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मशरूम की खेती (Mushroom ki Kheti in Hindi)

इस आर्टिकल में हम मशरूम की खेती (Mushroom ki Kheti in Hindi) के बारे में जानेंगे। क्या आपको मशरूम की सब्जी अच्छी लगती है। क्या आपको पता है ये मशरूम कैसी उत्पादित की जाती है। यदि आप नहीं जानते तो इस आर्टिकल को पूरा जरुर पढ़ें , आपको मशरूम की खेती की पूरी जानकारी मिल जाएगी। 

मशरूम की खेती (Mushroom ki Kheti in Hindi)


मशरूम की खेती (Mushroom ki Kheti in Hindi)

भारत में मशरूम की खेती का विस्तार तीव्र गति से हो रहा है। विशेषरूप से हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु एवं उत्तर प्रदेश समेत कुछ अन्य राज्यों में मशरूम उत्पादन में प्रतिवर्ष उल्लेखनीय वृद्धि हो रही है।

1.पैरा अथवा पैडी स्ट्रॉ मशरूम की खेती (Cultivation of Paddy Straw Mushroom-Volvariella sp.)

बेड निर्माण तथा फसल उगाना (Bed preparation and cropping)-

हमारे छत्तीसगढ़ प्रदेश के लिए धान एक प्रमुख फसल है। अतः यहाँ धान का पैरा आसानी से उपलब्ध रहता है। पैरा का उपयोग बेड निर्माण में किया जाता है। सर्वप्रथम हाथ से काटे गये 3-4 फीट लम्बे, शुष्क तथा निरोगी पैडी स्ट्रॉ के बण्डल बनाये जाते हैं। एक बेड के निर्माण हेतु ऐसे 32 बण्डलों की आवश्यकता होती है तथा प्रत्येक बण्डल में एक से डेढ़ किलोग्राम पैरा होता है। इन बण्डलों को जल (Water) में 8-16 घण्टों तक डुबोकर (Soaked) रखा जाता है। तत्पश्चात् इन्हें बाहर निकालकर स्वच्छ पानी से धोया जाता है। अन्त में बण्डलों को लटकाकर अतिरिक्त पानी निकाल दिया जाता है।

पैरा नहीं बदलें अब पैडी स्ट्रॉ के बण्डलों को एक के ऊपर एक चार स्तरों (Four layers) में रखा जाता है। प्रत्येक स्तर में 8 बण्डल होते हैं। अब स्पॉन बॉटल (Spawn bottle) को खोलकर काँच की छड़ से हिलाकर स्पॉन को बेड के प्रत्येक स्तर के किनारों से 10 सेमी. की दूरी पर छिड़क दिया जाता है। यह छिड़काव (Sprinkling) 23 सेमी. सतत् भीतर की ओर किया जाता है। छिड़के हुए स्पॉन (Spawn) पर बेसन (पिसी लुई चने की दाल) को पतली पर्त छिड़क दी जाती है। इसी प्रकार दूसरी, तीसरी तथा चौथी लेयर का निर्माण किया जाता है। चौथे स्तर के निर्माण में थोड़ा-सा अन्तर होता है। चौथे स्तर में स्पॉन (Spawn) का छिड़काव समूची सतह पर एक समान किया जाता है जबकि अन्य स्तरों पर यह किनारों पर अधिक होता हैं।

बेड्स पर गर्म दिनों में 2-3 बार जल का छिड़काव किया जाता है। वर्षा काल में भी एकाध बार जल का छिड़काव आवश्यक है। यदि आवश्यक हो तो 0.1% मेलेथियॉन (Melathion) तथा 0.2% डाइइथेन Z.-78 (Dicthane Z-78) का छिड़काव किया जाता है। इस छिड़काव से कोटों (Insects), पेस्ट्स (Pests) तथा अन्य रोगों से बेड की रक्षा होती है।

कटाई तथा विपणन (Harvesting and Marketing)-

स्पॉनिंग (Spawning) 10-12 दिनों बाद फसल उगने लगती है। मशरूम की कटाई (Harvesting) सामान्यत: बटन स्टेज (Button stage) या फिर कप के फुटने (Rupturing) के तुरन्त बाद की जाती है। फसल को निकालने के 8 घण्टों के भीतर मशरूम का उपयोग कर लेना चाहिए या फिर इन्हें 10-15°C तापमान पर 24 घण्टों तक रख देना चाहिए अन्यथा ये नष्ट हो जाते हैं। इन्हें फ्रिज में एक सप्ताह तक रखा जा सकता है।

ताजा मशरूम को धूप में या फिर ओवन (Oven) में 55° से 60°C तापमान पर 8 घण्टों तक रखकर सूखाया जाता है। सूखने के बाद इन्हें पैक (Packed) कर सील कर दिया जाता है ताकि ये नमी (Moisture) न सोख सकें। मशरूम की पैकिंग प्राय: बटन स्टेज में करना उपयुक्त होता है। आमतौर पर प्रति बेड 3-4 किलोग्राम मशरूम की प्राप्ति की जा सकती है।

2. धींगरी की खेती (Cultivation of Pleurotus sp.)

अधोस्तर का चुनाव (Choice of substratum)- 

प्लूरोटस के खेती के लिए कटे हुए पैडी स्ट्रॉ (Chopped paddy straw) सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। अन्य पदार्थों में मकई की बाल (Maize cob), गेहूँ स्ट्रॉ (Wheat straw), रॉइ स्ट्रॉ (Rye straw), शुष्क घास (Dried grasses) कम्पोस्ट तथा लकड़ी के लट्ठे (Wooden logs) इत्यादि इस्तेमाल किये जा सकते हैं। बेड निर्माण तथा फसल उगाना (Bed preparation and Cropping)-कटे हुए पैडी स्ट्रॉ को 8-12 घण्टे तक पानी के टंकी (Water tank) में डुबोकर रखा जाता है। स्ट्रॉ को बाहर निकालकर स्वच्छ पानी से धोकर, अतिरिक्त पानी निकाल दिया जाता है। अब अधोस्तर (Substratum) को लकड़ी की ट्रे (1×1/2x1/4 मीटर) में रखा जाता है। पूरी ट्रे पर स्पॉन (Spawn) का छिड़काव किया जाता है। स्पॉनिंग (Spawing) के पश्चात् ट्रे को पॉलीथिन शीट से ढँक दिया जाता है। नमी बनाये रखने हेतु जल का छिड़काव दिन में 1 या 2 बार किया जाता है। 10-15 दिनों के बाद मशरूम के फलनकाय (Fruiting bodies) निकलने लगती हैं। जब पॉलीथिन शीट को हटा दिया जाता है। मशरूम की खेती पहले फलनकाय निकलने के 30-45 दिनों के बाद तक जारी रहती है।

बेड पर आवश्यकतानुसार जल का छिड़काव किया जाता है। तापमान 25°C (°5°C) तथा आपेक्षिक आर्द्रता (Relative humidity) 85-90% तक रखी जाती है। वातन (Aeration) की अच्छी व्यवस्था की जाती है तथा रोगनाशकों (0.1% Melathion, 0.2% Diethane Z-78) का छिड़काव किया जाता है।

कटाई तथा विपणन (Harvesting and Marketing)- 

मशरूम की कटाई उस समय की जाती है जब फलनकाय के पाइलियस (Pileus) का व्यास (Diameter) 8-10 सेमी. हो जाए। फसल को मोड़कर (Twisting) तोड़ा जाता है। आवश्यकतानुसार इसका विपणन कच्चा अथवा सूखाकर किया जाता है। मशरूम को धूप या ओवन में सूखाकर पैकिंग सीलिंग की जाती है ताकि ये नमी सोखकर नष्ट न होने पाये।

प्लूरोटस सजोर-काजू नामक प्रजाति 15 से 25 दिनों में तैयार हो जाती है। इसको खेती सरल है तथा इसमें प्रोटीन की मात्रा (Protein content) अत्यधिक होती है। इसमें मानव पोषण के लिए आवश्यक सभी अमीनो अम्ल (Amino acid) भी उपस्थित रहते हैं।

इसके खाद्य गुण (Palatability), स्वाद (Taste), सुगन्ध (Flavour) तथा मांस (Meat) के सदृश होनेके कारण " प्लूरोटस सजोर-काजू" को अत्यधिक पसंद किया जाता है।

मशरूम कृषि का महत्व (Importance of Mushroom Cultivations)

भारत सहित विश्व के अनेक देशों के लिये कुपोषण (Malnutrition) एक गम्भीर समस्या है। विकसित देशों (Developed countries) में जहाँ प्रति व्यक्ति प्राणी प्रोटीन की औसत खपत 31 किलोग्राम प्रतिवर्ष है, वहीं भारत में यह केवल 4 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष है। मशरूम (Mushrooms) प्रोटीन के प्रमुख स्रोत होते हैं। शुष्क भार (Dry weight) के आधार पर विभिन्न मशरूम में प्रोटीन की कुल मात्रा 21 से 30 प्रतिशत तक होती है। प्रोटीन की इतनी मात्रा अन्य स्रोतों, जैसे—अनाज (Cereals), दालों (Pulses), फल (Fruits) तथा सब्जियों (Vegetables) में भी नहीं होती। प्रोटीन के अलावा इसमें कैल्सियम, फॉस्फोरस तथा पोटैशियम जैसे खनिज तत्व भी अच्छी मात्रा में पाए जाते हैं। सभी आवश्यक अमीनो अम्लों का इनमें समावेश होता है। भारत गरीबी, जनसंख्या वृद्धि तथा कुपोषण की समस्याओं से ग्रस्त है। ऐसी स्थिति में यदि मशरूम को आम जनता खासकर शिशु एवं किशोर युवाओं को उपलब्ध कराया जाए तो उनमें कुपोषण के कारण होने वाली शारीरिक समस्याओं को होने से रोका जा सकता है। मशरूम की खेती को आवश्यक प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए क्योंकि मशरूम न केवल पोषक हैं बल्कि इनकी खेती भी सस्ती है।

मशरूम अपने स्वाद एवं पोषक मान जैसे प्रोटीन, खनिज तत्वों की बहुलता तथा कोलेस्टेरॉलरहित वैल्यू के कारण उच्चवर्गीय भारतीयों के आहार का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है। इससे विविध प्रकार के स्वादिष्ट\ व्यंजन, जैसे-मशरूम पनीर, मशरूम पुलाव, मशरूम ऑमलेट, मशरूम सूप, मशरूम टिक्का आदि बनाये जाते हैं। छोटे एवं बड़े शहरों में इसका प्रचलन दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है।

इस आर्टिकल में हमें मशरूम की खेती और उसके महत्व के बारे में जाना। जो परीक्षा के साथ साथ हमारे दैनिक जीवन की सामान्य जानकरी के लिए बी जरुरी है।

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ऊष्ण कटिबंधीय वन (Tropical forests)

जीवन की कल्पना श्वसन के बिना नहीं हो सकती है। श्वसन में मनुष्य ऑक्सीजन ग्रहण करता है यह ऑक्सीजन उसे पेड़ पौधों से प्राप्त होता है। अनेक प्रकार के पेड़ पौधे एक स्थान पर होते हैं तो उसे वन कहते हैं। वनों में कई प्रकार के वन होते  हैं। ऊष्ण कटिबंध वन उनमे से एक प्रकार है। जिसके बारे में हम इस पोस्ट में जानने वाले हैं।

ऊष्ण कटिबंधीय वन (Tropical forests)

ऐसे वन उष्ण एवं गर्म जलवायु वाले भागों में पाये जाते हैं। यहाँ पर अत्यंत घने, ऊँचे, वृक्ष, झाड़ियाँ एवं काष्ठीय आरोही या लाइनस पौधे उच्च वर्षा वाले क्षेत्रों, कटीले वृक्षों वाले जंगलों एवं शुष्क क्षेत्रों में कहीं-कहीं पाये जाते हैं। इस प्रकार उष्ण कटिबंधीय वन दो प्रकार के होते हैं 

(I) उष्ण कटिबंधीय आर्द्र वन (Tropical moist forests), 

(II) उष्ण कटिबंधीय शुष्क वन (Tropical dry forests) 

इन्हें भी जानें- जैव भू-रासायनिक चक्र (BIO-GEOCHEMICAL CYCLE)

(I) उष्ण कटिबंधीय आर्द्र वन (Tropical moist forests):- ऐसे बनों में वर्षा अधिक होने के कारण आर्द्रता (Moisture) काफी अधिक होती हैआर्द्रता के आधार पर ये वन तीन प्रकार के होते हैं--- 

1. उष्ण कटिबंधीय आर्द्र सदाबाहार वन (Tropical wet evergreen forests):- 250 सेमी वार्षिक वर्षा से अधिक वर्षा दर वाले भारतीय क्षेत्रों में इस प्रकार के वन स्थित हैं। इस प्रकार के वन भारत के दक्षिणी हिस्सों मुख्यतः महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल तथा अण्डमान निकोबार द्वीप समूह के कुछ भाग तथा उपरी हिस्सों मुख्यत : पश्चिम बंगाल, असम एवं उड़ीसा के कुछ भागों में पाये जाते हैं। इन वनों के वृक्षों की ऊँचाई 40-60 मीटर से अधिक होती है। इस वन के वृक्ष सदाबहार प्रवृत्ति के तथा चौड़ी पत्ती वाले होते हैं। यहाँ काष्ठीय लता तथा उपरिरोही (Epiphytes) की बहुतायत होती है। 

