स्तनधारियों के श्वसन (Mammalian respiration)

हेलो दोस्तों , इस आर्टिकल में हम स्तनधारियों के श्वसन (mammalian respiration) के बारे में जानने वाले हैं। आपने श्वसन तंत्र के बारे में सुना होगा और आप जानते भी होंगे क्यूंकि मनुष्य को जीवित रहने के लिए सबसे जरुरी सांस लेना है। और श्वसन तंत्र श्वास से सम्बन्धित है। अगर आप श्वसन तंत्र के बारे में नहीं भी जानते हैं तो आपको श्वसन तंत्र के बारे में जरुर जानना चाहिए।  इस आर्टिकल में स्तनधारियों के श्वसन के बारे में जानकारी दी जा रही है। 

स्तनधारियों के श्वसन (mammalian respiration)


स्तनधारियों के श्वसन (mammalian respiration)

स्तनधारियों सहित समस्त स्थलीय तथा कुछ जलीय वर्टीब्रेट प्राणीयों में वायवीय श्वसन हेतु मुख्य श्वसनांग एक जोड़ी फेफड़े तथा श्वसन मार्ग बाह्य नासाछिद्र, नासिका वेश्म (Nasal number)अतनासाचिद्र (Internal nares) ग्रसनी (Pharynx), श्वासनलिका (Trachea) एवं श्वसन नलिकाएँ श्वसन तंत्र का निर्माण करते हैं। स्तनियों में एक जोड़ी कोमल गुलाबी, लचीली सक्षम तथा स्पंजी फेफड़े वक्षीय गुहा के मिडियास्टिनम के दोनों ओर एक-एक पाये जाते हैं। 

श्वसन मार्ग (Respiratory path):- श्वसन मार्ग वातावरण O युक्त गैसों को फेफड़े तक ले जाने तथा फेफड़े से CO, युक्त गैसों को वापस शरीर से बाहर निकालने का कार्य करते हैं ये अंग निम्नानुसार होते हैं।

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(i) बाह्य नासाछिद्र (External nares) - मुख में ठीक एक जोड़ी बाह्य नासाछिद्र उपस्थित होते हैं जो आपस में नासा पट्ट (Nasal septam) द्वारा पृथक होते हैं।

(ii) नासिका वेश्म (Nasal chamber):- प्रत्येक बाह्य नाशाछिद्र एक नालिकाकार श्वसन मार्ग में खुलती है जो प्रछाण (Vestibule) व प्राण भाग (Olfactory) दो भागों में विभक्त होती है और ग्रसनी के पृष्ठ भाग नेसोफैरिंग्स (Nassopharynx) में खुलती है नासिका वेश्म या नासा मार्ग में कठोर रोम या वाइब्रिसी (Vibrisae) पाये जाते हैं जो कुल तथा अन्य कणों को रोकने का कार्य करते हैं जबकि नासा मार्ग के श्लेष्मीकला (Mucous membrane ) को आवरण मार्ग को नम बनाये रखने तथा बाह्य वायु के तापमान को शरीर के आंतरिक तापमान के बराबर लाने का कार्य करते हैं।

(iii) ग्रसनी (Phanynx):- यह श्वसन तंत्र तथा आ नाल का संयुक्त भाग होता है। जिसमें तीन भाग नेसोफेक्ि ओरोफैरिक्स एवं लैरिंगोफैरिक्स में होते हैं। इसके नेसोफैरिक्स भाग में आंतरिक नासाछिद्र खुलते हैं तथा निचला भाग लैरिंगोफैरिक्स में एक कष्ठ या लैरिक्स (Larynx) नामक संरचना पायी जाती है जो थायरॉइड (Thyroid), क्रिकॉयड (Cricoid) तथा एरिटिनॉयड (Arytenoid) नामक उपास्थियों से मिलकर बनी होती है। लैरिंक्स से वायु के एक निश्चित दाब के साथ बहाव से स्तनियों में विभिन्न प्रकार के आवाज उत्पन्न होते हैं तथा मनुष्य में भाषा का विकास हुआ है। 

