मशरूम की खेती (Mushroom ki Kheti in Hindi)

इस आर्टिकल में हम मशरूम की खेती (Mushroom ki Kheti in Hindi) के बारे में जानेंगे। क्या आपको मशरूम की सब्जी अच्छी लगती है। क्या आपको पता है ये मशरूम कैसी उत्पादित की जाती है। यदि आप नहीं जानते तो इस आर्टिकल को पूरा जरुर पढ़ें , आपको मशरूम की खेती की पूरी जानकारी मिल जाएगी। 

मशरूम की खेती (Mushroom ki Kheti in Hindi)


मशरूम की खेती (Mushroom ki Kheti in Hindi)

भारत में मशरूम की खेती का विस्तार तीव्र गति से हो रहा है। विशेषरूप से हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु एवं उत्तर प्रदेश समेत कुछ अन्य राज्यों में मशरूम उत्पादन में प्रतिवर्ष उल्लेखनीय वृद्धि हो रही है।

1.पैरा अथवा पैडी स्ट्रॉ मशरूम की खेती (Cultivation of Paddy Straw Mushroom-Volvariella sp.)

बेड निर्माण तथा फसल उगाना (Bed preparation and cropping)-

हमारे छत्तीसगढ़ प्रदेश के लिए धान एक प्रमुख फसल है। अतः यहाँ धान का पैरा आसानी से उपलब्ध रहता है। पैरा का उपयोग बेड निर्माण में किया जाता है। सर्वप्रथम हाथ से काटे गये 3-4 फीट लम्बे, शुष्क तथा निरोगी पैडी स्ट्रॉ के बण्डल बनाये जाते हैं। एक बेड के निर्माण हेतु ऐसे 32 बण्डलों की आवश्यकता होती है तथा प्रत्येक बण्डल में एक से डेढ़ किलोग्राम पैरा होता है। इन बण्डलों को जल (Water) में 8-16 घण्टों तक डुबोकर (Soaked) रखा जाता है। तत्पश्चात् इन्हें बाहर निकालकर स्वच्छ पानी से धोया जाता है। अन्त में बण्डलों को लटकाकर अतिरिक्त पानी निकाल दिया जाता है।

पैरा नहीं बदलें अब पैडी स्ट्रॉ के बण्डलों को एक के ऊपर एक चार स्तरों (Four layers) में रखा जाता है। प्रत्येक स्तर में 8 बण्डल होते हैं। अब स्पॉन बॉटल (Spawn bottle) को खोलकर काँच की छड़ से हिलाकर स्पॉन को बेड के प्रत्येक स्तर के किनारों से 10 सेमी. की दूरी पर छिड़क दिया जाता है। यह छिड़काव (Sprinkling) 23 सेमी. सतत् भीतर की ओर किया जाता है। छिड़के हुए स्पॉन (Spawn) पर बेसन (पिसी लुई चने की दाल) को पतली पर्त छिड़क दी जाती है। इसी प्रकार दूसरी, तीसरी तथा चौथी लेयर का निर्माण किया जाता है। चौथे स्तर के निर्माण में थोड़ा-सा अन्तर होता है। चौथे स्तर में स्पॉन (Spawn) का छिड़काव समूची सतह पर एक समान किया जाता है जबकि अन्य स्तरों पर यह किनारों पर अधिक होता हैं।

बेड्स पर गर्म दिनों में 2-3 बार जल का छिड़काव किया जाता है। वर्षा काल में भी एकाध बार जल का छिड़काव आवश्यक है। यदि आवश्यक हो तो 0.1% मेलेथियॉन (Melathion) तथा 0.2% डाइइथेन Z.-78 (Dicthane Z-78) का छिड़काव किया जाता है। इस छिड़काव से कोटों (Insects), पेस्ट्स (Pests) तथा अन्य रोगों से बेड की रक्षा होती है।

कटाई तथा विपणन (Harvesting and Marketing)-

स्पॉनिंग (Spawning) 10-12 दिनों बाद फसल उगने लगती है। मशरूम की कटाई (Harvesting) सामान्यत: बटन स्टेज (Button stage) या फिर कप के फुटने (Rupturing) के तुरन्त बाद की जाती है। फसल को निकालने के 8 घण्टों के भीतर मशरूम का उपयोग कर लेना चाहिए या फिर इन्हें 10-15°C तापमान पर 24 घण्टों तक रख देना चाहिए अन्यथा ये नष्ट हो जाते हैं। इन्हें फ्रिज में एक सप्ताह तक रखा जा सकता है।

ताजा मशरूम को धूप में या फिर ओवन (Oven) में 55° से 60°C तापमान पर 8 घण्टों तक रखकर सूखाया जाता है। सूखने के बाद इन्हें पैक (Packed) कर सील कर दिया जाता है ताकि ये नमी (Moisture) न सोख सकें। मशरूम की पैकिंग प्राय: बटन स्टेज में करना उपयुक्त होता है। आमतौर पर प्रति बेड 3-4 किलोग्राम मशरूम की प्राप्ति की जा सकती है।

2. धींगरी की खेती (Cultivation of Pleurotus sp.)

