्त हायलूरोनाइडेज़ (Hyluronidase), फॉस्फो लाइपेज (Phosphohlipase) ए एवं बी, ऐपामीन (Apa mine) एवं पेप्टाइडेज (Peptidaze) पाए जाते हैं । 

विष के लक्षण (Symptoms of Venom ) 

मधुमक्खी एवं बर्र कीट जब किसी भी मनुष्य को काटते हैं तब डंक की सहायता से वह घाव बनाता है और घाव के अंदर गहराई तक जाकर यह डंक विष को अंदर पहुँचाने में सहायता करता है। विष के शरीर में प्रवेश करने पर निम्नलिखित लक्षण परिलक्षित होते हैं.  

  1.  काटने वाले भाग में दर्द, लालिमा तथा सूजन दिखाई देता है। 
  2.  दर्द युक्त एवं कभी-कभी घातक अभिक्रियाएँ होती 
  3.  मुख, गले, चेहरे, गर्दन या भुजाओं पर लेरिंग्स (Larynx) या ग्रसनी (Pharynx) का सूजन तथा अवरोध निर्मित हो जाता है।

मक्खियों के द्वारा अनेकों डंक के प्रहार से पेट में विसंगति एवं उल्टी होना तथा डायरिया के साथ मूर्छा होने की क्रिया दिखाई देती है। यदि दंश घातक नहीं होता है, तब इसका प्रभाव 24 घंटों तक रहता है। तीव्र अभिक्रियाओं की स्थिति से 2-15 मिनट में मृत्यु हो सकती है।

उपचार (Treatment) 

  1.  डंक को शरीर से बाहर निकाल देना चाहिए तथा वहाँ पर चीरा लगाकार टिंचर आयोडीन लगा देना चाहिए । 
  2.  स्थानीय भाषा में दंश पर एवं चारों ओर एन्टीहिस्टामिन (Antihistamine) औषधि का उपयोग करना चाहिए। 
  3.  बहुगुणित डंक दंश में हाइड्रोकार्टिसोन (Hydro cortisone) को अंतःशिरायी (Intravenosuly) रूप से देने से लाभ होता है। 
  4.  पित्ती एवं सूजन में कैल्सियम को अंतः शिरायी रूप (Intravenously) देने से लाभ होता है ।
इस पोस्ट में हमने मधुमक्खी के विष, मधुमक्खी के काटने से क्या होता है उसके के क्या उपाय हैं के बारे में जाना।

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ऊष्ण कटिबंधीय वन (Tropical forests)

जीवन की कल्पना श्वसन के बिना नहीं हो सकती है। श्वसन में मनुष्य ऑक्सीजन ग्रहण करता है यह ऑक्सीजन उसे पेड़ पौधों से प्राप्त होता है। अनेक प्रकार के पेड़ पौधे एक स्थान पर होते हैं तो उसे वन कहते हैं। वनों में कई प्रकार के वन होते  हैं। ऊष्ण कटिबंध वन उनमे से एक प्रकार है। जिसके बारे में हम इस पोस्ट में जानने वाले हैं।

ऊष्ण कटिबंधीय वन (Tropical forests)

ऐसे वन उष्ण एवं गर्म जलवायु वाले भागों में पाये जाते हैं। यहाँ पर अत्यंत घने, ऊँचे, वृक्ष, झाड़ियाँ एवं काष्ठीय आरोही या लाइनस पौधे उच्च वर्षा वाले क्षेत्रों, कटीले वृक्षों वाले जंगलों एवं शुष्क क्षेत्रों में कहीं-कहीं पाये जाते हैं। इस प्रकार उष्ण कटिबंधीय वन दो प्रकार के होते हैं 

(I) उष्ण कटिबंधीय आर्द्र वन (Tropical moist forests), 

(II) उष्ण कटिबंधीय शुष्क वन (Tropical dry forests) 

इन्हें भी जानें- जैव भू-रासायनिक चक्र (BIO-GEOCHEMICAL CYCLE)

(I) उष्ण कटिबंधीय आर्द्र वन (Tropical moist forests):- ऐसे बनों में वर्षा अधिक होने के कारण आर्द्रता (Moisture) काफी अधिक होती हैआर्द्रता के आधार पर ये वन तीन प्रकार के होते हैं--- 