उदाहरण- साल या शोरिया (Shorea), डिप्टेरोकार्पस (Dipterocarpus), आम (Mangifera), मेसुआ (Mesia), होपिया (Hopea), बाँस, इक्जोरा (Ixora), टायलोफोरा (Tylophora) आदि। 

2. उष्ण कटिबंधीय नम अर्द्ध-सदाबहार वन (Tropi cal moist semi-evergreen forests):- इन वनों का विस्तार 200-250 सेमी तक वार्षिक वर्षा स्तर वाले क्षेत्रों में मिलता है। भौगोलिक दृष्टि से इन वनों का विस्तार पश्चिमी घाट से पूर्व की ओर, बंगाल एवं पूर्वी उड़ीसा तथा आसाम में एवं अण्डमान-निकोबार द्वीप समूहों में हैं। इन वनों में कुछ पर्णपाती वृक्षों की जातियाँ भी पायी जाती हैं, इसलिए इन्हें अर्द्ध सदाबहार वन कहते हैं। इन वनों में पाये जाने वाले कुछ पौधे पर्णपाती तो होते हैं, लेकिन पत्ती रहित अवस्था अल्पकालिक होती है। 

उदाहरण- टर्मिनेलिया पैनीकुलाटा (Terminalia paniculata) साल (Shorea robhusta), कचनार (Bauhinal), आम (Mengiphera); मैलोटस (Mallotus), टिनोस्पोरा (Tinospora), एण्ड्रोपोगॉन (Andropogon), आदि। 

3. उष्ण कटिबंधीय आर्द्र पर्णपाती वन (Tropical most deciduous forests):- औसतन 100 से 200 सेमी वर्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में इस प्रकार के वन मिलते हैं। भौगोलिक दृष्टि से इन वनों का विस्तार अण्डमान द्वीप समूह, मध्य प्रदेश के जबलपुर, मण्डला, छत्तीसगढ़ के रायपुर, बस्तरगुजरात के डाँग, महाराष्ट्र के थाने, रत्नागिरी, कर्नाटक के केनरा, बंगलौर एवं पश्चिमी क्षेत्र, तमिलनाडु के कोयम्बटूर तथा निलंबुर व चापनपाड़ आदि क्षेत्रों में पाये जाते हैं। जाते हैंये वन उत्तरप्रदेश, झारखंड, बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगालआसाम, हिमांचल प्रदेश आदि राज्यों के कुछ भागों में पाये जाते हैंदक्षिणी आर्द्र पर्णपाती वनों की मुख्य वृक्ष सागौन (Teak) है, जबकि उत्तरी आई पर्णपाती वन की प्रमुख वृक्ष साल है। सागौन वन में कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश के कुछ वन क्षेत्रों में डायोस्पायरॉस (Dlospyros)जिजिफस (Zizyphus)कैसिया (Cas sia)स्टिरियोस्पर्मम (Stereospermum), ऐल्बिजिया (Albizzia), सायजिजियम (Syzygium), सेड्रेला (Cedrella) साथ-साथ मिश्रित रहते हैं।

पढ़ें- जंतु विज्ञान की शाखाएं (Branches of Zoology)

समुद्रतटीय एवं दलदलीय वन(Littoral and Swamp Forest):- समुद्रतटीय एवं दलदलीय वन क्षेत्र भारत के 67.00 वर्ग किलोमीटर में फैला के वन समुद्र तट पर उदाहरणतः पूर्वी व पश्चिमी समुद्र तट तथा बड़ी-बड़ी नदियों, जैसे- गंगा, महानदी, गोदावरी, कृष्णा व कावेरी के डेल्टाओं के ज्वारीय अनूपों में पाये जाते हैं। ये क्षेत्र नरम गाद के बने होते हैं, जिनमें राइजोफोरा (Rhizophora), सोन्नैरेशिया (Sonneratia) इत्यादि के मैंग्रोव वन उगते हैं। इस जलाक्रान्त पारिस्थितियों में वानस्पतियों के क्षय से दुर्गन्ध आने लगती है। अपेक्षाकृत अन्तस्थलीय क्षेत्रों में जहाँ भूमि पर ज्वारीय जल आता रहता है, ज्वारीय वन (Tidal forests) पाये जाते हैं। यहाँ हेरिशियेरा (Haritiera), वेस्पेशिया (Thespesia), वाड़ (Palm) विभिन्न जातियाँ तथा अन्य क्षूप उगते हैं। 

(II) उष्ण कटिबंधीय शुष्क वन (Tropical dry forests):- ऐसे वनों में औसत वर्षा अत्यंत कम होती है, जिसके कारण यहाँ का तापमान काफी अधिक हो जाता है। पौधों के प्रकृति के आधार पर ये वन तीन प्रकार के होते हैं 

1. उष्ण कटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन (Tropical dry deciduous forests):- औसत 100 सेमी वार्षिक वर्षा वाले भारतीय क्षेत्रों में उष्ण कटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन मिलते हैं तथा समस्त भारतवर्ष के वन क्षेत्र के 1/3 भाग का प्रतिनिधित्व करते हैं। भौगोलिक दृष्टि से इन वनों का विस्तार पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश तथा भारतीय प्रायद्वीप के अधिकांश भागों में हैं। 

उदाहरण- टर्मिनेलिया टोमेन्टोसा (Terminalia tomentosa), इमली (Temarindus indica), साल (Shorea robhnusia), बेल (Aegle marmelos), बेर आदि। 

2. उष्ण कटिबंधीय कटीले वन (Tropical thorn forests):- ये वन 25-70 सेमी वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में मिलते हैं। वर्षा की कमी के कारण इन प्रदेशों में पर्णपाती वनों के स्थान पर कटीले वन पाये जाते हैं। 

उदाहरण- अकेशिया निलोटिका, अ. सुन्द्रा, प्रोसेपिस सिनेरिया, बेर (Zicyphus), नागफनी (Opum tia) बारलेरिया, यूफोर्बिया की प्रजातियाँ हिन्दरोपोगॉन लेक्टाना आदि। 

3. उष्ण कटिबंधीय शुष्क सदाबहार वन (Tropi. cal thorn evergreen forests):- इस प्रकार के वन क्षेत्रों में 75-100 सेमी औसत वार्षिक वर्षा होती है। इस प्रकार के वन तमिलनाडु के पूर्वी भाग में, आंध्रप्रदेश तथा कर्नाटक के समुद्री किनारों में पाये जाते हैं। इस क्षेत्र के वनों में वृक्षों की पत्तियाँ चर्मिल (Coriaceous) होती है। इस क्षेत्र में बाँस का अभाव, लेकिन घास पाया जाता है। वृक्ष की ऊँचाई 9-15 मीटर तक होती है। सबसे ऊचे वृक्षों में स्ट्रिक्नॉस नक्स वोमिका (Strychnos mcx vomica), सैम्पिडस इमार्जिनेटस (Spindus emarginatus) में कैरिसा कैरान्डास (carissa carandas), इक्जोरा पार्विफ्लोरा (xara parviflora) आदि।

इस पोस्ट में हमने ऊष्ण कटिबंधीय वन (Tropical forests) के बारे में जाना। जो वनों के एक प्रकार में से एक है।

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पौधों में जल अवशोषण की क्रिया विधि (Water Absorption in Plants)

अगर आप विज्ञान के विद्यार्थी हैं और आप पौधों में जल अवशोषण की क्रिया विधि के बारे में जानना चाहते हैं। तो आप बिल्कुल सही पोस्ट  में आये हैं। वनस्पति विज्ञान का यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है जो अक्सर विभिन्न परीक्षाओं में पूछा जाता है।

Water Absorption in Plants



पौधों में जल अवशोषण की क्रिया विधि (Water Absorption in Plants)

जल अवशोषण (absorption of Water) पौधों की जड़ो के मूल रोम प्रदेश में स्थित मूल रोमों की सहायता से मृदा विलयन में उपस्थित कोशिकीय जल (Copillary Water) को अंतर्ग्रहण करने की प्रक्रिया जल अवशोषण कहलाती है। उच्च वर्गीय पौधों में जल अवशोषण जड़ के द्वारा ही होता है।
पादपों में जल अवशोषण (Water absorption in plants)- रेनर (Renner, 1912-1915) के अनुसार पादपों में जल अवशोषण की प्रक्रिया निम्नांकित दो विधियों के तहत् होती है. - 
1. सक्रिय जल अवशोषण एवं 
2. निष्क्रिय जल अवशोषण 

इन्हें जानें- 100+ जीव विज्ञान प्रश्न (Biology question in hindi)

1. सक्रिय जल अवशोषण (Active water Ab sorption)

सक्रिय अवशोषण ऐसा अवशोषण है जिसमें जड़ें सान्द्रण प्रवणता के विपरीत जल का अवशोषण करती है तथा इस क्रिया में उपापचयी ऊर्जा का उपयोग किया जाता है। 
(i) इस विधि में जल का अवशोषण जड़ो की परासरणीय (Osmotic) एवं अपरासरणीय (Non-Osmotic) क्रिया के कारण होती है।
(ii) इस विधि में प्रोटोप्लास्ट का जैविक भाग जल के अवशोषण में भाग लेता है। 
(iii) इस सिध्दान्त के अनुसार मृदा विलयन की अपेक्षा मूलरोगों का D.P.D. अधिक होता है जिसके कारण जल का अवशोषण होता है।


(a) सक्रिय अवशोषण परासरण सिद्धांत (Osmotic theory of active absorption):- इस सिद्धान्त को एटकिन्स (Aitkins, 1916) एवं प्रीस्टले (Priestley) ने प्रस्तावित किया था। इस सिद्धान्त के अनुसार, पौधों में जल का अवशोषण मृदा जल (Soil water) एवं कोशिका रस (Cell sapi) के मध्य परासरण विभव में अन्तर (Differ ences in osmoti gradient) के कारण होता है जब जायलम कोशिकाओं के कोशिका रस का परासरण विभव (Osmotic Potential) मृदा विलयन (Soil solution) की अपेक्षा अधिक होता है, तब मृदा से जल परासरण क्रिया के द्वारा जायलम कोशिकाओं (Xylem cells) तक पहुँच जाता है। मृदा जल का परासरण दाब (O.P.) I atm. से कम होता है, जबकि कोशिका रस का परासरण दाब (O.P.) 2 atm.s तक होता है, जो कि कभी-कभी बढ़कर 3 से 8 atms. तक हो जाता है। मूल रोमों के कोशिका रस का (D.P.D.) अधिक होने के कारण जल अन्तःपरासरण (En dosmosis) क्रिया के द्वारा अर्द्धपारगम्य प्लाज्मा कला (Semipermeable plasma membrane) को पार करके जड़ों के अन्दर चला जाता है। इस विधि के पक्ष में कई प्रणाम दिये गये हैं। हॉगलैण्ड (Hoagland1953) ब्रायर (Broyer,1951) बान एण्डेन (Van Andel, 1953) आदि के अनुसार जायलम रस में लवणों (Salts) के संचय (Ac cumulation) के कारण जायलम रस के D.P.D. अथवा के जल विभव (Water Potential) में वृद्धि हो जाती है, जिसके कारण जल का अवशोषण होता है।


(b) सक्रिय अवशोषण का अपरासरण सिद्धान्त (Non-osmotic theory of active absorption)- बेनेट क्लार्क (Bennet clark, 1936) थीमैन (Thimmen, 1951) आदि के अनुसार पौधों में जल का अवशोषण सान्द्रण प्रवणता के विपरीत ( Against a concentration gra dient) होता है तथा इस क्रिया के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यह ऊर्जा जड़ की कोशिकाओं में श्वसन क्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न होती है
कभी-कभी यह देखा गया है कि पौधों में जल का अवशोषण उस स्थिति में भी होता है, जबकि मृदा जल (Soil water) का परासरण दाब (O.P.) कोशिका रस (Cell sap) के परासरण दाब से अधिक होता है। इस मत के समर्थन में निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तावित किये गये हैं


(1) जल के अवशोषण एवं श्वसन की दर में सीधा सम्बन्ध होता है तथा वे कारक जो कि श्वसन क्रिया को अवरूद्ध करते हैं, ये जल अवशोषण की दर को भी कम कर देते हैं। 
(2) कम तापमान, ऑक्सीजन की कमी तथा श्वसन निरोधकों (Respiratory inhibitors) के प्रभाव से जल अवशोषण की दर कम हो जाती है। 
(3) ऑक्जिन (Auxin) जो कि कोशिकाओं की उपापचयी क्रियाओं में वृध्दि करता है, के प्रभाव से जल अवशोषण की दर में वृद्धि होती है। 

पढ़ें- जैव भू-रासायनिक चक्र (BIO-GEOCHEMICAL CYCLE)

2. निष्क्रिय जल अवशोषण (Inactive absorption of water)