(iv) श्वासनलिका (Trachea):- यह लैरिक्स से जुड़ी हुई एक अर्द्धपारदर्शक उपस्थित नलिका है जो ग्रीवा से न्यलकर वृत्तीय गुहा में पहुंचती है और दो शाखाओं में विभक्त हो जाती है जिन्हें श्वासनलिकाएँ या ब्रोंकाई Bronchiकहते हैं। प्रत्येक ब्रोंकाई अब अपने ओर के फेफड़े में प्रवेश करती है और फेफड़े के भीतर छोटी-छोटी शाखाओं में विभक्त होकर श्वसनीय वृक्ष (Bronchial tree) का निर्माण करती है।

सरीसृपों में श्वासनाल की लम्बाई ग्रीवा या गर्दन की लम्बाई के अनुसार अलग-अलग होती है। पत्तियों में यह असामान्य रूप से अधिक लम्बी होती है तथा कॉर्टिलेजिनस ट्रेकियल रिंग्स (Cartilaginous tracheal rings) द्वारा घिरी रहती है एवं कैल्सीफाइड तथा आसीफाइड होती है। मुख्य श्वसनांग या फेफड़े (Main respiratory organs or lung) स्तनियों में फेफड़े अत्यंत विकसितस्पंजी तथा प्रत्यास्थ संरचना होती है जो बाहर से कई पालियों में स्पष्ट रूप से विभाजित होती है। मनुष्य तथा सभी स्तनियों के बाँये फेफड़े में समान्यतः 04 पाली (Lobes) होती है

जबकि दाँये फेफड़े में मनुष्यों में तीन पाली व खरगोश में 04 पाली होती हैबाँये फेफड़े का अगला पिण्ड छोटा होता है तथा इसे बाँया अग्र पिण्ड (Left anterior lobe) और पीछे वाला पिण्ड लगभग तीन गुना बड़ा होता है तथा उसे वाम पश्च पिण्ड (Left posterior lobe) कहते हैं। दाँये फेफड़े के पिण्ड (Lobes) क्रमशः आगे से पीछे की ओर इस प्रकार होते हैं

1. अग्र एजाइगस पिण्ड (Anterior Azygos Lobe):- यह सबसे छोटा होता है। 

2. दायाँ अग्र पिण्ड (Right posterior Lobe):- यह पहले से कुछ बड़ा होता है।

3. दायाँ पश्च पिण्ड (Right Posterior Lobe):- यह सबसे बड़ा होता है। 

4. पश्च एजाइगस (Posterior azygos):- यह अनं एजाइगस से कुछ बड़ा होता है। स्तनी का फेफड़ा काफी मात्रा में गैसों के आदान-प्रदान के लिए बना होता है


स्तनधारियों के श्वसन (mammalian respiration)


स्तनियों के फेफड़ा एक जटिल शाखित श्वसन वृत्त के समान होते हैं जो भीतरी ब्रोंकस के बारबार विभाजन से बनती है। विभाजित पतली शाखाएँ ब्रोंकियोल्स कहलाती है, ब्रॉकियोल्स विभाजित होकर एल्वियोलर डक्ट बनाती है। प्रत्येक एल्वियोलर डक्ट के अन्तिम सिरे फूलकर छोटे-छोटे वायुकोष या एल्विओलाई (Air sacs or Alveoli) बनाते हैं। एल्विओलाई के चारों ओर पतली रक्त केशिकाओं का जाल फैला रहता है।

फेफड़े के चारों ओर एक दोहरे पर्त वाली झिल्ली प्लूरा (Pluera) पायी जाती है। प्लूरा की एक पर्व फेफड़े से तथा दूसरी पतं वृत्तीय गुहा (Thorasic cavity) की भीतरी सतह से चिपकी रहती हैप्लूरा के दोनों स्तरों के मध्य एक तरल पदार्थ भरा रहता है जिससे फेफड़ों के फूलने व सिकुड़ने पर रगड़ नहीं होती है।