अधोस्तर का चुनाव (Choice of substratum)- 

प्लूरोटस के खेती के लिए कटे हुए पैडी स्ट्रॉ (Chopped paddy straw) सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। अन्य पदार्थों में मकई की बाल (Maize cob), गेहूँ स्ट्रॉ (Wheat straw), रॉइ स्ट्रॉ (Rye straw), शुष्क घास (Dried grasses) कम्पोस्ट तथा लकड़ी के लट्ठे (Wooden logs) इत्यादि इस्तेमाल किये जा सकते हैं। बेड निर्माण तथा फसल उगाना (Bed preparation and Cropping)-कटे हुए पैडी स्ट्रॉ को 8-12 घण्टे तक पानी के टंकी (Water tank) में डुबोकर रखा जाता है। स्ट्रॉ को बाहर निकालकर स्वच्छ पानी से धोकर, अतिरिक्त पानी निकाल दिया जाता है। अब अधोस्तर (Substratum) को लकड़ी की ट्रे (1×1/2x1/4 मीटर) में रखा जाता है। पूरी ट्रे पर स्पॉन (Spawn) का छिड़काव किया जाता है। स्पॉनिंग (Spawing) के पश्चात् ट्रे को पॉलीथिन शीट से ढँक दिया जाता है। नमी बनाये रखने हेतु जल का छिड़काव दिन में 1 या 2 बार किया जाता है। 10-15 दिनों के बाद मशरूम के फलनकाय (Fruiting bodies) निकलने लगती हैं। जब पॉलीथिन शीट को हटा दिया जाता है। मशरूम की खेती पहले फलनकाय निकलने के 30-45 दिनों के बाद तक जारी रहती है।

बेड पर आवश्यकतानुसार जल का छिड़काव किया जाता है। तापमान 25°C (°5°C) तथा आपेक्षिक आर्द्रता (Relative humidity) 85-90% तक रखी जाती है। वातन (Aeration) की अच्छी व्यवस्था की जाती है तथा रोगनाशकों (0.1% Melathion, 0.2% Diethane Z-78) का छिड़काव किया जाता है।

कटाई तथा विपणन (Harvesting and Marketing)- 

मशरूम की कटाई उस समय की जाती है जब फलनकाय के पाइलियस (Pileus) का व्यास (Diameter) 8-10 सेमी. हो जाए। फसल को मोड़कर (Twisting) तोड़ा जाता है। आवश्यकतानुसार इसका विपणन कच्चा अथवा सूखाकर किया जाता है। मशरूम को धूप या ओवन में सूखाकर पैकिंग सीलिंग की जाती है ताकि ये नमी सोखकर नष्ट न होने पाये।

प्लूरोटस सजोर-काजू नामक प्रजाति 15 से 25 दिनों में तैयार हो जाती है। इसको खेती सरल है तथा इसमें प्रोटीन की मात्रा (Protein content) अत्यधिक होती है। इसमें मानव पोषण के लिए आवश्यक सभी अमीनो अम्ल (Amino acid) भी उपस्थित रहते हैं।

इसके खाद्य गुण (Palatability), स्वाद (Taste), सुगन्ध (Flavour) तथा मांस (Meat) के सदृश होनेके कारण " प्लूरोटस सजोर-काजू" को अत्यधिक पसंद किया जाता है।

मशरूम कृषि का महत्व (Importance of Mushroom Cultivations)