इस प्रकार का अवशोषण पौधे के ऊपरी भागों जैसे प्ररोह एवं पत्तियों की क्रियाशीलता के कारण होता है।
(i) इस विधि में उपापचयीक ऊर्जा का योगदान नहीं होता है। 
(ii) इस विधि में जल का अवशोषण पौधे के वायवीय भागों में तेजी से वाष्पोत्सर्जन के कारण होती है। 
(iii) जल का अवशोषण एवं प्रवाह जड़ों के स्वतंत्र स्थानों पर या एपोप्लास्ट के द्वारा होता हैं। 
(iv) इस सिध्दान्त के अनुसार जल का अवशोषण जायलम रस में वाष्पोत्सर्जन खिचाव के कारण उत्पन्न तनाव के कारण होता है।

पौधों में जल अवशोषण की क्रिया विधि(Water Absorption in Plants)



जब पौधों में वाष्पोत्सर्जन की क्रिया होती है, तो पत्तियों ( तथा दूसरे वायवीय भागों) की सतह से जल तेजी से वाष्पीकृत होता हैइस कारण इनकी रक्षक कोशिकाओं (Guard cells) में जल की कमी हो जाती है और एक "खिचाव (Tension) पैदा होता है। इन दोनों के कारण पत्ती के पर्णमध्योतक (Leaf mesophyll) कोशिकाओं का जल सतही कोशिकाओं में परासरण के द्वारा आ जाता है, अब जल की कमी तथा खिचाव बल पर्णमध्योतक कोशिकाओं में उत्पन्न हो जाता है, जिससे पत्तियों की जायलम नलिकाओं का जल पर्णमध्योतक (Leaf mesophyll) में आ जाता हैयही खिचाव बल, जिसे वाष्पोत्सर्जन खिचाव बल (Transpiration pull force) कहते हैं, स्थानान्तरित होते हुए जड़ की जायलम वाहिनिकाओं (Xylem vessels) तथा जड़ की जायलम वाहिनिकाओं (Xylem vessels) तथा मूल रोगों (Root hairs) में पहुँचता है और मूल रोम इसी बल के कारण जल का अवशोषण करते हैं। पौधों में जल का अवशोषण इस विधि के द्वारा अधिक (78%) होता है।
निष्क्रिय जल अवशोषण के पक्ष में क्रॅमर (Kramer, 1937) एवं लैचेनमीर (Lachenmeir, 1932) ने अनेक प्रमाण दिये हैं जो कि निम्नानुसार हैं 

(1) जल अवशोषण (Water absorption) एवं वाष्पोत्सर्जन की दर समान होती है। 
(2) जल का प्रवाह परासरण ग्रेडिएन्ट (Osmotic gradient) के विपरीत दिशा में होती है। 
(3) जल अवशोषण की दर वाष्पोत्सर्जन द्वारा नियंत्रित रहती है। 

अधिकतर वैज्ञानिक निष्क्रिय जल अवशोषण प्रक्रिया के समर्थन में अपने तर्क प्रस्तुत करते हैं तथा ऐसा मानना है कि अधिकतम जल अवशोषण की प्रक्रिया निष्क्रिय अवशोषण की प्रक्रिया के अंतर्गत ही सम्पादित होती है। आधुनिक वैज्ञानिकों का मानना है कि निष्क्रिय जल अवशोषण में एक्वापोरीन्स (aquaporins) नामक विशिष्ट संवहनी प्रोटीन (transport protein) जल के संचरण में मदद करता है।

इस पोस्ट में हमने पौधों में जल अवशोषण की क्रिया विधि (Water Absorption in Plants) के बारे में जाना। जो परीक्षा की दृष्टिकोण से एक महत्वपूर्ण प्रश्न है।

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जैव भू-रासायनिक चक्र (BIO-GEOCHEMICAL CYCLE)

जंतु विज्ञान का एक महत्वपूर्ण टॉपिक जैव भू-रासायनिक चक्र (BIO-GEOCHEMICAL CYCLE) है। जिसके बारे में जानकारी इस पोस्ट में दी जा रही है। कॉलेज के सिलेबस के अलावा प्रतियोगी परीक्षाओं में जैव भू-रासायनिक चक्र (BIO-GEOCHEMICAL CYCLE) से सम्बंधित सवाल पूछे जाते हैं। अगर आप जैव भू-रासायनिक चक्र के बारे ने जानना चाहते हैं तो इस पोस्ट को अंत तक जरुर पढ़ें।

जैव भू-रासायनिक चक्र (BIO-GEOCHEMICAL CYCLE)

जैव भू-रासायनिक चक्र (Jaiv bhu rasayanik chakra)

वातावरण में उपस्थित भौतिक पदार्थ पौधों की जैविक पौधों की जैविक क्रियाओं (Vital activities) के द्वारा जटिल कार्बनिक पदार्थों में परिवर्तित हो जाते हैं। ये पदार्थ विभिन्न प्रकार के परपोषी जीवों के द्वारा खाद्य पदार्थ के रूप में उपयोग किये जाते हैं। जीवों एवं पौधों की मृत्यु के पश्चात् सूक्ष्म जीवों (Micro-organism) के द्वारा होने वाली अपघटन क्रिया के फलस्वरूप ये भौतिक पदार्थ पुनः मृदा एवं वातावरण में वापस पहुँच जाते हैं। इस प्रकार वातावरण से इन तत्वों का जीवों के शरीर में पहुँचने की प्रक्रिया को ही जैव भू-रासायनिक चक्र (Bio-) geochemical cycle) या खनिज चक्रीकरण (Mineral cycling) अथवा पदार्थों का चक्रण (Cycling of matter) कहते हैं। 

पारिस्थितिक तंत्र में विभिन्न पदार्थों के चक्रीकरण को उनकी प्रवृत्ति के आधार पर दो प्रकारों में बाँटा गया है

(1) गैसीय चक्र (Gaseous cycle ) - इस चक्र में चक्रीकरण (Cycling) करने वाले पदार्थों का मुख्य स्रोत या संग्राहक (Reservoir) वायुमण्डल (Environment) तथा महासागर (Oceans) होता है, जिसमें पदार्थों का चक्रीकरण मुख्यतः गैस के रूप में होता है। कार्बन, ऑक्सीजन, हाइड्रोजन एवं नाइट्रोजन चक्र इसके प्रमुख उदाहरण हैं। 

(2) अवसादी चक्र (Sedimentary cycle) - इस चक्र में चक्रीकरण करने वाले पदार्थों का मुख्य स्रोत मृदा (soil) या पृथ्वी की विभिन्न चट्टानों अर्थात् स्थलमंडल (Stratosphere) है। फॉस्फोरस, कैल्सियम और सल्फर चक्र इसके उदाहरण हैं। ये पदार्थ जल के साथ द्रव के रूप में उत्पादकों द्वारा ग्रहण किये जाते हैं।  इस चक्र के द्वारा खनिजों का चक्रीकरण (Cycling of minerals) होता है। 

उपर्युक्त दोनों प्रकार के चक्र में जैविक (Biotic) एवं अजैविक (Abiotic) घटक भाग लेते हैं तथा ये ऊर्जा के प्रवाह (Flow of energy) द्वारा संचालित किये जाते हैं एवं दोनों प्रकार के चक्र जल चक्र (Water cycle) या हाइड्रोलॉजिकल चक्र (Hydrological cycle) द्वारा बंधे हुए (Tied) होते हैं।

जानें- 100+ जीव विज्ञान प्रश्न (Biology question in hindi)

कार्बन चक्र (CARBON CYCLE)

कार्बन जीवधारियों के शरीर का निर्माण करने वाले सभी कार्बनिक पदार्थों (Organic substances) जैसे कार्बोहाइड्रेट्स (Carbohydrates), वसा (Fats), एवं प्रोटीन्स (Preteins) आदि का आवश्यक एवं मुख्य संघटक तत्व होता है। प्रकृति में कार्बन का मुख्य स्रोत वातावरण (Atmosphere) एवं जल (Water) होता है। अजैविक घटकां (Abiotic components) में यह कार्बोनेट युक्त चूना पत्थरों (Carbonated limes stones) वायु (0.03%), तथा जल ( 0.1% ) कोयला (Coal) एवं पेट्रोलियम (Petroleum) पदार्थों में पाया जाता है। जैविक घटकों (Biotic components) में यह कार्बनिक पदार्थों में पाया जाता है।.

हरे पौधे (Green plants) प्रकाश-संश्लेषण (Photosynthesis) क्रिया के समय वातावरण में उपस्थित कार्बन को CO2 के रूप में ग्रहण करके कार्बोहाइड्रेट्स (Carbohydrates) का निर्माण करते हैं। 

6CO₂ + 12H₂0 Chlorophyll Light > C6H12O6 + 6H₂O+60₂

प्रकाश-संश्लेषण के समय निर्मित कार्बनिक पदार्थ पादप के शरीर का निर्माण करते हैं। इनमें से कार्बनिक पदार्थों की कुछ कार्बन को पौधे श्वसन (Respiration) की क्रिया के द्वारा CO2 के रूप में उत्सर्जित कर देता है। बचे हुए कार्बनिक पदार्थों को शाकाहारी जन्तु ( Herbivorous animals) खा लेते हैं। फलतः कार्बन शरीर के कार्बनिक पदार्थों के साथ शाकाहारियों में चला जाता है। ये शाकाहारी कुछ कार्बन को CO2 के रूप में त्याग देते हैं, जबकि कुछ कार्बन मांसाहारी जन्तु ( Carnivorous animals) द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है। अत : कार्बन कार्बनिक यौगिकों के रूप में उत्पादकों के द्वारा ग्रहण करके खाद्य श्रृंखला के सर्वोच्च उपभोक्ताओं (Top consumers) तक पहुँचाती हैं। ये भी कुछ कार्बन को श्वसन द्वारा CO2 के रूप में निकालते हैं। अब अन्त में कुछ कार्बन उन उत्पादको ( Producers) तथा उपभोक्ताओं (Consumers) में रह जाता है, जो खाद्य श्रृंखला का भाग नहीं बन पाते, जब ये मरते हैं, तो अपघटक (Decomposers) इनके कार्बनिक यौगिकों को अपघटित करके इन्हें CO, और ह्यूमस (Humus) में बदल देते हैं। यह CO, वायु या जल में चली जाती है और ह्यूमस पृथ्वी तथा जल में रह जाता है। इन दोनों को पौधे पुनः ग्रहण कर लेते हैं और उपर्युक्त चक्र फिर से प्रारम्भ हो जाता है।

कुछ कार्बनिक यौगिकों का कार्बन जैविक ईंधन (Biotic fuel) उदाहरण- लकड़ी (Wood), जीवाश्मीय ईंधन (Fossil Fuels) जैसे-कोयला, पेट्रोलियम आदि या दूसरे ज्वलनशील पदार्थों को जलाने पर CO2 के रूप में मुक्त होकर वायु में आ जाता है और कार्बनिक चक्रीकरण (Corbon cycling) में भाग लेता है। जीवाश्मीय ईंधन का निर्माण मृतजीवों (जन्तुओं और पादपों) के शरीर के ही भूमि में दब जाने के कारण शरीर में संचित कार्बनिक पदार्थों से होता है।

नाइट्रोजन चक्र (NITROGEN CYCLE)

प्रकृति में नाइट्रोजन विभिन्न रूपों में पायी जाती है। मृदा में कार्बनिक नाइट्रोजन जीवों के मृत शरीर के अपघटन से प्राप्त होती है। मृत शरीर में मिलने वाली जटिल प्रोटीन (Complex protein) अपघटित होकर अमीनो अम्ल में बदल जाते हैं। इसी प्रकार यूरिया भी मृदा में मिल जाती है। पौधे जड़ों के द्वारा इनका अवशोषण (Absorption) करते हैं अथवा सूक्ष्मजीवों (Microorganisms ) के द्वारा यह अमोनिया में बदल जाते हैं, इस क्रिया को अमोनीकरण (Ammonification) कहते हैं। इसी प्रकार मृदा में अकार्बनिक नाइट्रोजन भी NO2 तथा NO, के रूप में पायी जाती है, जिनका उपयोग जड़ों के द्वारा किया जाता है। वायुमण्डल में 4/5 भाग N, होती है। जीवधारी इस स्वतन्त्र नाइट्रोजन का उपयोग नहीं कर पाते हैं। पौधे N2 की NH3 या NO3 के रूप में ही उपयोग करते हैं। ये यौगिक नाइट्रोजन स्थिरीकरण जीवाणुओं के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं। ये नाइट्राइट पौधों के शरीर के अन्दर नाइट्रोजनी यौगिक बनाते हैं। इन पेड़-पौधों का उपयोग जीव-जन्तु करते हैं। इन पौधों एवं जन्तुओं की मृत्यु के पश्चात् जीवाणुओं अथवा अन्य सूक्ष्मजीवों में अपघटन की क्रिया के पश्चात् N2 स्वतन्त्र रूप से अथवा NH; के रूप में वातावरण तक पुनः पहुँच जाती हैं।


नाइट्रोजन चक्र (nitrogen cycle)


पढ़ें- जलोद्भिद पौधे के आकारिकीय अनुकूलन

फॉस्फोरस चक्र (PHOSPHORUS CYCLE) 

