सहसंयोजकता बंध सिद्धांत (Sahsanyojakata bandh siddhant)

इस लेख में हम सहसंयोजकता बंध सिद्धांत (Sahsanyojakata bandh siddhant)  के बारे में जानने वाले हैं। रसायन विज्ञान का यह एक महत्वपूर्ण टॉपिक है जिससे सम्बंधित प्रश्न अक्सर ऊच्चतर माध्यमिक की परीक्षाओं में पूछे जाते रहते हैं और सहसंयोजकता बंध सिद्धांत (Sahsanyojakata bandh siddhant)  से जुड़े प्रश्न विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए भी महत्वपूर्ण है। 

सहसंयोजकता बंध सिद्धांत (Sahsanyojakata bandh siddhant)

सहसंयोजकता (Sahsanyojakata bandh siddhant) 

सहसंयोजकता- तत्वों के परमाणु अपने कुछ इलेक्ट्रॉनों का स्वयं के अन्य परमाणु या अन्य तत्व के परमाणु के इलेक्ट्रॉनों के साथ संयोजन कर अणु बनाते हैं। संयोग करने वाले परमाणुओं के मध्य परस्पर आकर्षण के कारण रासायनिक बन्ध बनता है और अणु को स्थायी विन्यास प्राप्त होता है। यह संयोजन उन परमाणुओं के इलेक्ट्रॉनों की परस्पर साझेदारी द्वारा सम्पन्न होता है। दोनों परमाणु समान संख्या में इलेक्ट्रॉन देकर उभयनिष्ठ इलेक्ट्रॉन युग्म बनाते हैं। यह प्रक्रिया सहसंयोजकता कहलाती है।

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संयोजकता वन्ध सिद्धान्त (Valence Bond Theory)

इसे परमाणु कक्षक सिद्धान्त (Atomic Orbital Theory) भी कहते हैं। इसे पहले हिटलर और लन्दन (Heitler and London) द्वारा प्रस्तावित किया गया, जिसमें सहसंयोजक बन्ध की प्रकृति को समझाया गया है। इस धारणा को अधिक विकसित कर पॉलिंग और स्लेटर (Pauling and Slater) ने सहसंयोजक बन्ध की दिशात्मक प्रवृत्ति को स्पष्ट किया। सिद्धान्तों का इस प्रकार मिला-जुला और सम्बन्धित रूप संयोजकता बन्ध सिद्धान्त' कहलाता है। इस सिद्धान्त की व्याख्या परमाणु कक्षकों के रेखीय संयोजन (Linear Combination of Atomic Orbitals or LCAO) के आधार पर की जाती है।

(अ) हिटलर-लन्दन सिद्धान्त- दो विपरीत चक्रण वाले (भिन्न परमाणु) अयुग्मित इलेक्ट्रॉन कक्षक एक-दूसरे से अतिव्यापन द्वारा बन्ध बनाते हैं। विपरीत चक्रण के कारण वे एक-दूसरे के चुम्बकीय क्षेत्र को निरस्त कर आपसी आकर्षण द्वारा इलेक्ट्रॉन युग्म बना लेते हैं। ये इलेक्ट्रॉन युग्म दोनों परमाणु नाभिकों से संबंधित रहते हैं। अतिव्यापन के कारण अधिकतम इलेक्ट्रॉन घनत्व दोनों नाभिकों के बीच में बनता है, जो दोनों नाभिकों को आकर्षण द्वारा वाँधे रखता है।

इस सिद्धान्त में बन्ध के दिशात्मक लक्षणों पर कोई टिप्पणी नहीं की गई है।

(ब) पॉलिंग-स्लेटर का सिद्धान्त- यह सिद्धान्त सन् 1932 में लीनस पॉलिंग तथा स्लेटर द्वारा दिया गया। इसे संयोजकता बन्ध सिद्धान्त कहते हैं। इसके अनुसार-

(1) दो परमाणुओं के बीच सहसंयोजक बन्ध का निर्माण उनके कक्षकों (Orbitals) के अतिव्यापन से होता है।