भारत सहित विश्व के अनेक देशों के लिये कुपोषण (Malnutrition) एक गम्भीर समस्या है। विकसित देशों (Developed countries) में जहाँ प्रति व्यक्ति प्राणी प्रोटीन की औसत खपत 31 किलोग्राम प्रतिवर्ष है, वहीं भारत में यह केवल 4 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष है। मशरूम (Mushrooms) प्रोटीन के प्रमुख स्रोत होते हैं। शुष्क भार (Dry weight) के आधार पर विभिन्न मशरूम में प्रोटीन की कुल मात्रा 21 से 30 प्रतिशत तक होती है। प्रोटीन की इतनी मात्रा अन्य स्रोतों, जैसे—अनाज (Cereals), दालों (Pulses), फल (Fruits) तथा सब्जियों (Vegetables) में भी नहीं होती। प्रोटीन के अलावा इसमें कैल्सियम, फॉस्फोरस तथा पोटैशियम जैसे खनिज तत्व भी अच्छी मात्रा में पाए जाते हैं। सभी आवश्यक अमीनो अम्लों का इनमें समावेश होता है। भारत गरीबी, जनसंख्या वृद्धि तथा कुपोषण की समस्याओं से ग्रस्त है। ऐसी स्थिति में यदि मशरूम को आम जनता खासकर शिशु एवं किशोर युवाओं को उपलब्ध कराया जाए तो उनमें कुपोषण के कारण होने वाली शारीरिक समस्याओं को होने से रोका जा सकता है। मशरूम की खेती को आवश्यक प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए क्योंकि मशरूम न केवल पोषक हैं बल्कि इनकी खेती भी सस्ती है।

मशरूम अपने स्वाद एवं पोषक मान जैसे प्रोटीन, खनिज तत्वों की बहुलता तथा कोलेस्टेरॉलरहित वैल्यू के कारण उच्चवर्गीय भारतीयों के आहार का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है। इससे विविध प्रकार के स्वादिष्ट\ व्यंजन, जैसे-मशरूम पनीर, मशरूम पुलाव, मशरूम ऑमलेट, मशरूम सूप, मशरूम टिक्का आदि बनाये जाते हैं। छोटे एवं बड़े शहरों में इसका प्रचलन दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है।

इस आर्टिकल में हमें मशरूम की खेती और उसके महत्व के बारे में जाना। जो परीक्षा के साथ साथ हमारे दैनिक जीवन की सामान्य जानकरी के लिए बी जरुरी है।

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शैवाल का वर्गीकरण ( Shaival ka Vargikaran in Hindi)

शैवाल का  वर्गीकरण ( Shaival ka Vargikaran in Hindi)

इस पोस्ट में हम शैवाल के वर्गीकरण के बारे में जानने वाले हैं। वनस्पति विज्ञान से सम्बन्धित यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है । जो विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में अक्सर पूछा जाता है। यदि आप भी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे है या करने वाले हैं तो आपको ऐसे बेसिक प्रश्नों के उत्तर जरुर आने चाहिए ।  


शैवाल का  वर्गीकरण ( Classification of Algae in Hindi)

Shaival ka Vargikaran

आधुनिक वर्गीकरण (Modern Classification)

आधुनिक शैवाल वैज्ञानिकों (Modern phycologists) ने फ्रिश्च (Fritsch, 1935) द्वारा दिये गये शैवालों के वर्गीकरण में प्रस्तावित 11 वर्गों (Classes) को प्रभाग (Division) का दर्जा (Rank) प्रदान करते हुए 11 प्रभागों को निम्नलिखित प्रकार से वर्गीकृत किया है-


प्रभाग (Division)-[1] सायनोफाइटा (Cyanophyta) नीली-हरी शैवाल

वर्ग (Class) - [1] सायनोफाइसी (Cyanophyceae)
गण (Order) -(1) क्लोरोकोक्केल्स (Chlorococcales)
(2) कैमीसाइफोनेल्स (Chamisiphotales)
(3) ऑसिलोटोरिएल्स (Oscillatoriales)
(4) नॉस्टोकेल्स (Nostocales)
(5) सायटोनिमेल्स (Cytonimales)
(6) स्टाइगोनिमेटेल्स (Stigonimatales)
(7) रिवुलेरिएल्स (Rivulariales)

इन्हें भी जानें- सामान्य ज्ञान के प्रश्न 2023

प्रभाग (Division)-[2] क्लोरोफाइटा (Chlorophyta) हरी शैवाल

वर्ग (Class)- [1] क्लोरोफाइसी (Chlorophyceae)
गण (Order)- (1) वॉलवकिल्स (Volvocales)
(2) क्लोरोकोक्कल्स (Chlorococcales)
(3) यूलोट्राइकेल्स (Ulotrichales)
(4) अल्वेल्स (Ulvales)
(5) ऊडोगोनिएल्स (Oedogoniales)
(6) क्लैडोफोरेल्स (Cladophorales)
(7) कीटोफोरेल्स (Chaetophorales)
(8) जिग्नीमेल्स (Zygnemales)
(9) साइफोनेल्स (Siphonales)