फॉस्फोरस जीवों का एक महत्वपूर्ण पदार्थ है। यह नाभिकीय अम्लों, फॉस्फोलिपिड्स, ATP, ADP और कई महत्वपूर्ण यौगिकों का एक घटक है। हरचिन्सन (1944) के अनुसार, प्राकृतिक जलस्रोतों में फॉस्फोरस और नाइट्रोजन 1:23 के अनुपात में पाये जाते हैं। जीवमण्डल के जैविक घटकों में फॉस्फोरसफॉस्फेट आयनों के रूप में प्रवेश करता हैये फॉस्फेट आयन पौधों द्वारा अवशोषित किये जाते हैं तथा विभिन्न यौगिकों से होते हुए उपभोक्ताओं और अपघटकों में स्थानान्तरित हो जाते हैं। उपभोक्ताओं में यह फॉस्फेट कार्बोनिक यौगिकों के रूप में प्रवेश करते हैं। जब उत्पादकों और उपभोक्ताओं की मृत्यु होती है, तो अपघटक उनके शरीर में उपस्थित फॉस्फोरस को फॉस्फेट आयन के रूप में मुक्त कर देते हैं, जिसका उपयोग पौधे पुनः करते

कई चट्टानों और जन्तुओं के कवचों जैसे-कोरल, मोलस्क आदि में फॉस्फेट पाया जाता है, जिसका उपयोग पौधे करते हैं। आजकल फॉस्फेट का उपयोग घरेलू अपमार्जकों के रूप में किया जाता है। जल में घुलकर यह पारिस्थितिक तंत्र में प्रवेश कर सकता है।

फॉस्फोरस चक्र (PHOSPHORUS CYCLE)


मृदा में भी फास्फेट उपस्थित होते हैं, जो कि फॉस्फेट युक्त चट्टानों के अपरदन से मुक्त होता है। चट्टानों के अपरदन एवं जीवों के मृत शरीर शरीर के अपघटन से मुक्त फॉस्फोरस एवं कैल्शियम जल के साथ समुद्र में पहुँचकर वहाँ पर एकत्रित होकर चट्टानों का निर्माण करते हैं। इस प्रकार फॉस्फोरस, फॉस्फोरस चक्र से अलग हो जाता है। इन चट्टानों के विघटन के फलस्वरूप फॉस्फोरस पुन : जल में घुल जाता है। यह जल में घुलित फॉस्फोरस पौधों के द्वारा अवशोषित कर लिया जाता हैइस प्रकार फॉस्फोरस चक्र जारी रहता है।

इस पोस्ट में हमने जैव भू-रासायनिक चक्र  (Jaiv bhu rasayanik chakra) के बारे में जाना। जो जंतु विज्ञान के महत्वपूर्ण प्रश्नों में से एक है।

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जलोद्भिद पौधे के आकारिकीय अनुकूलन। Adaptations of Hydrophyte microscopic size.

हेलो दोस्तों, इस पोस्ट में हम वनस्पति विज्ञान के एक महत्वपूर्ण टॉपिक जलोद्भिद पौधे के आकारिकीय अनुकूलन के बारे में जानने वाले हैं। अगर आप विज्ञानं के विद्यार्थी है या फिर आप किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं तो आपको ऐसे बेसिक प्रश्नों के बारे में जरुर पता होना चाहिए। इस पोस्ट में जलोद्भिद पौधे के आकारिकीय अनुकूलन के बारे में जानकारी दी गयी है। जो परिक्षापयोगी दृष्टिकोण से बहुत ही महत्वपूर्ण है।

जलोद्भिद पौधे के आकारिकीय अनुकूलन। Adaptations of Hydrophyte microscopic size.



जलोद्भिद पौधे (Hydrophyte)

जलोद्भिद पौधे (Hydrophytes)-पौधों का वह विशिष्ट समूह, जो पानी में या पानी (जल) से संतृप्त मृदा पर उगते हैं, वृद्धि करते हैं एवं जिन्हें अपना जीवन चक्र पूरा करने के लिए अत्यधिक जल की आवश्यकता होती है, जलोद्भिद (Hydrophyte) पौधे कहलाते हैं। इनमें अनुकूलन निम्न कारणों से होता है
(i) पौधे को तैरने की क्षमता प्रदान करने हेतु, 
(ii) जल अवशोषण की दर को कम करने के लिए, 
(iii) गैसों के आदान-प्रदान हेतु, 
(iv) वाष्पोत्सर्जन को बढ़ाने के लिए, 
(v) जल धारा (Water current) के तनाव को कम करने के लिए, 
(vi) अधिकतम प्रकाश तथा ऑक्सीजन ग्रहण करने के लिए
इन्हें भी पढ़ें- जंतु विज्ञान की शाखाएं (Branches of Zoology)

जलोद्भिद के प्रकार (Types of Hydrophytes)

जल की आवश्यकता एवं उपस्थिति के आधार पर जलोद्भिद को निम्नलिखित प्रकारों में विभक्त किए जाते
1. जड़ित जल निमग्न जलोद्भिद (Rooted Sub merged Hydrophytes) — वे जलोद्भिद, जो कि जल के अंदर रहते हैं तथा जिनकी जड़ें कीचड़ में तली से लगी हुई होती हैं। उदाहरण- हाइड्रिला (Hydrilla), वैलिस्नेरिया (Vallisnaria) आदि । 
2. प्लवनकारी जलनिमग्न जलोद्भिद (Submerged Floating Hydrophytes) — ऐसे जलोद्भिद की जड़ें से लगी नहीं होती हैं लेकिन ये पूर्णतः निमग्न होते हैं तथा तैरते रहते हैं। उदाहरण- यूट्रीकुलेरिया (Utricu laria), सिरैटोफाइलम (Ceratophythm) आदि। 
3. जड़ित प्लवनकारी जलोद्भिद (Rooted Float ingHydrophytes) —जलोद्भिद के इस प्रकार में जड़ें मृदा से लगी हुई होती हैं, परन्तु पत्तियाँ जल की सतह पर तैरती रहती हैं। उदाहरण- कमल (Lotus), सिंघाड़ा (Trapa), कुमुदिनी (Waterlily) |
4. मुक्त प्लावी जलोद्भिद (Free Floating Hydrophytes) — इनकी जड़ें मृदा या कीचड़ के सम्पर्क में नहीं होती है बल्कि ये जल की सतह पर स्वतंत्र रूप से तैरते हैं। उदाहरण— वॉल्फिया (Wolffia), लैम्ना (Lemna), स्पाइरोडेला (Spirodella), एजोला (Azolla), पिस्टिया (Pistia) आदि। 
5. प्रक्षेपित जलोद्भिद अथवा जड़ित निर्गत जलोद्भिद (Rooted Emergent Hydrophytes) - ऐसे पौधों की जड़ें जल संतृप्त या जल में डूबी मृदा से जुड़ी होती हैं लेकिन पत्तियों के कुछ भाग तथा अन्य शेष भाग जल से बाहर होती हैं। उदाहरण - टायफा (Typha), रैननकूलस (Ranunculus), सैजीटेरिया (Sagittaria), फ्रैग्माइटिस (Phragmites) आदि ।

(A) आकारिकीय अनुकूलताएँ (Morphological Adaptations) — जलोद्भिद में पाये जाने वाले मुख्य आकारिकीय अनुकूलताएँ अग्रलिखित हैं 

(i) जड़ तंत्र अल्पविकसित या अविकसित होता है। 
(ii) मूल रोम केवल जड़ित निर्गत (Rooted Emer gent) प्रकार में सुविकसित तथा अन्य प्रकारों में अनुपस्थित होते हैं। 
(iii) मूल टोप (Root cap) की जगह मूल कोटरिका (Root pockets) होते हैं। यह मूलाग्र के प्रतिरक्षा के साथ साथ संतुलन का भी कार्य करते हैं। 
(iv) कुछ पौधों में कुछ जड़ें गैसों के संग्रहण के कारण रूपान्तरित होकर ऋणात्मक गुरुत्वानुवर्ती अंग की स्पंजी (Spongy) हो जाती हैं। उदाहरण- जूसिया (Jussiaea ) | 
(v) पूर्ण निमग्न जलोद्भिद (Submerged hydro phytes) में तना कोमल, लचीला तथा स्पंजी होता है।
(vi) ऐसे पौधों के कुछ भागों में गैस संगृहीत होती है, जो पौधों को तैरने में मदद करती है। जैसे- नेप्ट्यूनिया (Neptunia) में तना, आइकॉर्निया ( Eichornia), ट्रापा (Trapa) में पत्ती का भाग गैस संग्रहण के कारण फूल जाता है। 
(vii) निमग्न जलोद्भिद (Submerged hydrophytes) में पत्तियाँ पतली, छोटी, रिबन की तरह या खण्डित होती हैं। ये जल की धारा तरंगों के प्रभाव को निष्प्रभावी बनाती हैं
(viii) प्रकाश को अत्यधिक अवशोषित करने हेतु पौधे सामान्यत : धुंधले हल्के पीले (Dull-pale coloured) रंग के हो जाते हैं।
(ix) पौधों में सामान्यतः वर्धी प्रसारण (Vegetative propagation) द्वारा प्रजनन होता है। अतः इनमें उसके अनुसार रूपान्तरित अंग भी मिलते हैं। उदाहरण (i) स्टोलॉन (Stolon), वैलिस्नेरिया (Vallisnaria) में;  (ii) ऑफसेट (Offset), पिस्टिया (Pistia), आइकॉर्निया (Eichornia) में। 
(x) सभी जलनिमग्न जलोद्भिद का शरीर लसलसे आवरण (Mucilage) द्वारा आच्छादित होता है। म्यूसिलेज के कारण इन पर सूक्ष्मजीवों, रसायनों तथा जन्तुओं का आक्रमण नहीं हो पाता है।
पढ़ें- अम्ल, क्षार और लवण (Acid, Base and Salt in Hindi)

(B) आंतरिक अनुकूलन (Anatomical Adaptations) – 

(i) निमग्न जलोद्भिद में क्यूटिकल (Cuticle) अनुपस्थित या अल्पविकसित होता है जबकि प्लावी जलोद्भिद में यह पत्तियों तथा तना पर उपस्थित होता है। 
(ii) दृढ़ोत्तक (Sclerenchymatous) एवं स्थूलकोण (Collenchymatous) ऊतक अपेक्षाकृत कम विकसित होते हैं। 
(iii) प्राय : वल्कुट ( Cortex) में वायु प्रकोष्ठ उपस्थित होता है। (iv) निमग्न जलोद्भिद (Submerged hydrophytes) में संवहन पूल अनुपस्थित या अल्प विकसित होते हैं, जबकि जड़ित निर्गत (Rooted emergent) या प्लावी जलोद्भिद (Floating hydrophytes) में सुविकसित होते

Eichornia


(v) फ्लोएम (Phloem) में फ्लोएम रेशे (Phloem Fibres) नहीं होते हैं। 
(vi) रन्ध्र (Stomata) गड्ढे में स्थित नहीं होते हैं, लेकिन सामान्य रन्ध्र प्लावी जलोद्भिद की पत्तियों के ऊप पर पाये जाते हैं। 
(vii) प्लावी (Floating) तथा जड़ित निर्गत (Rooted emergent form) में जलरन्ध्र (Hydathodes) उपस्थित होते हैं। उदाहरण-पिस्टिया (Pistia), आइकॉर्निया (Eichornia) आदि । 
(viii) सामान्यतः तना का कॉर्टेक्स (Cortex) हरा होता है। .
(ix) फल तथा बीज में वायु प्रकPage Aif chdm107s) होते हैं, प्रकी में सहायता करते हैं।
(x) बीज का बाह्य बीजावरण (Testa) अपारगम्य (Imperemeable) होता है तथा भ्रूण को क्षरण (Decay) से बचाता है। 

(C) कार्यिकीय अनुकूलन (Physiological Adaptations) - 

(i) अधिकतर जलोद्भिद द्वारा जल तथा पोषक पदार्थों का अवशोषण समस्त शरीर की कोशिकाओं द्वारा होता है।
(ii) जल रन्ध्र द्वारा अतिरिक्त जल के निष्कासन के लिए बिन्दुस्रावण (Guttation) की क्रिया ज्यादा होती है। 
(iii) वायुमृदूतक (Aerenchyma) में CO2 तथा ऑक्सीजन संग्रहीत होते हैं, जो क्रमशः प्रकाश-संश्लेषण (Photo synthesis) एवं श्वसन (Respirations) के क्रम में उपयोग किया जाता है। 
(iv) कोशारस (Cell sap) का परासरणीय सांद्रण (Osmotic concentration) जलस्रोत के जल के सान्द्रण के बराबर या थोड़ा अधिक होता है।
(v) इनके निमग्न अंगों से लसलसा पदार्थ स्रावित करने की क्षमता होती है, जो सतह के ऊपर बाह्य प्रतिरक्षात्मक स्तर की तरह कार्य करता

इस पोस्ट में हमने जाना कि जलोद्भिद पौधे के आकारिकीय अनुकूलन किस प्रकार के होते हैं। वनस्पति विज्ञान का यह एक महत्वपूर्ण टॉपिक है।
उम्मीद करता हूँ कि जलोद्भिद पौधे के आकारिकीय अनुकूलन का यह पोस्ट आपके लिए उपयोगी साबित होगा। अगर आपको यह पोस्ट पसंद आया हो तो इस पोस्ट को शेयर जरुर करें।

बिन्दुस्रावण तथा वाष्पोत्सर्जन में अन्तर (Differences between Guttation & Transpiration in hindi)