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सहायक श्वसनांग (Accessory Respiratory organ):- यद्यपि जलीय कशेरुकियों के मुख्य श्वसनांग गिल्स और स्थलीय कशेरुकियों के फेफड़े होते हैं फिर भी अन्य उपस्थित संरचनाएँ भी जल या वायु से सीधे गैसों का आदान-प्रदान करने में सहायक होते हैं। इन्हें सहायक श्वसनांग कहते हैं। ये निम्न प्रकार के होते हैं

Respitory organ of mammals


 1. पीतक कोष और ऐलेंटॉइस (yolk sac and allantois):– लगभग सभी भौणिक कशेरुकी भोजन के लिए पीतक के अवशोषण के अतिरिक्त पीतक कोष का उसके पीतक संवहन सहित गैसीय विनिमय के लिए उपयोग करते हैंये गर्भाशय की भित्ति के संपर्क में होने से श्वसन सांधन (Respiratory device) का कार्य करते हैं। ऐलेंटॉइस भी अस्थायी श्वसनांग बन जाती है। 

2. त्वचा (Skin):- उभयचरों की गीली व नम त्वचा के द्वारा श्वसन क्रिया होती है। जो कि सामान्य बात है जबकि सैलामैंडर्स जैसे जन्तु श्वसन के लिए पूर्णतया त्वचा पर ही निर्भर रहते हैं- 

3. एपिथीलियल अस्तर (Epithelial Ciring):- कुछ मछलियों और जलीय उभयचरों में अवस्कर, मलाशय आंत्र तथा मुख ग्रसनी का एपिथीलियल अस्तर अत्यंत संवहनीय होता है। जो श्वसन में सहायक होता है।

4. अवस्कर आशय (Cloacal bladders):- यह सहायक आशय विशेषकर अधिक समय तक जलमग्न रहने पर महत्वपूर्ण श्वसनांगों का कार्य करते हैं

5. तरण आशय (Swim bladders):- कुछ निम्न श्रेणी की मछलियों में फेफड़े के समान कार्य करने वाली अन्य महत्वपूर्ण संरचना तरण आशय होते हैं। इनके द्वारा भी श्वसन का कार्य किया जाता है।

इस आर्टिकल में हमने स्तनधारियों के श्वसन (mammalian respiration) के बारे में जाना। जो परीक्षा के अलावा सामान्य जीवन में बहुत जरुरी है।

आशा करता हूँ कि स्तनधारियों के श्वसन (mammalian respiration) का यह आर्टिकल आपके लिए उपयोगी साबित होगा अगर आपको यह आर्टिकल पसंद आया हो तो इस आर्टिकल को शेयर जरुर करें।

पौधों में जल अवशोषण की क्रिया विधि (Water Absorption in Plants)

अगर आप विज्ञान के विद्यार्थी हैं और आप पौधों में जल अवशोषण की क्रिया विधि के बारे में जानना चाहते हैं। तो आप बिल्कुल सही पोस्ट  में आये हैं। वनस्पति विज्ञान का यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है जो अक्सर विभिन्न परीक्षाओं में पूछा जाता है।

Water Absorption in Plants



पौधों में जल अवशोषण की क्रिया विधि (Water Absorption in Plants)

जल अवशोषण (absorption of Water) पौधों की जड़ो के मूल रोम प्रदेश में स्थित मूल रोमों की सहायता से मृदा विलयन में उपस्थित कोशिकीय जल (Copillary Water) को अंतर्ग्रहण करने की प्रक्रिया जल अवशोषण कहलाती है। उच्च वर्गीय पौधों में जल अवशोषण जड़ के द्वारा ही होता है।
पादपों में जल अवशोषण (Water absorption in plants)- रेनर (Renner, 1912-1915) के अनुसार पादपों में जल अवशोषण की प्रक्रिया निम्नांकित दो विधियों के तहत् होती है. - 
1. सक्रिय जल अवशोषण एवं 
2. निष्क्रिय जल अवशोषण 

इन्हें जानें- 100+ जीव विज्ञान प्रश्न (Biology question in hindi)

1. सक्रिय जल अवशोषण (Active water Ab sorption)