प्रभाग (Division)-[3] कैरोफाइटा (Charophyta) – स्टोनवर्ट

वर्ग (Class)- [1] कैरोफाइसी (Charophyceae)
गण (Order)- (1) कारेल्स (Charales)

प्रभाग (Division) [4] यूग्लीनोफाइटा (Euglenophyta)

गण (Order)- (1) यूग्लीनेल्स (Euglenales)

प्रभाग (Division) [5] पायरोफाइटा (Pyrophyta)

प्रभाग (Division) [6] जैन्थोफाइटा (Xanthophyta)-पीली-हरी शैवाल

वर्ग (Class)- [1] जैन्थोफाइसी (Xanthophyceae)
गण (Order)- (1) हेटेरोसाइफोनेल्स (Heterosiphonales)

प्रभाग (Division)- [7] बैसिलेरियोफाइटा (Bacillariophyta)

वर्ग (Class)- [1] बैसिलेरियोफाइसी (Bacillariophyceae) डायटम

प्रभाग (Division)– [8] क्राइसोफाइटा (Chrysophyta)

प्रभाग (Division) -[9] क्रिप्टोफाइटा (Cryptophyta)

प्रभाग (Division)-[10] फियोफाइटा (Phacophyta)-भूरी शैवाल

वर्ग (Class)- [1] आइसोजेनरेटी (Isogeneratae)
गण (Order)- (1) एक्टोकार्पेल्स (Ectocarpales)
(2) डिक्टियोटेल्स (Dictyotales)

वर्ग (Class)- [2] हेटेरोजेनरेटी (Heterogeneratae)
गण (Order)- (1) लैमिनेरिएल्स (Laminariales)

वर्ग (Class)- [3] साइक्लोस्पोरी (Cyclosporae)
गण (Order)- (1) फ्यूकेल्स (Fucales)

प्रभाग (Division) – [11] रोडोफाइटा (Rhodophyta)–लाल शैवाल

वर्ग (Class)- [1] रोडोफाइसी (Rhodophyceae)
उप-वर्ग (Sub-class)- [1] बैंगिओइडी (Bangioidae) [2] फ्लोरिडी (Florida
गण (Order)- (1) निमेलिओनेल्स (Nemalionales)
(2) सिरेमिएल्स (Ceramiales)

इस पोस्ट में हमने शैवाल का  वर्गीकरण ( Shaival ka Vargikaran in Hindi) के बारे में जाना। जो वनस्पति विज्ञान से जुड़ा एक महत्वपूर्ण प्रश्न है।

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कवकों के लक्षण (Kavkon ke lakshan in Hindi)

 अगर आप विज्ञान के विद्यार्थी हैं तो आपने कवक के बारे में जरुर पढ़ा होगा। कवक एक प्रकार के जीव हैं जो अपना भोजन सड़े गले म्रृत कार्बनिक पदार्थों से प्राप्त करते हैं। ये संसार के प्रारंभ से ही जगत में उपस्थित हैं। इनका सबसे बड़ा लाभ इनका संसार में अपमार्जक के रूप में कार्य करना है। इनके द्वारा जगत में से कचरा हटा दिया जाता है। कवक को फफूंद भी कहा जाता है। इसे अंग्रेजी में फंगी(Fungi) कहते हैं। क्यूंकि हमारे दैनिक जीवन से जुडी हुयी चीज है इसलिए हमें इसके बारे में जरुर जानना चाहिए तो चलिए जानते हैं कवकों के लक्षण (Kavkon ke lakshan in Hindi) के बारे में , जिससे जुड़े सवाल भी अक्सर परीक्षाओं में देखने को मिल जाते हैं।


कवकों के लक्षण (Kavkon ke lakshan in Hindi)


कवकों के लक्षण (Kavkon ke lakshan )

1. कवक सर्वव्यापी (World wild) होते हैं तथा यह अन्य जीवित पोषकों (Living host) पर अथवा सड़े-गले पदार्थों पर मृतोपजीवी (Saprophytic) जीवनयापन करते हैं।

2. इनका शरीर सूकायवत् (Thalloid) होता है अर्थात् इसमें जड़, तना एवं पत्ती का अभाव होता है। सूकाय गैमिटोफाइटिक (Gametophytic) होता है।

3. इनका सूकाय तन्तुवत् (Filamentous) एवं प्राय: शाखित (Branched) होता है तथा यह पट्टयुक्त (Septate) अथवा पट्टरहित (Non-septate) होता है। पट्टरहित सूकाय एककोशिकीय (Unicellular) एवं बहुनाभिकीय (Multinucleated) होता है। ऐसे सूकाय को सीनोसिटिक (Coenocytic) कहते हैं।