आज के इस पोस्ट में हम जानेंगे  बिन्दुस्रावण तथा वाष्पोत्सर्जन में अन्तर (Differences between Guttation & Transpiration) और बिन्दुस्रावण तथा वाष्पोत्सर्जन की क्रिया कैसे संपन्न होता है।

बिन्दुस्रावण तथा वाष्पोत्सर्जन


बिन्दुस्रावण तथा वाष्पोत्सर्जन में अन्तर (Differences between Guttation & Transpiration)

सं.क्र. बिन्दुस्राव या बिन्दुस्रावन (Guttation) वाष्पोत्सर्जन (Transpiration)
1. इसमें जलीय विलयन बूंदों के रूप में बाहर निकल हैं। बूँदें काफी समय तक स्पष्ट दिखाई देती हैं। वाष्पोत्सर्जन में शुद्ध जल जलवाष्प के रूप में निष्कासित होता है।
2. यह जलरन्ध्रों (Hydathodes) के द्वारा होता है। यह रन्ध्र, वातरन्ध्र, उपत्वचा आदि के द्वारा होता है।
3. यह प्राय: देर रात्रि पश्चात् या प्रातःकाल में होता है। यह दिन में अधिक तथा सभी स्थलीय पौधों में होता है। यह शाकीय, क्षूपीय तथा काष्ठीय अर्थात् सभी प्रकार के पौधों में होता है।
4. इसके द्वार की रक्षक कोशिकाओं में स्लथ तथा स्फीत होने की प्रक्रिया नहीं होती है। रंध्रो के रक्षक कोशिकाओं में स्लथ तथा स्फीत होने की प्रक्रिया क्रियाशील होती है। फलस्वरूप रंध्र बंद होता एवं खुलता है।
5. इस क्रिया में निष्काषित जल में खनिजों की प्रचुरता होती है। इस क्रिया में निष्काषित जल शुद्ध होता है।
6. मूल दब रात्रि में अधिक होने के कारण यह क्रिया होती है। इसका मूल दब से कोई सम्बन्ध नहीं है।
7. बिन्दुस्रावन की दर में वृद्धि होने के कारण पौधे मुर्झाते नहीं है। वस्पोत्सर्जन की दर में वृद्धि होने से पौधे मुर्झा जाते है।

बिन्दुस्रावण तथा वाष्पोत्सर्जन में अन्तर (Differences between Guttation & Transpiration)

 बिन्दुस्त्रावण ( Guttation) - जलरन्ध्रों (Hydathodes) द्वारा पत्तियों के किनारे या पत्तियों के शिखर पर जल का बूँदों के रूप में स्रावित होना, बिन्दुस्रावण कहलाता है। यह क्रिया तब होती है जब अधिक मात्रा में जल अवशोषण तथा अपेक्षाकृत कम मात्रा में वाष्पोत्सर्जन हो रहा होता है। पारिस्थितिक अर्थात् जलवायवीय दृष्टि से जब वातावरण में अधिक आर्द्रता तथा मृदा में जल भरपूर मात्रा में होता है, तब यह क्रिया होती है। उदाहरण कोलोकेसिया (Colocasia), नास्टरशियम (Nastertium), पिस्टिया (Pistia), टमाटर (Tomato) आदि।

 वाष्पोत्सर्जन (Transpiration)- पौधों द्वारा अवशोषित जल का मात्र 5 से 10 प्रतिशत ही उनके द्वारा अपनी विभिन्न उपापचयिक क्रियाओं में उपयोग किया जाता है तथा शेष 90-95% जल पौधे के वायवीय भाग द्वारा जलवाष्प के रूप में निकाल दिया जाता है। पौधे के वायवीय भागों से उनके ऊतक में स्थित जल का जलवाष्प के रूप में वातावरण में निष्कासन की क्रिया वाष्पोत्सर्जन (Transpiration) कहलाती है। एक जल को जलवाष्प में परिणत होने में 540 कैलोरी ताप ऊर्जा की आवश्यकता होती है।

तो हमने ऊपर जाना बिन्दुस्रावण तथा वाष्पोत्सर्जन में अन्तर और बिन्दुस्रावण तथा वाष्पोत्सर्जन की परिभाषा आशा है आपको हमारा यह पोस्ट अच्छा लगा होगा । अगर आपको लगता है की इसे पड़ना चाहिए तो  कृपया  अपने दोस्तों के साथ इस पोस्ट को शेयर करे ।

 "धन्यवाद "

बीज प्रसुप्ति क्या है? प्रकार, प्रभावित कारक, महत्व (Seed dormancy in Hindi)

अगर आपने बीज प्रसुप्ति को Search किया है की बीज प्रसुप्ति क्या है और बीज प्रसुप्ति को प्रभावित करने वाले कारक क्या हैं तो यह पोस्ट खासतौर पर आपके लिए ही  बनाया गया है. बीज सुसुप्तावस्था, सुसुप्तावस्था के प्रकारSeed dormancy in Hindi, Definitions of Seed Dormancy

अंकुरण अस्थायी अंतराल के लिए प्रतिबंधित करता हो तो उसे बीज प्रसुप्ति कहा जाता है । Bij Prasupti  को प्रभावित करने वाले कारक तथा बीज प्रसुप्ति को समाप्त करने के उपाय/निवारण की पूरी जानकारी निचे दिए जा रहे हैं. जो आपके लिए बहुत ही Usefull होगा. 

Seed dormancy in hindi


बीज प्रसुप्ति क्या है? बीज प्रसुप्ति को  प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक, महत्व (Seed dormancy in Hindi) 

  • बीज प्रसुप्ति क्या है?
  • बीज प्रसुप्ति क्या होता है? 
  • बीज प्रसुप्ति को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक?
  • बीज प्रसुप्ति को रोकने के उपाय?
  • बीज प्रसुप्ति का महत्त्व?

प्रसुप्ति क्या है ?

वह प्रक्रिया जिसके तहत किसी जीव या उसके अंग की जीवंतता अनुकूल परिस्थितियों की उपस्थिति के पश्चात् भी कुछ आंतरिक परिस्थितिक कारकों के कारण स्वयं को अस्थायी समयावधि के लिए प्रकट नहीं कर पाती हो तो उसे प्रसुप्ति कहते हैं।

बीज प्रसुप्ति क्या है? (What is Seed dormancy in Hindi) –

"यदि यह बीजों से संबंधित होता है तथा उसके अंकुरण अस्थायी अंतराल के लिए प्रतिबंधित करता हो तो उसे बीज प्रसुप्ति कहा जाता है।"

अर्थात् परिपक्व बीज के साहचर्य में वृद्धि, विकास एवं अंकुरण को बढ़ाने वाले सभी कारकों की उपस्थिति के बाद भी यदि अंकुरण की प्रक्रिया कुछ समयान्तराल तक नहीं हो ला पाती हैं। तो उस समयान्तराल को प्रसुप्ति काल (Dor; mant period) तथा प्रक्रिया बीज प्रसुप्ति कहलाती है।

बीज प्रसुप्ति को प्रभावित करने वाले कारण एवं कारक (Causes or factors affecting seed dor mancy) 

एक से अधिक कारकों के समेकित प्रभाव से उत्पन्न होती है, इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं- 

1. बीजकवच का प्रतिरोधी तथा अपारगम्य होना (Resistant and Impermeabily of Seed Coat) 

सोलेनेसी, कॉन्वाल्युलेसी, मालवेसी, लेग्यूमिनोसी, कुकुरबिटेसी आदि कुलों के पौधों के बीज का बीजावरण - Seed Coat) काफी कड़ा होता है तथा जल के प्रति ये अपारगम्य होते हैं। ऐसे बीजों में अंकुरण तब तक नहीं होता  जब तक इनका बीजावरण मिट्टी में उपस्थित सूक्ष्मजीवी  अपघटकों द्वारा अपघटित न कर दिया जाए। 

2. ऑक्सीजन के प्रति अपारगम्यता (Imperme ability to Oxygen) — 

तरुण बीज ऑक्सीजन के प्रति अपारगम्य होते हैं। कुछ घासों तथा एस्ट्रेसी कुल के सदस्यों जैसे जैन्थियम (Xanthium) में बीज प्रसुप्ति का प्रमुख कारण ऑक्सीजन अपारगम्यता ही होती है। बीतते समय के साथ बीजावरण ऑक्सीजन के प्रति पारगम्य होता चला जाता है। 

3. भ्रूण की अपरिपक्वता (Immaturity of Em bryo) — 

अनेक पौधों जैसे ऑर्किड्स, जिन्गो, ऐनीमोन. फ्रेक्सीनस एवं फिकेरया आदि के बीजों में बीज प्रसुप्ति का मुख्य कारण उनके अंदर अपरिपक्व भ्रूण की उपस्थिति होती है। अतः ऐसे बीज एक निश्चित अवधि की विश्रामावस्था में जाने के पश्चात् ही अंकुरित होते हैं। इस अवस्था में इसके भ्रूण का विकास पूर्ण हो जाता है। 

4. यांत्रिक रूप से प्रतिरोधी बीज कवच (Mechani ५० के cally resistant seed coats ) – 

कुछ जंगली पौधों में दृढ़  बीज कवच, एक भ्रूण के विस्तार के लिए भौतिक अवरोध के रूप में कार्य करती है। जैसे— ऐमेरेन्थस (Amaranthus ) में बीज कवच पानी एवं O, के लिए तो पारगम्य होती है, परंतु वह भ्रूण के विकास अथवा विस्तार को रोक देती है। ऐसे बीजों की प्रसुप्ति तभी समाप्त होती है, जब इन्हें कुछ समय के लिए प्रकाश में रखकर शुष्क करने के पश्चात् पानी दिया जाए। 

5. चिलिंग अथवा कम तापक्रम उपचारण क आवश्यकता (Chilling or low temperature require ment) –

 सेब, गुलाब आदि के बीजों को बसंत ऋतु में हार्वेस्ट करने पर वे अंकुरित नहीं हो पाते हैं, क्योंकि उनके अंकुरण के लिए कम ताप उपचार या चिलिंग आवश्यक होता है। ऐसे बीज सम्पूर्ण ठण्ड ऋतु तक प्रसुप्ति अवस्था में रहते हैं, बाद में अंकुरित होते हैं। 

6. प्रकाश संवेदी बीज (Light sensitive seeds) -

 कुछ प्रकार के बीजों में अंकुरण प्रकाश के द्वारा प्रभावित होता है। ऐसे बीजों को फोटोब्लास्टिक (Photoblasticकहते हैं। कुछ बीजों में प्रसुप्ति अधिक प्रकाश मिलने पर  समाप्त हो जाती है। जैसे— शलाद (Lettuce) में लाल प्रकाश (Red light) अंकुरण को उत्प्रेरित करता है। बिगोनिया ( Bigonia) के बीजों को अंकुरित होने के लिए प्रकाश चाहिए। 

7. अंकुरण निरोधक पदार्थों की उपस्थिति - 

कुछ बीजों के बीजावरण, भ्रूणपोष, भ्रूण या फल के गुदा (Pulp) में वृद्धि निरोधक पदार्थ (Growth inhibitors) उपस्थिति होते हैं। इनकी उपस्थिति बीजों को प्रसुप्तवस्था में ही रखती है। जब कभी ये बीजों से बाहर निकल जाते हैं तो ही अंकुरण की क्रिया होती है।  

8. ऑफ्टर राइपेनिंग (After ripening) — 

कुछ पौधों के बीजों को अंकुरण से पहले कुछ समय के लिए शुष्क तापमान पर रखना आवश्यक होता है। शुष्क अवस्था के पश्चात् ही भ्रूण (Embryo) के अंकुरण की प्रक्रिया ऑफ्टर राइपेनिंग (After ripening) कहलाती है। यह बीज में जिबरेलिन (Gibberellin) की अल्प उपस्थिति के कारण होती है। 

बीज प्रसुप्ति को समाप्त करने के उपाय (Methods of removing Seed dormancy) 

प्रसुप्तावस्था के विभिन्न स्थितियों को समाप्त करने के निम्नलिखित उपायों में से आवश्यकतानुसार किसी भी तरीके   को अपनाया जा सकता है -

1. खरोचन विधि (Scarification) - 

इस विधि के अंतर्गत कठोर बीज कवचों को खरोचकर मुलायम बनाया जा सकता है। इससे आसानी से अंकुरण हो सकता है। यह कार्य यांत्रिक विधियों द्वारा किया जाता है। इसके अलावा, गंधक का अम्ल के उपचार से बीज कवच पतले पड़ जाते हैं उनमें अंकुरण होने लगता है। 

उदाहरण - कद्दू (Gourd), करेला (Bittergourd), धनिया (Coriander), आम (Mango) आदि । 

2. कम ताप उपचार द्वारा (Low temperature treat ) - 

कुछ बीजों को 5-10 डिग्री सेल्सियस तापमान ment) पर रखने से ये अंकुरित हो जाते हैं । इस क्रिया को स्ट्रैटिफिकेशन (Stratification) भी कहते हैं।  