सक्रिय अवशोषण ऐसा अवशोषण है जिसमें जड़ें सान्द्रण प्रवणता के विपरीत जल का अवशोषण करती है तथा इस क्रिया में उपापचयी ऊर्जा का उपयोग किया जाता है। 
(i) इस विधि में जल का अवशोषण जड़ो की परासरणीय (Osmotic) एवं अपरासरणीय (Non-Osmotic) क्रिया के कारण होती है।
(ii) इस विधि में प्रोटोप्लास्ट का जैविक भाग जल के अवशोषण में भाग लेता है। 
(iii) इस सिध्दान्त के अनुसार मृदा विलयन की अपेक्षा मूलरोगों का D.P.D. अधिक होता है जिसके कारण जल का अवशोषण होता है।


(a) सक्रिय अवशोषण परासरण सिद्धांत (Osmotic theory of active absorption):- इस सिद्धान्त को एटकिन्स (Aitkins, 1916) एवं प्रीस्टले (Priestley) ने प्रस्तावित किया था। इस सिद्धान्त के अनुसार, पौधों में जल का अवशोषण मृदा जल (Soil water) एवं कोशिका रस (Cell sapi) के मध्य परासरण विभव में अन्तर (Differ ences in osmoti gradient) के कारण होता है जब जायलम कोशिकाओं के कोशिका रस का परासरण विभव (Osmotic Potential) मृदा विलयन (Soil solution) की अपेक्षा अधिक होता है, तब मृदा से जल परासरण क्रिया के द्वारा जायलम कोशिकाओं (Xylem cells) तक पहुँच जाता है। मृदा जल का परासरण दाब (O.P.) I atm. से कम होता है, जबकि कोशिका रस का परासरण दाब (O.P.) 2 atm.s तक होता है, जो कि कभी-कभी बढ़कर 3 से 8 atms. तक हो जाता है। मूल रोमों के कोशिका रस का (D.P.D.) अधिक होने के कारण जल अन्तःपरासरण (En dosmosis) क्रिया के द्वारा अर्द्धपारगम्य प्लाज्मा कला (Semipermeable plasma membrane) को पार करके जड़ों के अन्दर चला जाता है। इस विधि के पक्ष में कई प्रणाम दिये गये हैं। हॉगलैण्ड (Hoagland1953) ब्रायर (Broyer,1951) बान एण्डेन (Van Andel, 1953) आदि के अनुसार जायलम रस में लवणों (Salts) के संचय (Ac cumulation) के कारण जायलम रस के D.P.D. अथवा के जल विभव (Water Potential) में वृद्धि हो जाती है, जिसके कारण जल का अवशोषण होता है।


(b) सक्रिय अवशोषण का अपरासरण सिद्धान्त (Non-osmotic theory of active absorption)- बेनेट क्लार्क (Bennet clark, 1936) थीमैन (Thimmen, 1951) आदि के अनुसार पौधों में जल का अवशोषण सान्द्रण प्रवणता के विपरीत ( Against a concentration gra dient) होता है तथा इस क्रिया के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यह ऊर्जा जड़ की कोशिकाओं में श्वसन क्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न होती है
कभी-कभी यह देखा गया है कि पौधों में जल का अवशोषण उस स्थिति में भी होता है, जबकि मृदा जल (Soil water) का परासरण दाब (O.P.) कोशिका रस (Cell sap) के परासरण दाब से अधिक होता है। इस मत के समर्थन में निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तावित किये गये हैं


(1) जल के अवशोषण एवं श्वसन की दर में सीधा सम्बन्ध होता है तथा वे कारक जो कि श्वसन क्रिया को अवरूद्ध करते हैं, ये जल अवशोषण की दर को भी कम कर देते हैं। 
(2) कम तापमान, ऑक्सीजन की कमी तथा श्वसन निरोधकों (Respiratory inhibitors) के प्रभाव से जल अवशोषण की दर कम हो जाती है। 
(3) ऑक्जिन (Auxin) जो कि कोशिकाओं की उपापचयी क्रियाओं में वृध्दि करता है, के प्रभाव से जल अवशोषण की दर में वृद्धि होती है। 