4. इनके प्रत्येक तन्तु (Filament) को कवक तन्तु या हाइफी (Hyphae) कहते हैं। बहुत-से हाइफीमिलकर एक कवक जाल (Mycelium) बना लेते हैं। कुछ कवकों में कवक तन्तु (Hyphae) अनुपस्थित होता है तथा वे एककोशिकीय गोलाकार संरचना के रूप में होते हैं। उदाहरण- यीस्ट (Yeast) I

5. इनमें एक स्पष्ट कोशिका भित्ति (Cell wall) पायी जाती है, जो कि फंगस सेल्यूलोज (Fungal cellulose) एवं काइटिन (Chitin) की बनी होती है। काइटिन, एसिटाइल ग्लूकोसैमिन (Acetyl glu- cosamine) का बहुलक  (Polymer) होता है। काइटिन के अलावा कवकों की कोशिकाभित्ति में ग्लूकेन्स  (Glucans) एवं ग्लाइकोप्रोटीन्स (Glycoproteins) भी पाये जाते हैं। कुछ कवकों की कोशिकाभित्ति में मेलानीन (Melanine) नामक वर्णक भी पाये जाते हैं। ये कवकों को पराबैंगनी किरणों से सुरक्षा प्रदान करती हैं। 

काइटिन एवं ग्लूकेन कवक कोशिका भित्ति के प्रमुख घटक होते हैं। इसके अणु आपस में निश्चित क्रम में जुड़े होते हैं। ये भित्ति को कठोरता, दृढ़ता तथा निश्चित आकार प्रदान करते हैं। कवकों की विभिन्न जातियों में कोशिका भित्ति का रासायनिक संरचना में अंतर पाया जाता है।

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6. इनमें क्लोरोफिल (Chlorophyll) का अभाव होता है, अत: ये परजीवी (Parasitic), मृतोपजीवी (Saprophytic) अथवा सहजीवी (Symbiotic) जीवनयापन करते हैं।

7. इनकी कोशिकाएँ कशाभिका रहित (Non-flagidate) होती हैं तथा कशाभिका केवल प्रजनन करने वाले जूस्पोर्स (Zoospores) अथवा युग्मकों में ही पाये जाते हैं।

8. इनमें संगृहीत भोज्य पदार्थ (Reserve food materials), तेल की बूंदों (Oil droplet वा ग्लाइकोजन (Glycogen) के रूप में पाया जाता है।

9 इनकी शारीरिक संरचना यूकैरियॉटिक (Eukaryotic) होती है।

10. कवकों में प्रजनन तीनों विधियों के द्वारा होता है-

(i) वर्धी प्रजनन (Vegetative reproduction) 

(ii) अलैंगिक प्रजनन (Asexual reproduction)

(iii) लैंगिक प्रजनन (Sexual reproduction)।

11 वर्धी प्रजनन प्रायः विखण्डन (Fragmentation), द्विभाजन (Binary fission), मुकुलन (Budding) एवं स्क्लेरोशिया (Sclerotia) के द्वारा होता है।

12. अलैंगिक प्रजनन प्राय: जूस्पोर्स (Zoospores), स्पोर्स (Spores), कोनिडिया (Conidia), क्लैमाइडोस्पोर्स (Chlamydospores) एवं ओइडियोस्पोर्स (Oidiospores) के द्वारा होता है।

13. लैंगिक प्रजनन चलयुग्मकी संयुग्मन (Planogametic copulation), युग्मकधानी सम्पर्क (Game- tangial contact), युग्मकधानी संयुग्मन (Gametangial copulation), स्पर्मेटाइजेशन (Spermatization), सोमेटोगैमी (Somatogamy) अथवा आटोगैमी (Autogamy) आदि विधियों द्वारा होता है।

14. स्पष्ट पीढ़ी एकान्तरण (Alternation of generation) पाया जाता है।

 कवकों का पोषण(Kavkon ka Poshan)

कवक परपोषी (Heterotrophic) प्रकृति के होते हैं। यह अपना भोजन या तो जीवित पोषकों (Living hosts) से प्राप्त करते हैं, या तो सड़े-गले कार्बनिक पदार्थों से प्राप्त करते हैं। इसमें क्रमशः परजीवी (Parasites) तथा मृतोपजीवी (Saprophytes) कहलाते हैं।

(a) मृतोपजीवी (Saprophytes):- ये सड़े-गले कार्बनिक पदार्थों पर उगते हैं। उदाहरण- म्यूकर (Mucor), राइजोपस (Rhizopus), पेनीसीलियम (Penicillium) तथा परजिलस (Aspergillus) |