उदाहरण – नाशपाती (Pear), सेब (Apple), चेरी (Cherry) आदि । 

3. तापमान एकान्तरण (Alternating tempera ture) - 

कुछ बीजों के भ्रूणों में प्रसुप्ति पायी जाती है, जिसे उनको उचित तापमान 30-40 डिग्री से. तथा निम्न तापमान 5-10 डिग्री से. पर रखने से दूर की जा सकती है। 

4. दाब उपचार ( Pressure temperature ) - 

स्वीट क्लीवर एवं अल्फाल्फा के प्रसुप्ति बीजों को अन्य वायुमण्डलीय दाब पर उपचारित करके उन्हें अंकुरित किया जा सकता है। 

5. प्रकाश एवं ताप (Light and temperature) - 

लाल प्रकाश अंकुरण की प्रक्रिया को तेज करती है, लेकिन उच्च ताप लाल प्रकाश की आवश्यकता को कम करती है। 

6. रासायनिक उपचार या हॉर्मोन उपचार (Chemi cals or Hormone treatment) – 

वृद्धि नियामक पदार्थों  को उपचार के कारण उन बीजों में अंकुरण कराया जा सकता है, जो कि शीतन (Chilling) ऑफ्टर राइपेनिंग (After ripening) या प्रकाश- उपचार चाहते हैं । 

अनेक रासायनिक पदार्थ जैसे- पोटैशियम नाइट्रेट, थायोयूरिया, जिबरेलिन्स, एथिलीन आदि के उपचार से बीजों में प्रसुप्ति नष्ट हो जाती है और ये बीज अंकुरण कर सकते हैं। 

7. पादप ऊतक संवर्धन अथवा भ्रूण संवर्धन द्वारा (By plant tissue culture or embryo culture) – 

भ्रूण (Embryo) की अपरिपक्वता के कारण अगर प्रसुप्तावस्था होती हो तो उसे समाप्त नहीं किया जा सकता है, लेकिन भ्रूण संवर्धन (Embryo culture) या पादप ऊतक संवर्धन तकनीक का प्रयोग कर नये पौधिका (Plantlet) तथा उससे नये पौधे को परिवर्धित किया जा सकता है। 

प्रसुप्ति अथवा प्रसुप्तावस्था का महत्व (Signifi cance of Dormancy ) 

(i) प्रसुप्ति के कारण बीजों तथा पौधों के प्रबंधकों का प्रकीर्णन आसान हो जाता है जिसके कारण इनको संग्रहण तथा वितरण के लिए समुचित समय मिल जाता है। 

(ii) प्रसुप्तावस्था के कारण बीज आसानी से प्रतिकूल समय को सह पाने की क्षमता पाए जाते हैं। 

(iii) उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में पाए जाने वाले पौधों के बीजों में अपारगम्यता तथा प्रतिरोधकता के गुण के कारण बीज को अत्यधिक तापमान में रहने के बाद भी हानि नहीं हो पाती है। 

(iv) प्रसुप्ति के अध्ययन पश्चात् आवश्यकतानुसार बीजों के अंकुरण की प्रक्रिया में प्रयुक्त होने वाले समय को घटाया। या बढ़ाया जा सकता है। जैसे बीजों को 2, 4 डाइइन्डॉल ब्यूटाइरिक अम्ल नैप्थेलिन एसीटिक अम्ल 2,4,5 ट्राइक्लोरोफिनॉक्सो एसीटिक अम्ल से उपचारित करने से बीज प्रसुप्ति की अवधि आगे बढ़ जाती है। जबकि इथीलिन क्लोरो हाइड्रीन, थायोसायनेट, थायोयूरिया आदि से बीजों को उपचारित करके प्रसुप्ति को समाप्त किया जा सकता है। 

तेल प्रदान करने वाले प्रमुख 5 फसल | Major Oil Yielding Crops in Hindi

वसा एवं तेल विशिष्ट प्रकार के कार्बनिक पदार्थ होते हैं, जो कि जल में अविलेय परन्तु कार्बनिक विलायकों (ईथर, क्लोरोफॉर्म, कार्बन टेट्राक्लोराइड, बेंजीन, एसीटोन) में विलेय (घुलनशील) होते है। ये वसीय अम्ल तथा एल्कोहॉल के एस्टर्स (Esters) होते हैं।

Major Oil Yielding Crops in Hindi

तेल या वसा प्रदान करने वाली पांच प्रमुख फसल -मूँगफली (Ground Nut),सरसों (MUSTARD), नारियल (Coconut), तिल (Sesame),सूर्यमुखी (Sunflower)

“प्रकृति में वसा एवं तेल पौधों, जन्तुओं तथा खनिज तत्वों से प्राप्त होते हैं, इन्हें क्रमशः प्राकृतिक वसा एवं तेल (Vegetable fat and oils ) जन्तु वसा या तेल (Animal fat and oils), तथा खनिज तेल (Mineral oil), कहते हैं।”

तेल प्रदान करने वाले प्रमुख 5 फसल:-

1. मूँगफली (Ground Nut)

Botanical Name - एरेकिस हाइपोजिया (Arachis Hypogea)

Family - Papilionaceae (fabaceae).

Common Name – चीना, बादाम, चितिया, बादाम, भुर्रमुंग, नीलकदल, पीनट इत्यादि।

Part Use - (फली)

मूँगफली फैबेसी (fabaceae) अर्थात् पैपिलियो नेसी (Papilionaceae) कुल का सदस्य है। इसका वानस्पतिक नाम एरेकिस हाइपोजिया (Arachis hypo gea, L) है। भारत में मूँगफली की खेती आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र आदि राज्यों में होती है, यह भारत की मुख्य तैलीय खरीफ फसल है।

मूँगफली की खेती (Cultivation of Ground nut)

मूँगफली की खेती बलुई-दोमट, दोमट एवं काली मिट्टी वाले खेतों में सफलतापूर्वक की जाती है। खेत को 5-7 बार जुताई करके भूरभूरी महीन मिट्टी युक्त बनाकर मई के अंतिम सप्ताह या फिर जून के प्रथम सप्ताह में किया जाता है। बोआई के लिए छिलके सहित फल्लियाँ या छिलका हटाकर निकाले गए स्वरूप दानों का उपयोग किया जाता ह।

मूँगफली की उन्नत किस्में दो प्रकार की होती हैं

(a)फैलकर बढ़ने वाली प्रजातियाँ - टाइप - 28, M – B, M –145,M - 179, पंजाब - 1, चित्रा आदि 120 - 135 दिनों में तैयार होती है।

(b) गुच्छे वाली प्रजातियाँ - चन्द्रा, फैजपुरा - 5, अम्बर, कुबेर, प्रकाश, ज्योति, जवाहर, काटिरो, DRG - 17, कौशल आदि ये किस्में 95 – 110 दिनों पककर तैयार हो जाती है।

मूंगफली का महत्व (Importance of Groundnut) –

(i) मूँगफली के दानों को उबालकर, तलकर, भुनकर या पोहे आदि के साथ मिश्रित कर खाया जाता है।
(ii मूँगफली के दानों से दूध, दही, हलवा, पुडिंग, समोसे, चटनी, मक्खन तथा इसे चीनी के साथ निर्मित करके चिकी तैयार किया जाता है।
(iii) इसके दानों की पेराई कर खाद्य तेल निष्कर्षित किया जाता है। इससे वनस्पति घी भी तैयार होता है।
(iv) मूँगफली के पौधे का हरा भाग हरी खाद के रूप में एवं चारे के रूप में प्रयुक्त होता है।
(v) इसकी खल्ली (Oil cake) पशुओं के चारे के रूप में प्रयुक्त होती है साथ ही यह अच्छे खाद के रूप में भी उपयोग किया जाता है।

2. सरसों (MUSTARD)

Botanical Name— ब्रूसिका कैम्पेस्ट्रिस (Brassica Campestris)
Family - क्रुसीफेरी Cruciferae, ब्रैसिकेसी (Brassicaceae)

Common Name - सरसों (Sarson), राई (Rai) ।

Part Use - (बीजों से)

सरसों की किस्में (Varieties of Mustard)—

(i) पीला सरसों या सामान्य सरसों या तोरिया- ब्रेसिका कैम्पेस्ट्रिस (Brassica campestris)
(ii) सफेद सरसों (White Mustard) - ब्रेसिका अल्बा (Brassica alba)
(iii) राई (Rai) ब्रेसिका जंशिया (Brassica juncea)
(iv) काली राई (Black Rai) - ब्रेसिका नाइग्रा (Brassica nigra)
(v) काली सरसों (Black Mustard) - ब्रूसिका नेपस (Brassica napus)

सरसों का महत्व (Importance of Mustard ) –

(i) सरसों का तेल भारत में प्रमुख खाद्य तेल के रूप में प्रयुक्त होता है ।
(ii) सरसों तेल का उपयोग बैलगाड़ियों, मशीनों में स्नेहक (Lubricants) के रूप में प्रयुक्त होता है ।
(iii) यह केश वर्द्धक आयुर्वेदिक तेल, दर्द हारी औषधीय तेल आदि बनाने में उपयोग किया जाता है।
(iv) इसके तेल से साबुन भी बनाया जाता है।
(v)इसका तेल रबर उद्योग में भी अपनी उपयोगिता रखता है।
(vi) इसका तेल अच्छे मालिश तेल के रूप में भी प्रयुक्त होता है। यह थकानहारी तथा चर्मरोग से मुक्ति दिलाता है|
(vii) इसका खल्ली (Oil Cake) उत्तम पशु आहार तथा खाद के रूप में उपयोग किया जाता है।

3. नारियल (Coconut)

Botanical Name - कॉकस न्यूसिफेरा
Cocus nucifera

Family - एरिकेसी (Arecaceae

या पामी (Palmae)

Common Name - नारियल (Coconut)

Part Use - (अंतः फलभित्ति)

इसका वृक्ष मुख्य रूप से केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु में उगाये जाते हैं। इसके फल डूप प्रकृति के होते हैं। इसका मीजोकार्प रेशानुमा (fiberous) होता है रेशेयुक्त फल भित्ति (fruit wall ) होने के कारण फल का प्रकीर्णन जल के द्वारा आसानी से होता है।

तेल का निष्कर्षण (Extraction of oil) –

नारियल का (Endosperm) भ्रूणपोष तेल का उत्कृष्ट स्रोत होता है इसके Endosperm तथा गरी (Coptra) को (Expellers) एक्सपेलस, रोटरी मशीनों (Crotory Mills) में कोल्हू की भाँति अत्यधिक दाब देकर निकाला जाता है। नारियल का तेल वानस्पतिक वसा की श्रेणी के अंतर्गत आता है। यह 24°c या ठोस के रूप में रहता है। इसका साबुनीकरण मान बहुत अधिक होता है। इसके तेल में अनेक प्रकार के वसीय अम्ल (fatty acid ) जैसे- (i) लौरिक अम्ल (Louric acid 45%), (ii) पालमेटिक अम्ल (Palmatic acid 10%) (iii) ओलेइक अम्ल (Oleic acid 8.5%) मिरिस्टिक अम्ल (Myristic acid 14.18%), लिनोलिक अम्ल (Li noleic acid) का मिश्रण होता है।

नारियल का उपयोग (uses of Coconut)­­-

(i) नारियल का तेल उत्तम खाद्य तेल होता है।
(ii)यह केशवर्द्धक तेल के रूप में बालों में लगाने के काम आता है।
(iii) इससे विभिन्न प्रकार के सौंदर्य प्रसाधनों को बनाया जाता है।
(iv)तेल निर्माण के पश्चात् उपोत्पाद के रूप में प्राप्त होने वाले खल्ली (oil Cake) जानवरों का पौष्टिक आहार होता है।

नारियलका महत्व (Importance of Coconut) –

(i) इसमें पोटैशियम, फाइबर, कैल्शियम व मैग्नीशियम भरपूर मात्रा में पाया जाता है।
(ii) ये कई बीमारियों के इलाज में भी काम आता है।
(iii) नारियल में वसा और कॉलेस्ट्रॉल नहीं होता है, इसलिए यह मोटापे से भी निजात दिलाने में मदद करता है।
(iv) साथ ही, त्वचा को स्वस्थ रखने में भी नारियल बहुत उपयोगी है।
(v)इम्यून सिस्टम के लिए नारियल बेहद ही फायदेमंद होता है। इसमें एंटीवायरल, एंटीफंगल, एंटी-बैक्टीरियल और एंटी-पैरासाइटिक गुण होते हैं।
(vi)कच्चा नारियल कैल्शियम और मैगनीस को अवशोषित करने के लिए शरीर की क्षमता में सुधार करता है, जिससे हड्डियों का इलाज होता है।

4. तिल (Sesame).