1. उष्ण कटिबंधीय आर्द्र सदाबाहार वन (Tropical wet evergreen forests):- 250 सेमी वार्षिक वर्षा से अधिक वर्षा दर वाले भारतीय क्षेत्रों में इस प्रकार के वन स्थित हैं। इस प्रकार के वन भारत के दक्षिणी हिस्सों मुख्यतः महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल तथा अण्डमान निकोबार द्वीप समूह के कुछ भाग तथा उपरी हिस्सों मुख्यत : पश्चिम बंगाल, असम एवं उड़ीसा के कुछ भागों में पाये जाते हैं। इन वनों के वृक्षों की ऊँचाई 40-60 मीटर से अधिक होती है। इस वन के वृक्ष सदाबहार प्रवृत्ति के तथा चौड़ी पत्ती वाले होते हैं। यहाँ काष्ठीय लता तथा उपरिरोही (Epiphytes) की बहुतायत होती है। 

उदाहरण- साल या शोरिया (Shorea), डिप्टेरोकार्पस (Dipterocarpus), आम (Mangifera), मेसुआ (Mesia), होपिया (Hopea), बाँस, इक्जोरा (Ixora), टायलोफोरा (Tylophora) आदि। 

2. उष्ण कटिबंधीय नम अर्द्ध-सदाबहार वन (Tropi cal moist semi-evergreen forests):- इन वनों का विस्तार 200-250 सेमी तक वार्षिक वर्षा स्तर वाले क्षेत्रों में मिलता है। भौगोलिक दृष्टि से इन वनों का विस्तार पश्चिमी घाट से पूर्व की ओर, बंगाल एवं पूर्वी उड़ीसा तथा आसाम में एवं अण्डमान-निकोबार द्वीप समूहों में हैं। इन वनों में कुछ पर्णपाती वृक्षों की जातियाँ भी पायी जाती हैं, इसलिए इन्हें अर्द्ध सदाबहार वन कहते हैं। इन वनों में पाये जाने वाले कुछ पौधे पर्णपाती तो होते हैं, लेकिन पत्ती रहित अवस्था अल्पकालिक होती है। 

उदाहरण- टर्मिनेलिया पैनीकुलाटा (Terminalia paniculata) साल (Shorea robhusta), कचनार (Bauhinal), आम (Mengiphera); मैलोटस (Mallotus), टिनोस्पोरा (Tinospora), एण्ड्रोपोगॉन (Andropogon), आदि। 

3. उष्ण कटिबंधीय आर्द्र पर्णपाती वन (Tropical most deciduous forests):- औसतन 100 से 200 सेमी वर्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में इस प्रकार के वन मिलते हैं। भौगोलिक दृष्टि से इन वनों का विस्तार अण्डमान द्वीप समूह, मध्य प्रदेश के जबलपुर, मण्डला, छत्तीसगढ़ के रायपुर, बस्तरगुजरात के डाँग, महाराष्ट्र के थाने, रत्नागिरी, कर्नाटक के केनरा, बंगलौर एवं पश्चिमी क्षेत्र, तमिलनाडु के कोयम्बटूर तथा निलंबुर व चापनपाड़ आदि क्षेत्रों में पाये जाते हैं। जाते हैंये वन उत्तरप्रदेश, झारखंड, बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगालआसाम, हिमांचल प्रदेश आदि राज्यों के कुछ भागों में पाये जाते हैंदक्षिणी आर्द्र पर्णपाती वनों की मुख्य वृक्ष सागौन (Teak) है, जबकि उत्तरी आई पर्णपाती वन की प्रमुख वृक्ष साल है। सागौन वन में कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश के कुछ वन क्षेत्रों में डायोस्पायरॉस (Dlospyros)जिजिफस (Zizyphus)कैसिया (Cas sia)स्टिरियोस्पर्मम (Stereospermum), ऐल्बिजिया (Albizzia), सायजिजियम (Syzygium), सेड्रेला (Cedrella) साथ-साथ मिश्रित रहते हैं।

पढ़ें- जंतु विज्ञान की शाखाएं (Branches of Zoology)