(b) परजीवी (Parasites):-ये कवक जीवित पोषकों से ही अपना पोषक प्राप्त करते हैं तथा इन पोषकों पर रोग उत्पन्न करते हैं। इन्हें निम्न प्रकारों में विभक्त किये जा सकते हैं-

(1) अनिवार्य परजीवी (Obligate parasites):- ये अपने विकास हेतु जीवित पोषकों (Living hosts) पर निर्भर रहते हैं। उदाहरण-पक्सीनिया (Puccinia) |

(2) विकल्पी मृतोपजीवी (Facultative saprophytes):- इस प्रकार के परजीवो कवक प्रायः जीवित पोषकों (Living hosts) पर अपना जीवन व्यतीत करते हैं, किन्तु आवश्यकता पड़ने पर कुछ समय के लिए ये अपना जीवन मृतोपजीवी (Saprophytes) की भाँति व्यतीत करते हैं, जैसे-टेफराइना डीफोर्मेन्स (Taphrina deformans) तथा स्मट्स (Smuts) आदि।

(3) विकल्पी परजीवी (Facultative parasites):- कुछ परजीवी कवक अपना जीवन मृतोपजीवियों की भाँति व्यतीत करते हैं, किन्तु परिस्थितिवश ये कवक किसी उपयुक्त पोषक पर परजीवी की भाँति जीवन व्यतीत करने लगते हैं, जैसे—पीथियम (Pithium), फ्यूजेरियम (Fusarium) आदि।

परजीवी कवक पोषकों से अपना भोजन चूषकांगों (Haustoria) द्वारा अवशोषित करते हैं। कुछ कवकों के चूषकांग, गोल घुण्डीदार (Knob shaped) होते हैं, जैसे-एल्ब्यूगो (Albugo) अथवा कुछ कवकों के चूषकांग शाखित होते हैं, जैसे- पेरोनोस्पोरा (Peronospora) आदि।

सहजीवी (Symbiotic)

कुछ कवक उच्च श्रेणी के पौधों के साथ रहते हैं जिनसे दोनों जीवों को लाभ होता है, अत: इसके जीवन को सहजीवन कहते हैं तथा इसमें पाये जाने वाले कवक सहजीवी (Symbiotic) कहलाते हैं।

पढ़ें- जैव भू-रासायनिक चक्र (BIO-GEOCHEMICAL CYCLE)

कवकों का प्रजनन (Reproduction of Fungi)

कवकों में जनन तीन विधियों द्वारा होता है-

1. वर्धी प्रजनन (Vegetative reproduction)

2. अलगिक प्रजनन (Asexual reproduction)

3. लैंगिक प्रजनन (Sexual reproduction)

1. वर्धी प्रजनन अथवा कायिक जनन (Vegetative Reproduction)

वर्धी प्रजनन में कवक जाल का कोई भी हिस्सा जनक शरीर से अलग होकर नये कवक का निर्माणक है। इस विधि में कवक तन्तुओं में कोई विशेष परिवर्तन नहीं होते हैं। ये निम्न प्रकार के होते हैं-

(1) खण्डन (Fragmentation):- इस विधि में कवकतन्तु कई खण्डों में टूट जाता है और प्रत्येक (Fragment) पुनः वृद्धि करके नया कवक जाल बनाता है।

(2) विभाजन (Fission):- इस विधि में एक कोशिकीय कवक में वृद्धि होती है फिर कोशिका संकुचन से दो बराबर आकार की संतति कोशिकाएँ। बनती हैं।

(3) मुकुलन (Budding):- इस विधि द्वारा जनन एककोशिकीय कवकों में पाया जाता है। इस विधि में जनक कोशिका से एक अतिवृद्धि के रूप में मुकुलन (Bud) दत्पन्न होती है। मुकुलन जनक कोशिका से पृथक् होकर एवं वृद्धि करके एक स्वतंत्र जीव को जन्म देती है।

(4) क्लैमाइडोबीजाणु (Chlamydo- spores):- कुछ कवकों में कवकतन्तुओं की कोशिकाएँ मोटी भित्ति वाले बीजाणुओं में बदल जाती हैं। इन बीजाणुओं को क्लैमाइडोवीजाणु (Chlamydospores) कहते हैं। अनुकूल परि- स्थतियों में बीजाणु अंकुरित होकर नया कवकतन्तु बना देते हैं।

2. अलैंगिक प्रजनन (Asexual Reproduction)

इनमें बीजाणुओं (Spores) का निर्माण बिनासंलयन के कवकतंतुओं पर सीधे ही हो जाता है। अलैंगिक प्रजनन निम्न विधियों द्वारा होता है-