पढ़ें- जैव भू-रासायनिक चक्र (BIO-GEOCHEMICAL CYCLE)

2. निष्क्रिय जल अवशोषण (Inactive absorption of water)

इस प्रकार का अवशोषण पौधे के ऊपरी भागों जैसे प्ररोह एवं पत्तियों की क्रियाशीलता के कारण होता है।
(i) इस विधि में उपापचयीक ऊर्जा का योगदान नहीं होता है। 
(ii) इस विधि में जल का अवशोषण पौधे के वायवीय भागों में तेजी से वाष्पोत्सर्जन के कारण होती है। 
(iii) जल का अवशोषण एवं प्रवाह जड़ों के स्वतंत्र स्थानों पर या एपोप्लास्ट के द्वारा होता हैं। 
(iv) इस सिध्दान्त के अनुसार जल का अवशोषण जायलम रस में वाष्पोत्सर्जन खिचाव के कारण उत्पन्न तनाव के कारण होता है।

पौधों में जल अवशोषण की क्रिया विधि(Water Absorption in Plants)



जब पौधों में वाष्पोत्सर्जन की क्रिया होती है, तो पत्तियों ( तथा दूसरे वायवीय भागों) की सतह से जल तेजी से वाष्पीकृत होता हैइस कारण इनकी रक्षक कोशिकाओं (Guard cells) में जल की कमी हो जाती है और एक "खिचाव (Tension) पैदा होता है। इन दोनों के कारण पत्ती के पर्णमध्योतक (Leaf mesophyll) कोशिकाओं का जल सतही कोशिकाओं में परासरण के द्वारा आ जाता है, अब जल की कमी तथा खिचाव बल पर्णमध्योतक कोशिकाओं में उत्पन्न हो जाता है, जिससे पत्तियों की जायलम नलिकाओं का जल पर्णमध्योतक (Leaf mesophyll) में आ जाता हैयही खिचाव बल, जिसे वाष्पोत्सर्जन खिचाव बल (Transpiration pull force) कहते हैं, स्थानान्तरित होते हुए जड़ की जायलम वाहिनिकाओं (Xylem vessels) तथा जड़ की जायलम वाहिनिकाओं (Xylem vessels) तथा मूल रोगों (Root hairs) में पहुँचता है और मूल रोम इसी बल के कारण जल का अवशोषण करते हैं। पौधों में जल का अवशोषण इस विधि के द्वारा अधिक (78%) होता है।
निष्क्रिय जल अवशोषण के पक्ष में क्रॅमर (Kramer, 1937) एवं लैचेनमीर (Lachenmeir, 1932) ने अनेक प्रमाण दिये हैं जो कि निम्नानुसार हैं 

(1) जल अवशोषण (Water absorption) एवं वाष्पोत्सर्जन की दर समान होती है। 
(2) जल का प्रवाह परासरण ग्रेडिएन्ट (Osmotic gradient) के विपरीत दिशा में होती है। 
(3) जल अवशोषण की दर वाष्पोत्सर्जन द्वारा नियंत्रित रहती है। 

अधिकतर वैज्ञानिक निष्क्रिय जल अवशोषण प्रक्रिया के समर्थन में अपने तर्क प्रस्तुत करते हैं तथा ऐसा मानना है कि अधिकतम जल अवशोषण की प्रक्रिया निष्क्रिय अवशोषण की प्रक्रिया के अंतर्गत ही सम्पादित होती है। आधुनिक वैज्ञानिकों का मानना है कि निष्क्रिय जल अवशोषण में एक्वापोरीन्स (aquaporins) नामक विशिष्ट संवहनी प्रोटीन (transport protein) जल के संचरण में मदद करता है।

इस पोस्ट में हमने पौधों में जल अवशोषण की क्रिया विधि (Water Absorption in Plants) के बारे में जाना। जो परीक्षा की दृष्टिकोण से एक महत्वपूर्ण प्रश्न है।

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जैव भू-रासायनिक चक्र (BIO-GEOCHEMICAL CYCLE)