(2) बन्ध बनाने वाले परमाणुओं के बाह्य कक्षक में विपरीत चक्रण वाले इलेक्ट्रॉन रहते हैं। किसी परमाणु द्वारा बनाये गये सहसंयोजक बन्ध की संख्या, उसमें पाये जाने वाले अयुग्मित इलेक्ट्रॉनों की संख्या के बराबर होती है।

(3) अतिव्यापन के बाद अधिकतम इलेक्ट्रॉन घनत्व दोनों परमाणुओं के बीच रहता है। यह इलेक्ट्रॉन घनत्व ही दोनों नाभिकों को आकर्षण द्वारा बाँधे रखता है।

(4) सहसंयोजी बन्ध की शक्ति (Strength) अतिव्यापन में भाग लेने वाले दोनों परमाणु कक्षकों के अतिव्यापन के समानुपाती होती है।

(5) s- कक्षक चारों दिशाओं में बन्ध बना सकता है, किन्तु p. d और f-कक्षक केवल उन्हीं दिशाओं में बन्ध बनाते हैं, जिन अक्षों पर वे पहले से स्थित होते हैं।

(6) समाक्ष (Co-axial) अतिव्यापन से सिग्मा (G) बन्ध तथा पाश्र्वीय (Sidewise) अतिव्यापन से पाई (ग) वन्ध बनता है।

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संयोजकता वन्ध सिद्धान्त की सीमाएँ

सहसंयोजक बन्ध के इस पॉलिंग-स्लेटर सिद्धान्त से सहसंयोजक बन्ध की दिशा निर्धारित होकर पूर्व में अनुत्तरित कई प्रश्नों का समाधान हो जाता है। अतः यह सिद्धान्त व्यापक रूप से प्रयुक्त होता है, फिर भी इस सिद्धान्त में कुछ कमियाँ हैं। जैसे-

(i) उप-सहसंयोजक वन्ध (co-ordinate bond) बनना इस सिद्धान्त में निहित नहीं है। इस बन्ध निर्माण में इलेक्ट्रॉन युग्म, जो किसी एक परमाणु द्वारा ही दिया जाना चाहिए, आवश्यक है।

(ii) सहसंयोजक बन्ध के आयनिक गुण संयोजकता वन्ध सिद्धान्त से समझाये नहीं जा सकते।

(iii) संयोजकता वन्ध सिद्धान्त के अनुसार, अणु निर्माण के बाद अयुग्मित इलेक्ट्रॉन रहने की कोई सम्भावना नहीं है, क्योंकि विपरीत चक्रण युक्त इलेक्ट्रॉनों का युग्मन ही बन्ध निर्माण की अनिवार्यता है। इसके बाद भी O, अणु अनुचुम्बकीय गुण प्रदर्शित करता है तथा उसमें 2 अयुग्मित इलेक्ट्रॉन पाये जाते हैं, यह इस सिद्धान्त से स्पष्ट नहीं हो पाता है।

(iv) अनुनादी संकर जैसी संरचनाएँ संयोजकता बन्ध सिद्धान्त के द्वारा स्पष्ट नहीं है, जबकि रासायनिक गुणों को स्पष्ट करने हेतु अनुनादी संकर संरचना की आवश्यकता होती है तथा वर्तमान स्पेक्ट्रम व नवीनतम तकनीकी से अनुनादी संरचनाओं की उपस्थिति प्रमाणित होती है।

(v) इस सिद्धान्त के द्वारा H,* जैसे आयनों के बनने को नहीं समझाया जा सकता है।

(vi) यह सिद्धान्त इलेक्ट्रॉन न्यून यौगिकों, धातुओं तथा अधात्विक यौगिकों में बन्धन को स्पष्ट करने में असमर्थ है।