(i) कोनिडिया द्वारा (By conidia):- ये अचल, गोल, पतली भित्ति वाली एवं एकनाभिकीय संरचना होती है। यह एक विशेष कवक शाखा है, जिसे कर्णाधार (Conidiophore) कहते हैं पर बहिर्जात Conidiophores (Exogenous), रूप से श्रृंखला में विकसित होती है। अनुकूल परिस्थितियों में यह अंकुरित होकर नया कवक तंतु बनाते हैं। उदाहरण— ऐस्परजिलस (Aspergillus) एवं पेनिसिलियम् (Penicillium)।

(ii) चल बीजाणुओं द्वारा (By zoospores):- जूस्पोर्स का निर्माण प्रायः निम्नवर्गीय कवक सदस्यों मे होता है। जूस्पोर्स का निर्माण जूस्पोरेंजियम (Zoosporangium) अथवा बीजाणुधानी में अंतर्जात (Endogenous) रूप से होता है। इन बीजाणुओं में एक या दो कशाभिका (Flagella) पाया जाता है। उदाहरण- ऐक्लिया (Achlya), ऐल्ब्यूगो (Albugo), पाइथियम (Pythium), तथा फाइटोफ्थोरा (Phytophthora) ।

(iii) ऐप्लानोस्पोर्स (Aplanospores):- ये विशेष प्रकार की बीजाणुधानी में बनने वाले कशाभिका रहित बीजाणु होते हैं। उदाहरण-म्यूकर (Mucor) 

(iv) बेसिडियोस्पोर्स (By basidiospores):- बेसिडियोस्पोर्स, बेसिडियम में बहिर्जात (Exogenous) रूप से उत्पन्न होने वाले मोओस्पोर्स हैं। यह अंकुरित होकर नया कवकतन्तु बनाते हैं। उदाहरण-पक्सीनिया

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लैंगिक जनन (Sexual Reproduction)

ड्यूटेरोमाइसिटीज (Deuteromycetes) वर्ग को छोड़कर सभी कवकों में लैगिक जनन पाया जाता है। लैंगिक जनन दो युग्मकों के संलयन (Fusion) से होता है। लैंगिक जनन की क्रिया में तीन स्पष्ट अवस्थाएं प जाती हैं, जो निम्नलिखित हैं-

(i) प्लाज्मोगेमी (Plasmogamy):- यह लैंगिक जनन की प्रथम अवस्था है। इसमें दो युग्मकों के जीवद्रव्य का संलयन होता है। इस क्रिया में दोनों युग्मकों के केन्द्रक एक कोशिका में एक-दूसरे के पास आ जाने हैं, लेकिन आपस में संलयन नहीं करते हैं।

(ii) केन्द्रक संलयन अथवा कैरियोगेमी (Karyogamy):- यह लैंगिक जनन की द्वितीय अवस्था है। इसमें युग्मकों के दोनों अगुणित केन्द्रकों का संलयन होता है और द्विगुणित युग्मनज (Zygote) बनता है।

(iii) अर्धसूत्री विभाजन (Meiosis):- यह लैंगिक जनन की तीसरी एवं अन्तिम अवस्था है। इसमें द्विगुणित केन्द्रक में अर्धसूत्री विभाजन होता है जिसके फलस्वरूप गुणसूत्रों की संख्या घटकर आधी रह जाती है।और पुनः अगुणित अवस्था प्राप्त होती है।

लैंगिक जनन के प्रकार (Types of sexual reproduction)– कवकों में लैंगिक जनन निम्न के प्रकार होते हैं-

1. चलयुग्मकी संयुग्मन (Planogametic copulation):- इस प्रकार के संयुग्मन में संलयन करते वाले युग्मक चल होते हैं तथा इन्हें चलयुग्मक (Planogamete) कहते हैं। इनके संलयन से द्विगुणित युग्मनज का निर्माण होता है । संलयित होने वाले युग्मकों की सरंचना एवं व्यवहार के आधार पर चलयुग्मको संयुग्मन तीन प्रकार का होता है-

(i) समयुग्मकी (Isogamous):- इसमें भाग लेने वाले युग्मक आकार एवं आकृति में समान होते हैं, शरीर क्रियात्मक दृष्टि से भिन्न होते हैं। ऐसे युग्मकों को समयुग्मक (Isogametes) कहते हैं।