वानस्पत्तिक नांम - सीसेमम इण्डिकम

कुल (Family) - पेडेलिएसी

उपयोगी भाग(Part use) - बीज (Seed)

तिल (Sesamum indicum) एक पुष्पिय पौधा है। इसकी खेती और इसके बीज का उपयोग हजारों वर्षों से होता आया है। तिल वार्षिक तौर पर 50 से 100 से. मी. तक बढता है। फूल 3 से 5 से.मी. तथा सफेद से बैंगनी रंग के पाये जाते हैं। तिल के बीज अधिकतर सफेद रंग के होते हैं,तिल प्रति वर्ष बोया जानेवाला लगभग एक मीटर ऊँचा एक पौधा जिसकी खेती संसार के प्रायः सभी गरम देशों में तेल के लिये होती है।

तिल का महत्व (Importance of Til) –

(i) तिल में कई तरह के लवण जैसे कैल्श‍ियम, आयरन, मैग्नीशियम, जिंक और सेलेनियम होते हैं जो हृदय की मांसपेशि‍यों को सक्रिय रूप से काम करने में मदद करते हैं|
(ii) तिल में डाइट्री प्रोटीन और एमिनो एसिड होता है जो बच्चों की हड्डियों के विकास को बढ़ावा देता है|
(iii) इसके अलावा यह मांस-पेशियों के लिए भी बहुत फायदेमंद है|
(iv) शरीर में खून की मात्रा को सही बनाए रखने में भी मददगार है तिल।
(v) तिल में मौजूद प्रोटीन पूरे शरीर को भरपूर ताकत और एनर्जी से भर देता है. इससे मेटाबोलिज्म भी अच्छी तरह काम करता है।

5. सूर्यमुखी (Sunflower)

वानस्पतिक नाम - हेलिएन्थस एनस

कुल (Family) - एस्टरेसी

उपयोगी भाग (Part use) - बीज (Seed)

फूल की पंखुड़ियाँ पीले रंग की होतीं हैं और मध्य में भूरे, पीत या नीलोहित या किसी किसी वर्णसंकर पौधे में काला चक्र रहता है। चक्र में ही चिपटे काले बीज रहते हैं। बीज से उत्कृष्ट कोटि का खाद्य तेल प्राप्त होता है और खली मुर्गी को खिलाई जाती है।

सूर्यमुखी के बीज विटामिन ई में समृद्ध होते हैं। ये बीज एंटीऑक्सिडेंट हैं जो मानव शरीर के भीतर मुक्त कणों को फैलने से रोकते हैं।

सूरजमुखी के बीज में मौजूद आयरन आपकी मांसपेशियों को ऑक्सीजन भेजता है, जबकि ज़िंक आपकी प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत करके आपको खांसी और ठंड से बचने में मदद करता है।

सूर्यमुखी का महत्व (Importance ofSunflower) –

(i) सूरजमुखी के बीज में एंटीऑक्सीडेंट, एंटी-इंफ्लेमेटरी के साथ-साथ घाव को भरने का गुण (wound-healing) भी होता है।
(ii) इसमें मौजूद लिगनेन युक्त खाद्य पदार्थ हार्मोन बदलाव से जुड़े कैंसर से बचाव कर सकते हैं, महिलाओं में ब्रेस्ट कैंसर के खतरे में इसके लाभ देखे जा सकते हैं। लिगनेन एक प्रकार के पॉलीफेनोल होते हैं, जो एंटीऑक्सीडेंट की तरह काम करते हैं|
(iii) सूरजमुखी के बीज में आयरन, जिंक, कैल्शियम मौजूद होते हैं, जो हड्डियों को स्वस्थ रखने में मदद कर सकते हैं|
(iv) सूरजमुखी के बीज में कैल्शियम व जिंक जैसे पोषक तत्व होते हैं, जो मस्तिष्क विकास में लाभकारी हो सकते हैं|


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रंग उत्पादक पौधे (Color Producing Plant in Hindi)

रंग उत्पादक पौधे (Color Producing Plants in Hindi)

नमस्कार, answerduniya.com में आपका स्वागत है। इस लेख में हम प्रकृति में पाए जाने विभिन्न रंग उत्पादक पौधे (Color Producing Plant in Hindi) के बारे में जानने वाले हैं। भारत वन सम्पदा से समृद्ध देश है। भारत के वनों में बहुत ही उपयोगी पेड़ पौधे पाए जाते हैं। इस लेख में हम ऐसे ही कुछ महत्वपूर्ण रंग उत्पादक पौधे (Color Producing Plant in Hindi) के बारे में जानेंगे। जिससे जुड़े प्रश्न अनेक परीक्षाओं में पूछे जाते हैं। प्राकृतिक रंग वनस्पति/ पेड़- पौधों से प्राप्त किया जाता है। ऐसे पौधे जिससे रंग प्राप्त किये जाते है ऐसे पौधे को रंग उत्पादक पौधे कहते है। रंग उत्पादक पौधे (Color Producing Plant in Hindi) के बारे में जानने के लिए इस लेख को पूरा अवश्य पढ़ें।

Color Producing Plant in Hindi


Rang Utpadak Paudhe

पौधे के विभिन्न भागों में पाये जाने वाले कुछ प्राकृतिक रंग-

(A) काष्ठ से प्राप्त होने वाले रंग

1.हिमैटाक्सीलीन (Haematoxylin)- हिमैटाक्सीलॉन कम्पेचिएनम  नामक लेग्यूमिनस पौधे के अन्तः काष्ठ से प्राप्त किया जाता है और कोशिकाओं के केन्द्रक के अलावा सिल्क, ऊन और कॉटन के रंगने के काम आता है।

2.सैण्टेलीन (Santalin)- यह रंग लेग्यूमिनोसी कुल के टेरोकर्पन सैण्टेलिन नामक पौधे  के काष्ठ और जड़ से प्राप्त होता है तथा अफ्रीका के लोगों द्वारा त्वचा और कपड़ा रंगने के काम आता है।

3.कत्था (Catechu)-यह लेग्यूमिनोसी कुल के एकैसिया कटेचू नामक पौधे के अन्तः काष्ठ सी प्राप्त किया जाता है, यह कागज रंगने के काम आता है। यह पान के साथ भी खाया जाता है।

जानें- पर्यावरण के महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तरी [2022]

(B) पत्तियों से प्राप्त होने वाले रंग

1.नील (Indigo)- यह रंग लेग्यूमिनोसी कुल के इण्डिगोफेरा टिन्क्टोरिया और इण्डिगोफेरा अरेका की पत्तियों से प्राप्त होता है और सूती रेयॉन तथा ऊनी कपड़ों के रंगने के काम आता है। यह इंक, पेण्ट इत्यादि में भी प्रयोग किया जाता है। इस पौधे की खेती किया जाता है।

2.वोड (Woad)- यह रंग इसेटिस टिन्क्टोरिया की पत्तियों से प्राप्त किया जाता है, और सूती रेयॉन तथा ऊनी कपड़ों के रंगने के काम आता है। यह इंक, पेण्ट इत्यादि में भी प्रयोग किया जाता है।

3.मेंहदी (Henna)- यह लाइथ्रेसी कुल के पौधे लाउसोनिया एल्बा की पत्तियों से प्राप्त लिया जाता है। यह बच्चों तथा औरतों द्वारा हाथ, पैर और अंगुलियों के रंगने के काम आता है।

(C)जड़ या कन्द से प्राप्त होने वाले पौधे

1.गुलाब मदार (Rose madder)- रुबिया टिन्क्टोरियम और रुबिया कार्डिफोलिआ की जड़ों से एक प्रकार का लाल रंग प्राप्त होता है जो कपड़ा रंगने काम आता है।

2. इंडिया मलबेरी( Indian mulberry)- रुबिएसी कुल के मोरिण्डा साइट्रीफोलिया के जड़ों की छाल से एक प्रकार का पीला रंग होता है, जो कपड़ा तथा कागज रंगने के काम आता है इसे ग्रेट मोरिण्डा, नोनी, बीच मलबेरी चीस फल के नाम से जाना जाता है।

3.हल्दी (Curcumin)- यह जिन्जीबरेसी कुल की कुरकुमा लोन्गा पौधे के कन्द से प्राप्त किया जाता है तथा खाने के सामानों तथा सभी कपड़ा रंगने के काम आता है।

पढ़ें- वन पारिस्थितिक तंत्र।

(D)कुछ अन्य महत्वपूर्ण से प्राप्त होने वाले रंग

1. कुसुम (Carthamus tinctorius)- कुसुम के पुष्प से लाल रंग प्राप्त किया जाता है और केक आदि रंगने के काम आता है।

2.केसर (Crocus sativus)- केशर के पुष्प से रंग प्राप्त किया जाता है, जो कपड़ा, बिस्कुट, चावल तथा सब्जियों को रंगीन तथा स्वादिष्ट बनाने के काम आता है।

3.टर्मिनेलिया चेबुला- इस पौधे  के फल से पीला तथा काला रंग प्राप्त किया जाता है।

4.बिक्सा ऑरेलाना- इस पौधे  के बीज से चमकीला पीला रंग प्राप्त होता है, जो मक्खन, घी आदि को रंगने के काम आता है।

5.लाइकेन (Laiken)- प्रेमेलिया एम्फोलोडस से कपड़ा रंगने तथा लाइकेन रोसेला से लिटमस रंगने का रंग प्राप्त किया जाता है।

इस लेख में हमने कुछ महत्वपूर्ण रंग उत्पादक पौधे (Color Producing Plant in Hindi) के बारे में जाना। विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में महत्वपूर्ण रंग उत्पादक पौधे (Color Producing Plant in Hindi) से जुड़े सवाल पूछे जाते रहे हैं।

आशा करता हूँ कि महत्वपूर्ण रंग उत्पादक पौधे (Color Producing Plant in Hindi) का यह लेख आपके लिये लाभकारी साबित होगा, यदि आपको यह लेख पसंद आये तो इस लेख को शेयर अवश्य करें।


पुष्पक्रम के सारे प्रकार की जानकारी | Types of Inflorescences in Hindi

आपने अगर ध्यान से फूल के पौधे (flower plants) को देखा होगा तो आपको समझ आएगा की फूल के पौधे में फूल एक जैसे क्रम में नहीं लगे होते हैं। फूल या पुष्प के पौधे में लगने के इसी क्रम को वैज्ञानिकों ने कुछ अलग-अलग भागों या प्रकारों (Types) में बांटा है। जिसके बारे में इस पोस्ट में सारी जानकारी दी गयी है।

पुष्पक्रम (Inflorescence): पेड़ या पौधे में पुष्पों या फूलों के लगने के क्रम कोपुष्पक्रम(Inflorescence) कहा जाता है।

पुष्पक्रम के प्रकार | Types of Inflorescences and Technical Terms in Hindi

पुष्पक्रम एवं उसके प्रकारों से सम्बन्धित तकनीकी शब्द (Technical Terms Related to Inflorescence and Their Types)

Types of Inflorescences in Hindi

पुष्पक्रम के प्रकार (Types of Inflorescences in Hindi)

पुष्पक्रम के चार प्रकार होते है: -

1. असीमाक्षी पुष्पक्रम (Racemose Inflorescence)-

पुष्पीय अक्ष की वृद्धि अनिश्चित प्रकार की होती है तथा उस पर पुष्पों के लगने का क्रम अग्राभिसारी (Acropetal) होता है। ये निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-

Racemose inflorescence in hindi

(i) असीमाक्ष (Raceme)–

पुष्पीय अक्ष पतला, लम्बा तथा सवृन्ती पुष्पों वाला । उदाहरण -मूली (Raphanus), सरसों (Mustard)।
शूकी (Spike) –

पुष्पीय अक्ष लम्बा, पतला तथा अवृन्ती पुष्पों वाला । उदाहरण-चिड़चिड़ी (Achyranthes) \

(ii) मंजरी (Catkin)

पुष्पीय अक्ष लम्बा तथा झूलता हुआ (Pendulous) एवं एकलिंगी पुष्पों वाला होता है। उदाहरण-शहतूत (Mulberry)।

(iii) शूकिका (Spikelet)-

पुष्पीय अक्ष लम्बा, पतला तथा उसके प्रत्येक पुष्प उत्पत्ति स्थान से छोटे-छोटे शूकी पुष्पों का समूह जो कि पेलिया (Palaca), लेम्मा (Lemma) युक्त । प्रत्येक समूह विशेष बन्ध्य ग्लूम (Sterile glume) से घिरा हुआ। उदाहरण-ग्रैमिनी (Gramineae) कुल के पुष्पक्रम।

(iv) समशिख (Corymb)–

पुष्पीय अक्ष छोटा, सभी पुष्प एक रेखा (Single plane) में लगे हुए तथा पुष्पों के वृन्तों (Pedicels) की लम्बाई असमान होती है। उदाहरण – चाँदनी (Iberis)।

(v) छत्रक (Umbel) -

पुष्पीय अक्ष छोटा, सभी पुष्प एक ही रेखा में लगे, पुष्पा के वृन्तों की लम्बाई समान होती है। उदाहरण-अम्बेलीफेरी (Umbelliferae) कुल के पुष्पक्रम।

(vi) मुण्डक (Capitulum)-

पुष्पीय अक्ष चपटा होता है। नीचे की ओर अनेक सहपत्रों का समूह होता है, परन्तु ऊपर अनेक छोटे-छोटे पुष्पक (Florets) लगे होते हैं। ये रश्मि पुष्पक (Ray florets) एवं बिम्ब पुष्पक (Disc florets) के रूप में विभेदित हो सकते हैं । उदाहरण - कम्पोजिटी (Compositae) कुल के पुष्पक्रम ।

(vii) स्थूल मंजरी (Spadix) -

पुष्पीय अक्ष लम्बा, मोटा तथा मांसल । पुष्पों का समूह एक या अनेक बड़े आकृति वाले रंगीन पत्ती की तरह के सहपत्र (Spathe) से ढँके होते हैं। उदाहरण- केला (Musa), कोलोकेशिया (Colocasia)।