जंतु विज्ञान का एक महत्वपूर्ण टॉपिक जैव भू-रासायनिक चक्र (BIO-GEOCHEMICAL CYCLE) है। जिसके बारे में जानकारी इस पोस्ट में दी जा रही है। कॉलेज के सिलेबस के अलावा प्रतियोगी परीक्षाओं में जैव भू-रासायनिक चक्र (BIO-GEOCHEMICAL CYCLE) से सम्बंधित सवाल पूछे जाते हैं। अगर आप जैव भू-रासायनिक चक्र के बारे ने जानना चाहते हैं तो इस पोस्ट को अंत तक जरुर पढ़ें।

जैव भू-रासायनिक चक्र (BIO-GEOCHEMICAL CYCLE)

जैव भू-रासायनिक चक्र (Jaiv bhu rasayanik chakra)

वातावरण में उपस्थित भौतिक पदार्थ पौधों की जैविक पौधों की जैविक क्रियाओं (Vital activities) के द्वारा जटिल कार्बनिक पदार्थों में परिवर्तित हो जाते हैं। ये पदार्थ विभिन्न प्रकार के परपोषी जीवों के द्वारा खाद्य पदार्थ के रूप में उपयोग किये जाते हैं। जीवों एवं पौधों की मृत्यु के पश्चात् सूक्ष्म जीवों (Micro-organism) के द्वारा होने वाली अपघटन क्रिया के फलस्वरूप ये भौतिक पदार्थ पुनः मृदा एवं वातावरण में वापस पहुँच जाते हैं। इस प्रकार वातावरण से इन तत्वों का जीवों के शरीर में पहुँचने की प्रक्रिया को ही जैव भू-रासायनिक चक्र (Bio-) geochemical cycle) या खनिज चक्रीकरण (Mineral cycling) अथवा पदार्थों का चक्रण (Cycling of matter) कहते हैं। 

पारिस्थितिक तंत्र में विभिन्न पदार्थों के चक्रीकरण को उनकी प्रवृत्ति के आधार पर दो प्रकारों में बाँटा गया है

(1) गैसीय चक्र (Gaseous cycle ) - इस चक्र में चक्रीकरण (Cycling) करने वाले पदार्थों का मुख्य स्रोत या संग्राहक (Reservoir) वायुमण्डल (Environment) तथा महासागर (Oceans) होता है, जिसमें पदार्थों का चक्रीकरण मुख्यतः गैस के रूप में होता है। कार्बन, ऑक्सीजन, हाइड्रोजन एवं नाइट्रोजन चक्र इसके प्रमुख उदाहरण हैं। 

(2) अवसादी चक्र (Sedimentary cycle) - इस चक्र में चक्रीकरण करने वाले पदार्थों का मुख्य स्रोत मृदा (soil) या पृथ्वी की विभिन्न चट्टानों अर्थात् स्थलमंडल (Stratosphere) है। फॉस्फोरस, कैल्सियम और सल्फर चक्र इसके उदाहरण हैं। ये पदार्थ जल के साथ द्रव के रूप में उत्पादकों द्वारा ग्रहण किये जाते हैं।  इस चक्र के द्वारा खनिजों का चक्रीकरण (Cycling of minerals) होता है। 

उपर्युक्त दोनों प्रकार के चक्र में जैविक (Biotic) एवं अजैविक (Abiotic) घटक भाग लेते हैं तथा ये ऊर्जा के प्रवाह (Flow of energy) द्वारा संचालित किये जाते हैं एवं दोनों प्रकार के चक्र जल चक्र (Water cycle) या हाइड्रोलॉजिकल चक्र (Hydrological cycle) द्वारा बंधे हुए (Tied) होते हैं।

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कार्बन चक्र (CARBON CYCLE)

कार्बन जीवधारियों के शरीर का निर्माण करने वाले सभी कार्बनिक पदार्थों (Organic substances) जैसे कार्बोहाइड्रेट्स (Carbohydrates), वसा (Fats), एवं प्रोटीन्स (Preteins) आदि का आवश्यक एवं मुख्य संघटक तत्व होता है। प्रकृति में कार्बन का मुख्य स्रोत वातावरण (Atmosphere) एवं जल (Water) होता है। अजैविक घटकां (Abiotic components) में यह कार्बोनेट युक्त चूना पत्थरों (Carbonated limes stones) वायु (0.03%), तथा जल ( 0.1% ) कोयला (Coal) एवं पेट्रोलियम (Petroleum) पदार्थों में पाया जाता है। जैविक घटकों (Biotic components) में यह कार्बनिक पदार्थों में पाया जाता है।.