समुद्रतटीय एवं दलदलीय वन(Littoral and Swamp Forest):- समुद्रतटीय एवं दलदलीय वन क्षेत्र भारत के 67.00 वर्ग किलोमीटर में फैला के वन समुद्र तट पर उदाहरणतः पूर्वी व पश्चिमी समुद्र तट तथा बड़ी-बड़ी नदियों, जैसे- गंगा, महानदी, गोदावरी, कृष्णा व कावेरी के डेल्टाओं के ज्वारीय अनूपों में पाये जाते हैं। ये क्षेत्र नरम गाद के बने होते हैं, जिनमें राइजोफोरा (Rhizophora), सोन्नैरेशिया (Sonneratia) इत्यादि के मैंग्रोव वन उगते हैं। इस जलाक्रान्त पारिस्थितियों में वानस्पतियों के क्षय से दुर्गन्ध आने लगती है। अपेक्षाकृत अन्तस्थलीय क्षेत्रों में जहाँ भूमि पर ज्वारीय जल आता रहता है, ज्वारीय वन (Tidal forests) पाये जाते हैं। यहाँ हेरिशियेरा (Haritiera), वेस्पेशिया (Thespesia), वाड़ (Palm) विभिन्न जातियाँ तथा अन्य क्षूप उगते हैं। 

(II) उष्ण कटिबंधीय शुष्क वन (Tropical dry forests):- ऐसे वनों में औसत वर्षा अत्यंत कम होती है, जिसके कारण यहाँ का तापमान काफी अधिक हो जाता है। पौधों के प्रकृति के आधार पर ये वन तीन प्रकार के होते हैं 

1. उष्ण कटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन (Tropical dry deciduous forests):- औसत 100 सेमी वार्षिक वर्षा वाले भारतीय क्षेत्रों में उष्ण कटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन मिलते हैं तथा समस्त भारतवर्ष के वन क्षेत्र के 1/3 भाग का प्रतिनिधित्व करते हैं। भौगोलिक दृष्टि से इन वनों का विस्तार पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश तथा भारतीय प्रायद्वीप के अधिकांश भागों में हैं। 

उदाहरण- टर्मिनेलिया टोमेन्टोसा (Terminalia tomentosa), इमली (Temarindus indica), साल (Shorea robhnusia), बेल (Aegle marmelos), बेर आदि। 

2. उष्ण कटिबंधीय कटीले वन (Tropical thorn forests):- ये वन 25-70 सेमी वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में मिलते हैं। वर्षा की कमी के कारण इन प्रदेशों में पर्णपाती वनों के स्थान पर कटीले वन पाये जाते हैं। 

उदाहरण- अकेशिया निलोटिका, अ. सुन्द्रा, प्रोसेपिस सिनेरिया, बेर (Zicyphus), नागफनी (Opum tia) बारलेरिया, यूफोर्बिया की प्रजातियाँ हिन्दरोपोगॉन लेक्टाना आदि। 

3. उष्ण कटिबंधीय शुष्क सदाबहार वन (Tropi. cal thorn evergreen forests):- इस प्रकार के वन क्षेत्रों में 75-100 सेमी औसत वार्षिक वर्षा होती है। इस प्रकार के वन तमिलनाडु के पूर्वी भाग में, आंध्रप्रदेश तथा कर्नाटक के समुद्री किनारों में पाये जाते हैं। इस क्षेत्र के वनों में वृक्षों की पत्तियाँ चर्मिल (Coriaceous) होती है। इस क्षेत्र में बाँस का अभाव, लेकिन घास पाया जाता है। वृक्ष की ऊँचाई 9-15 मीटर तक होती है। सबसे ऊचे वृक्षों में स्ट्रिक्नॉस नक्स वोमिका (Strychnos mcx vomica), सैम्पिडस इमार्जिनेटस (Spindus emarginatus) में कैरिसा कैरान्डास (carissa carandas), इक्जोरा पार्विफ्लोरा (xara parviflora) आदि।

इस पोस्ट में हमने ऊष्ण कटिबंधीय वन (Tropical forests) के बारे में जाना। जो वनों के एक प्रकार में से एक है।

उम्मीद करता हूँ कि ऊष्ण कटिबंधीय वन (Tropical forests) का यह पोस्ट आपके लिए उपयोगी साबित होगा , अगर आपको यह पोस्ट पसंद आया हो तो इस पोस्ट को शेयर जरुर करें।