हाइड्रोजन अणु (H) का बनना

दो हाइड्रोजन परमाणुओं के मध्य ऽ-कक्षकों के अतिव्यापन से सहसंयोजक बन्ध बनकर H2 अणु बनता है। हाइड्रोजन परमाणु में 1s-कक्षक में एक इलेक्ट्रॉन होता है। दो परमाणुओं के कक्षक, अतिव्यापन करने से निकट आते हैं। उनकी स्थितिज ऊर्जा न्यूनतम हो जाने की स्थिति पर स्थायित्व आकर अणु बनता है। नाभिक इस सीमा में हटकर और पास-पास नहीं आ सकते क्योंकि तब नाभिकों के मध्य प्रतिकर्षण होने लगेगा। स्थायित्व की इस स्थिति में न्यूनतम ऊर्जा का मान बन्ध ऊर्जा। और नाभिकों के बीच की दूरी बन्ध लम्बाई कहलाती है, जो क्रमश: 103-2 किलो कैलोरी प्रति ग्राम अणु तथा 0-74A होती है। यह बन्ध 5-5 अतिव्यापन से बनता है और सिग्मा (6) बन्ध कहलाता है।

होटलर- लन्दन- सिद्धान्त के द्वारा समध्रुवीय (Homopolar) जैसे-H, का बनना भली-भाँति समझाया जा सकता है। यदि दो समान परमाणुओं (जैसे-H परमाणु) की अन्योन्य क्रिया ऊर्जा (interaction energy) को कई पदों में ज्ञात की जाये, तो यह मालूम होता है कि अत्यधिक दूरी पर संयोग नहीं होता और अत्यधिक निकट होने पर धनात्मक आवेश वाले दोनों हाइड्रोजन नाभिकों के पास होने पर प्रतिकर्षण बल उत्पन्न हो जाता है।  दो समान इलेक्ट्रॉनिक चक्रण वाले हाइड्रोजन परमाणुओं को पास लाने पर जो-जो ऊर्जा परिवर्तन होते हैं, वे वक्र में तथा असमान इलेक्ट्रॉनिक चक्रण वाले दो हाइड्रोजन परमाणुओं को पास लाने पर ऊर्जा परिवर्तन वक्र 2 में दर्शाये गये हैं। वक्रों से स्पष्ट है कि जब असमान चक्रण वाले हाइड्रोजन Y परमाणु पास आवे हैं, तो उनकी ऊर्जा में कमी होती है तथा यदि परमाणुओं के बीच की दूरी और भी कम की जाये, तो यह ऊर्जा पुनः बढ़ने लगती है। अतः यह स्पष्ट है कि परमाणुओं के मध्य एक निश्चित दूरी पर हो यह ऊर्जा न्यूनतम होती है।

हाइड्रोजन अणु की विघटन ऊर्जा (dissociation energy) 103.2 कि कैलोरी होती है। इससे यह भी स्पष्ट है कि दो परमाणुओं के बीच जब बन्ध बनता है (H2 अणु बनने में) तो इतनी हो ऊर्जा निकलती है, जिसका अर्थ है कि दो अलग- अलग परमाणुओं की सम्पूर्ण स्थितिज ऊर्जा की अपेक्षा हाइड्रोजन अणु की सम्पूर्ण स्थितिज ऊर्जा न्यून (low) होती है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि H2

Valence Bond Theory


अणु के बनने में ऊर्जा की कमी होती है। वक्र 2 का निम्निष्ठ (minima) यह प्रदर्शित करता है कि जब विपरीत इलेक्ट्रॉन चक्रण वाले दो हाइड्रोजन परमाणुओं को एक निश्चित दूरी तक पास लाया जाता है, तो उनके बीच बन्ध बनना सम्भव है।

इस लेख में हमने सहसंयोजकता बंध सिद्धांत (Sahsanyojakata bandh siddhant)  के बारे में जाना। जो परीक्षा की तैयारी के लिए महत्वपूर्ण टॉपिक है।

उम्मीद करता हूँ कि सहसंयोजकता बंध सिद्धांत (Sahsanyojakata bandh siddhant)  का यह लेख आपके लिए उपयोगी साबित होगा , अगर आपको यह लेख अच्छा लगा हो तो इस लेख को शेयर अवश्य करें।

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