हरे पौधे (Green plants) प्रकाश-संश्लेषण (Photosynthesis) क्रिया के समय वातावरण में उपस्थित कार्बन को CO2 के रूप में ग्रहण करके कार्बोहाइड्रेट्स (Carbohydrates) का निर्माण करते हैं। 

6CO₂ + 12H₂0 Chlorophyll Light > C6H12O6 + 6H₂O+60₂

प्रकाश-संश्लेषण के समय निर्मित कार्बनिक पदार्थ पादप के शरीर का निर्माण करते हैं। इनमें से कार्बनिक पदार्थों की कुछ कार्बन को पौधे श्वसन (Respiration) की क्रिया के द्वारा CO2 के रूप में उत्सर्जित कर देता है। बचे हुए कार्बनिक पदार्थों को शाकाहारी जन्तु ( Herbivorous animals) खा लेते हैं। फलतः कार्बन शरीर के कार्बनिक पदार्थों के साथ शाकाहारियों में चला जाता है। ये शाकाहारी कुछ कार्बन को CO2 के रूप में त्याग देते हैं, जबकि कुछ कार्बन मांसाहारी जन्तु ( Carnivorous animals) द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है। अत : कार्बन कार्बनिक यौगिकों के रूप में उत्पादकों के द्वारा ग्रहण करके खाद्य श्रृंखला के सर्वोच्च उपभोक्ताओं (Top consumers) तक पहुँचाती हैं। ये भी कुछ कार्बन को श्वसन द्वारा CO2 के रूप में निकालते हैं। अब अन्त में कुछ कार्बन उन उत्पादको ( Producers) तथा उपभोक्ताओं (Consumers) में रह जाता है, जो खाद्य श्रृंखला का भाग नहीं बन पाते, जब ये मरते हैं, तो अपघटक (Decomposers) इनके कार्बनिक यौगिकों को अपघटित करके इन्हें CO, और ह्यूमस (Humus) में बदल देते हैं। यह CO, वायु या जल में चली जाती है और ह्यूमस पृथ्वी तथा जल में रह जाता है। इन दोनों को पौधे पुनः ग्रहण कर लेते हैं और उपर्युक्त चक्र फिर से प्रारम्भ हो जाता है।

कुछ कार्बनिक यौगिकों का कार्बन जैविक ईंधन (Biotic fuel) उदाहरण- लकड़ी (Wood), जीवाश्मीय ईंधन (Fossil Fuels) जैसे-कोयला, पेट्रोलियम आदि या दूसरे ज्वलनशील पदार्थों को जलाने पर CO2 के रूप में मुक्त होकर वायु में आ जाता है और कार्बनिक चक्रीकरण (Corbon cycling) में भाग लेता है। जीवाश्मीय ईंधन का निर्माण मृतजीवों (जन्तुओं और पादपों) के शरीर के ही भूमि में दब जाने के कारण शरीर में संचित कार्बनिक पदार्थों से होता है।

नाइट्रोजन चक्र (NITROGEN CYCLE)