2. ससीमाक्षी पुष्पक्रम (Cymose Inflorescence) -

पुष्पीय अक्ष निश्चित वृद्धि वाला तथा उससे लगे रहने वाले पुष्पों का क्रम पश्चाभिसारी (Basipetal) । शीर्षस्थ कलिका (Apical bud) या कक्षस्थ कलिका (Axillary bud) एक पुष्पीय शाखा में परिणत होकर पुष्प में समाप्त हो जाता है तथा क्रमिक पुष्पीय शाखाओं का निर्माण न हो पाता हो तो उसे क्रमश : एकल शीर्षस्थ (Solitary terminal) एवं एकल कक्षस्थ (Solitary axillary) कहा जाता है।

Cymose inflorescence in hindi

(i) एकशाखी ससीमाक्ष (Monochasial or Uniparous cyme ) – 

निश्चित वृद्धि वाले मुख्य पुष्पीय अक्ष से निकलने वाली क्रमिक पुष्पीय शाखाएँ एक-एक के क्रम में सभी क्रमिक पुष्पीय शाखाएँ केवल दायीं या बायीं दिशा में परिवर्द्धित होती हों तो उसे कुण्डलाकार एकशाखी ससीमाक्ष (Helicoid uniparous cyme) जैसे-जंकस (Juncus) में और अगर एकान्तर क्रम में विकसित होती हों, तो उसे वृश्चिकी एकशाखी ससीमाक्ष (Scorpioid uniparous cyme) कहा जाता है। उदाहरण- रैननकुलस (Ranunculus)।

(ii) युग्मशाखी ससीमाक्ष (Dichasial or Biparous cyme) - 

निश्चित वृद्धि वाले मुख्य पुष्पीय अक्ष से दो-दो के क्रम में क्रमिक पुष्पीय शाखाओं (Successive floral branches) का विकास । उदाहरण - बोगेनविलिया (Bougainvillea), सागौन (Teak), इक्जोरा (Ixora) । -

(iii) बहुशाखी ससीमाक्ष (Polychasial or Multiparous cyme) – 

निश्चित वृद्धि वाले मुख्य पुष्पीय शाखा से एक समय में दो से अधिक क्रमिक पुष्पीय शाखाओं का विकास । उदाहरण मदार (Calotropis), काका टुण्डी (Asclepias)।

3. संयुक्त पुष्पक्रम (Compound Inflorescence)-

मुख्य पुष्पीय अक्ष से कोई पुष्प लगा नहीं रहता बल्कि यह शाखित होता है। शाखा से लगे पुष्पों के क्रम के अनुसार इसके प्रकार निर्धारित किये जाते हैं-

Compound inflorescence in hindi

(i) संयुक्त ससीमाक्ष या पैनिकल (Compound raceme or Panicle)-

प्रत्येक शाखा से ससीमाक्ष (Raceme) क्रम में पुष्प । उदाहरण- गुलमोहर (Delonix) ।

(ii) संयुक्त शूकी (Compound spike) - 

प्रत्येक शाखा से शूकी की तरह पुष्प उदा.- गेहूं (Wheat)।

(iii) संयुक्त छत्रक (Compound umbel)-

प्रत्येक शाखा से छत्रक (Umbel) के क्रम में पुष्पों का विन्यासित होना। उदाहरण – धनिया (Coriander)।

(vi) संयुक्त समशिख (Compound corymb)-

प्रत्येक शाखा से समशिख क्रम में पुष्प लगे हुए। उदाहरण- पाइरस (Pyrus) ।

4. विशिष्ट पुष्पक्रम (Specialised Inflorescence) -

ससीमाक्षी या असीमाक्षी पुष्पक्रम में स्पष्टतः विभेदन नहीं या दोनों के सम्मिश्रित लक्षण या पुष्पीय अक्ष या पुष्पीय भागों का विशिष्ट रूप में रूपान्तरण।

Specialised Inflorescence in hindi

(i) कटोरिया (Cyathium) - 

सहपत्र चक्र (Involucre) संयुक्त रूप से प्यालेनुमा आकृति के रूप में परिवर्तित। केन्द्र में एक सवृन्ती मादा पुष्प तथा परिधि की ओर अनेक सवृन्ती नर पुष्पों की उपस्थिति । उदाहरण- यूफोर्बिया (Euphorbia)।

(ii) उदुम्बरक (Hypanthodium) - 

पुष्पीय अक्ष रूपान्तरित होकर मांसल, खोखले एक छिद्रयुक्त (Ostiolate) रचना के रूप में । आन्तरिक गुहा (Internal cavity) के आधार में अनेक मादा पुष्पों (Female flowers) तथा शीर्ष क्षेत्र में अनेक नर पुष्पों (Male flowers) की उपस्थिति। उदाहरण-अंजीर (Fig), बरगद (Banyan) ।

(iii) कुटचक्रक (Verticillaster) - 

पुष्पीय अक्ष असीमाक्षी प्रकार का होता है, लेकिन प्रत्येक पर्वसन्धि से पहले युग्मशाखी सीमाक्ष (Dichasial cyme) तथा उसके बाद एकशाखी वृश्चिकी सीमाक्ष क्रमों में क्रमिक पुष्प विकसित होते हैं।

उदाहरण-लेबिएटी (Labiatae) कुल के पुष्पक्रम।

जीवों में जनन - पारिभाषिक शब्दावली (Reproduction in Organisms -Terminology)

जीवों में जनन-पारिभाषिक शब्दावली(Reproduction in Organisms Terminology)

नमस्कार, answerduniya.com में आपका स्वागत है। इस लेख में हम जीवों में जनन - पारिभाषिक शब्दावली(Reproduction in Organisms -Terminology) के बारे में जानने वाले हैं। जीवों में जनन एक महत्वपूर्ण टॉपिक है । जीव की उत्पति किसी पूर्ववर्ती जीव से होती है। जनन के द्वारा कोई भी जीव अपने ही समान अन्य जीवों को जन्म देकर अपने जाति  की वृद्धि करता है। इस लेख में इसी जनन विषय से जुड़े शब्दों के पारिभाषिक शब्दावली और पारिभाषिक शब्दावली में उनके साथ उसके अर्थ भी दिए गए है।

Reproduction in Organisms -Terminology

Jivo me Janan Paribhashik Shabdawali

1. बाह्यदल पुंज (Calyx) - बाह्यदलों का समूह नाम।

2. अण्डप (Carpel) - जायांग / स्त्रीकेसर का बीजाण्ड धारण करने वाला भाग, अण्डाशय, वर्तिका व वर्तिकाग्र से मिलकर बनता है।

3. कोशिकीय भिन्नन (Cellular differentiation) -भ्रूणोद्भव प्रक्रिया व विकास की प्रावस्था जिसके द्वारा अभिन्नित कोशिका किसी कार्य विशेष हेतु विशिष्टीकृत हो जाती है।

4. कोनिडिया (Conidia) - कुछ कवकों जैसे पेनिसीलियम द्वारा बहिर्जात (Exogenously) बनाए जाने वाले अलैंगिक बीजाणु।

5. दलपुंज (Corolla) -दल (Petals) का सामूहिक नाम।

6. क्रोसिंग ओवर (Crossing over) - अर्धसूत्री विभाजन की अवस्था प्रोफेज को पेकीटीन अवस्था में समजात गुणसूत्र जोड़े के नान सिस्टर अर्धगुणसूत्र (क्रोमेटिड्स) के जीव होने वाला जीन विनिमय।

7. एकलिंगाश्रयी (Dioecious) - एक लिंगी पुष्पों शंकुओं को धारण करने वाले पौधा अर्थात् नर व मादा पौधों के अलग-अलग पाये जाने की अवस्था।

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8. द्विगुणित (Dioploid) - कोशिका / जीव जिसमें प्रत्येक गुणसूत्र युग्म के दोनों गुणसूत्र उपस्थित हो।

9. भ्रूण (Embryo) - बहुकोशिकीय जीवों की वह अवस्था जो युग्मनज के विभाजन से जीव के स्वतंत्र जीव बनने तक रहती है (बीज में स्थित भ्रूण)।

10. भ्रूणकोष (Embryo sac ) -पुष्पी पादपों का मादा युग्मकोद्भिद जिसमें अण्ड स्थित होता है।

11. एन्ड्रोमेट्रियम (Endrometrium)- गर्भाशय का आन्तरिक स्तर (गर्भाशय की श्लेष्मिक कला) |

12. जैव विकास (Evolution) -समान पूर्वजों से जीवों का अवतरण जिसमें समय के साथ आनुवंशिक व बाह्य लक्षण परिवर्तन होते हैं जो जीवों को पर्यावरण के और अधिक अनुकूल बना देते हैं।

13. मादा युग्मकोद्भिद (Female gametophyte) - बीजीय पादपों में वह युग्मकोद्भिद जो अण्ड बनाता है, पुष्पी पादपों में भ्रूणकोष।

14. निषेचन (Fertilization) - नर व मादा युग्मकों का संलयन जिससे युग्मनज का निर्माण होता है।

15. पुष्प (Flower) - पुष्पी पादपों का जनन अंग जो अनेक प्रकार की रूपान्तरित पत्तियों से बना होता है, जो एक पुष्पासन पर संकेन्द्रिक क्रम में लगी रहती है।

16. युग्मक (Gamete) -अगुणित लैंगिक कोशिका जैसे शुक्राणु व अण्ड।

17. युग्मक जनन (Gametogenesis) - नर या मादा युग्मकों का बनना व भिन्नता।

18. युग्मकोद्भिद (Gametophyte) - पौधों के जीवन चक्र में पीढ़ी एकान्तरण की अगुणित अवस्था जो युग्मकों का निर्माण करती है।

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19. आनुवंशिक पुनर्संयोजन (Genetic Recombina tion) - वह प्रक्रिया जिसमें गुणसूत्रों में नई आनुवंशिक सूचना समाहित होती है।

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20. अगुणित (Haploid) - कोशिका जीव की वह अवस्था जिसमें प्रत्येक गुणसूत्र जोड़े का केवल एक गुणसूत्र उपस्थित होता है।

21. द्विलिंगी (Hermaphrodite) - मादा दोनों प्रकार के जनन अंग होते हैं।

22. जीवन चक्र (Life cycle)- जीव जिसमें नर व आनुवंशिक रूप से नियोजित परिघटनाओं के दोहराने का पैटर्न जिसमें जीव वृद्धि, विकास, रखरखाव व प्रजनन कर मृत्यु को प्राप्त होता है।

23. नर युग्मकोद्भिद (Male gametophyte) - बीजीय पादपों में वह युग्मकोद्भिद जो नर युग्मक (शुक्राणु) बनाता है।

24. अर्धसूत्री विभाजन (Meiosis) - लैंगिक प्रजनन के भाग के रूप में पाया जाने वाला कोशिका विभाजन जिसमें संतति कोशिकाओं में गुणसूत्रों की संख्या मातृ कोशिका के गुणसूत्रों की संख्या की आधी रह जाती है।

25. सूत्री विभाजन (Mitosis) - कोशिका विभाजन जिसमें मातृ कोशिका के विभाजन से दो संतति कोशिकाएँ बनती है। जिनमें गुणसूत्रों की संख्या व प्रकार मातृ कोशिका के गुणसूत्रों के समान होता है।

26. उभयलिंगाश्रयी (Monoecious) - एकलिंगी नर व मादा पुष्पों / शंकु की एक ही पौधे पर उपस्थित होने की अवस्था।

27. मादा चक्र (Oestrous cycle) - गैर प्राइमेट स्तनधारियों के प्रजनन काल में मादा जन्तु के एकान्तरित रूप से मद या हीट (Heat) में आने की अवस्था जिसमें वह प्रजनन हेतु तैयार होती है।

28. अनुकूलन (Adaptation) - जीव के आकारिकीय, शारीरिक, शरीर क्रियात्मक या व्यवहार सम्बन्धी गुण जो उसे किसी पर्यावरण विशेष में सफलतापूर्वक जीवन यापन हेतु सक्षम बनाते हैं।

29. अपस्थानिक जड़ें (Adventitious roots) - पौधों में मूलांकुर के अतिरिक्त किसी अन्य भाग से विकसित होने वाली जड़ें।

30. पीढ़ी एकान्तरण (Alternation of generation) - पौधों का प्रारूपिक जीवन-चक्र जिसमें द्विगुणित बीजाणुद्भिद पीढ़ी अगुणित युग्मकोद्भिद पीढ़ी से एकान्तरित होती है।

31. अलैंगिक जनन - (Asexual reproduction) - वह जनन जिसमें एक जनक भाग लेता है तथा जिसमें युग्मकों का निर्माण, अर्धसूत्री विभाजन पीढ़ी से एकान्तरित होती है।

32. द्विविभाजन (Binary fission) - जनक कोशिका का दो बराबर की संतति कोशिकाओं में बट जाना। जीवाणु प्रोटिस्टा में अलैंगिक जनन की विधि।

इस लेख में हमने जीवों में जनन - पारिभाषिक शब्दावली(Reproduction in Organisms -Terminology) के बारे में जाना। विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में जीवों में जनन से सम्बंधित जानकारी के बारे में पूछा जाता है।

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