(ii) असमयुग्मकी (Anisogamous):- इसमें भाग लेने वाले युग्मक आकारिकीय तथा शरीर क्रियात्मक दोनों तरह से भिन्न होते हैं। ऐसे युग्मकों को असमयुग्मक (Anisogametes) कहते हैं। इनमें नर युग्मक मादा युग्मक की तुलना में छोटे परन्तु अधिक सक्रिय होते हैं।

(iii) विषमयुग्मकी (Oogamous):-  इनमें भाग लेने वाले युग्मकों में से नर युग्मक चल होता है तथा मादा युग्मक (अण्ड) अचल होता है। इसमें भी युग्मक आकारिकीय तथा शरीर क्रियात्मक दोनों तरह से भिन्न होते हैं।

2. युग्मकथानीय सम्पर्क (Gametangial contact):- इसमें नर तथा मादा युग्मकधानियाँ (Gam- etangial) एक-दूसरे के सम्पर्क में आती हैं। नर युग्मकधानी (Antheridium) से केन्द्रक अथवा नर युग्मक मादा युग्मकधानी (Oogonium) में एक नलिका द्वारा या छिद्र के द्वारा स्थानान्तरित हो जाता है तथा नर एवं मादा केन्द्रकों का संलयन हो जाता है।

3. युग्मकथानीय संयुग्मन (Gametangial copulation) :- इसमें नर तथा मादा युग्मक धानियों केसम्पूर्ण पदार्थों का संलयन होता है। इस विधि में दो युग्मकधानियाँ सम्पर्क में आती हैं तथा इनके बीच की भित्ति घुल जाती हैं तथा दोनों के जीवद्रव्य एवं केन्द्रक आपस में मिल जाते हैं।

4. अचलपुंमणु युग्मन (Spermatization):- कवकों के कुछ प्रगत वंशों में लैंगिक अंगों का पूर्ण अभाव होता है। इनमें लैंगिक क्रिया अचल पुंमणु (Spermatia = नर युग्मक) तथा विशिष्ट ग्राही कवक तन्तुओं ( Recetive hyphae = मादा युग्मक) द्वारा पूर्ण होती है। अचल पुंमणु वायु, जल अथवा कीटों द्वारा ग्राही कवक तन्तु तक पहुँचते हैं तथा उससे चिपक जाते हैं। पुंमणु एवं ग्राही कवक तन्तु के मध्य की भित्ति घुल जाती हैं जिसमें पुंमणु के अन्दर का पदार्थ ग्राही कवकतन्तु में चला जाता है। पुंमणु और ग्राही कवक तन्तु के केन्द्रक बिना संलयित हुए जोड़ी बना लेते हैं, इसे केन्द्रकयुग्म (Dikaryon) कहते हैं।

5. काययुग्मन अथवा सोमेटोगेमी (Somatogamy):- कवकों के कुछ प्रगत वंशों, विशेषकर ऐस्कोमाइसिटीज एवं बेसीडियोमाइसिटीज के सदस्यों में लैंगिक अंगों का पूर्ण अभाव होता है। इन कवकों में दो सामान्य कायिक कोशिकाएँ लैंगिक जननांगों के रूप में कार्य करती हैं। इनके संलयन से दोनों कोशिकाओं के केन्द्रक पास आकर केन्द्रकयुग्म (Dikaryon) बना लेते हैं।

FAQs:-

Q. कवक रोग कैसे उत्पन्न करते हैं?

Ans:- कवक कोशिकाएं ऊतकों पर आक्रमण कर सकती हैं और कवक के कार्य को बाधित कर सकती हैं,  प्रतिरक्षा कोशिकाओं या एंटीबॉडी द्वारा प्रतिस्पर्धी चयापचय, विषाक्त मेटाबोलाइट्स (उदाहरण के लिए कैंडिडा प्रजातियां चयापचय के दौरान एसीटैल्डिहाइड, एक कार्सिनोजेनिक पदार्थ का उत्पादन कर सकती हैं)

Q. कवक रोग क्या है?

Ans:- फंगल संक्रमण, या माइकोसिस, कवक के कारण होने वाली बीमारियां हैं।

Q. कवक में किसकी कमी होती है?

Ans:- कवक में क्लोरोफिल की कमी होती है और प्रकाश संश्लेषण में संलग्न नहीं होते हैं।

इस पोस्ट में हमने कवक के लक्षण , पोषण और प्रजनन के बारे में जाना। जो परिक्षापयोगी है।

उम्मीद करता हूँ कि कवकों के लक्षण (Kavkon ke lakshan in Hindi) का यह पोस्ट आपके लिए उपयोगी साबित होगा , अगर आपको यह पोस्ट पसंद आया हो तो इस पोस्ट को शेयर अवश्य करें।