प्रकृति में नाइट्रोजन विभिन्न रूपों में पायी जाती है। मृदा में कार्बनिक नाइट्रोजन जीवों के मृत शरीर के अपघटन से प्राप्त होती है। मृत शरीर में मिलने वाली जटिल प्रोटीन (Complex protein) अपघटित होकर अमीनो अम्ल में बदल जाते हैं। इसी प्रकार यूरिया भी मृदा में मिल जाती है। पौधे जड़ों के द्वारा इनका अवशोषण (Absorption) करते हैं अथवा सूक्ष्मजीवों (Microorganisms ) के द्वारा यह अमोनिया में बदल जाते हैं, इस क्रिया को अमोनीकरण (Ammonification) कहते हैं। इसी प्रकार मृदा में अकार्बनिक नाइट्रोजन भी NO2 तथा NO, के रूप में पायी जाती है, जिनका उपयोग जड़ों के द्वारा किया जाता है। वायुमण्डल में 4/5 भाग N, होती है। जीवधारी इस स्वतन्त्र नाइट्रोजन का उपयोग नहीं कर पाते हैं। पौधे N2 की NH3 या NO3 के रूप में ही उपयोग करते हैं। ये यौगिक नाइट्रोजन स्थिरीकरण जीवाणुओं के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं। ये नाइट्राइट पौधों के शरीर के अन्दर नाइट्रोजनी यौगिक बनाते हैं। इन पेड़-पौधों का उपयोग जीव-जन्तु करते हैं। इन पौधों एवं जन्तुओं की मृत्यु के पश्चात् जीवाणुओं अथवा अन्य सूक्ष्मजीवों में अपघटन की क्रिया के पश्चात् N2 स्वतन्त्र रूप से अथवा NH; के रूप में वातावरण तक पुनः पहुँच जाती हैं।


नाइट्रोजन चक्र (nitrogen cycle)


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फॉस्फोरस चक्र (PHOSPHORUS CYCLE) 

फॉस्फोरस जीवों का एक महत्वपूर्ण पदार्थ है। यह नाभिकीय अम्लों, फॉस्फोलिपिड्स, ATP, ADP और कई महत्वपूर्ण यौगिकों का एक घटक है। हरचिन्सन (1944) के अनुसार, प्राकृतिक जलस्रोतों में फॉस्फोरस और नाइट्रोजन 1:23 के अनुपात में पाये जाते हैं। जीवमण्डल के जैविक घटकों में फॉस्फोरसफॉस्फेट आयनों के रूप में प्रवेश करता हैये फॉस्फेट आयन पौधों द्वारा अवशोषित किये जाते हैं तथा विभिन्न यौगिकों से होते हुए उपभोक्ताओं और अपघटकों में स्थानान्तरित हो जाते हैं। उपभोक्ताओं में यह फॉस्फेट कार्बोनिक यौगिकों के रूप में प्रवेश करते हैं। जब उत्पादकों और उपभोक्ताओं की मृत्यु होती है, तो अपघटक उनके शरीर में उपस्थित फॉस्फोरस को फॉस्फेट आयन के रूप में मुक्त कर देते हैं, जिसका उपयोग पौधे पुनः करते

कई चट्टानों और जन्तुओं के कवचों जैसे-कोरल, मोलस्क आदि में फॉस्फेट पाया जाता है, जिसका उपयोग पौधे करते हैं। आजकल फॉस्फेट का उपयोग घरेलू अपमार्जकों के रूप में किया जाता है। जल में घुलकर यह पारिस्थितिक तंत्र में प्रवेश कर सकता है।

फॉस्फोरस चक्र (PHOSPHORUS CYCLE)


मृदा में भी फास्फेट उपस्थित होते हैं, जो कि फॉस्फेट युक्त चट्टानों के अपरदन से मुक्त होता है। चट्टानों के अपरदन एवं जीवों के मृत शरीर शरीर के अपघटन से मुक्त फॉस्फोरस एवं कैल्शियम जल के साथ समुद्र में पहुँचकर वहाँ पर एकत्रित होकर चट्टानों का निर्माण करते हैं। इस प्रकार फॉस्फोरस, फॉस्फोरस चक्र से अलग हो जाता है। इन चट्टानों के विघटन के फलस्वरूप फॉस्फोरस पुन : जल में घुल जाता है। यह जल में घुलित फॉस्फोरस पौधों के द्वारा अवशोषित कर लिया जाता हैइस प्रकार फॉस्फोरस चक्र जारी रहता है।

इस पोस्ट में हमने जैव भू-रासायनिक चक्र  (Jaiv bhu rasayanik chakra) के बारे में जाना। जो जंतु विज्ञान के महत्वपूर्ण प्रश्नों में से एक है।

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