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अमीनो अम्ल तथा पेप्टाइड्स क्या होता है (What are amino acids and peptides in Hindi)

नमस्कार,आंसर दुनिया के इस पेज में आपका स्वागत है। मनुष्य के भोजन में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन तथा लिपिड पाये जाते हैं। प्रोटीन जीवों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण होते हैं और इनका निर्माण अमीनो अम्लों (Amino acids) से होता है। अमीनो अम्लों को प्रोटीन्स भवन खण्ड (Building blocks) कहा जाता है क्योंकि प्रोटीन, अमीनो अम्लों के पॉलीमर्स होते हैं। सभी जीवों के प्रोटीन्स से अब तक 20 प्रमुख अमीनो अम्ल को पृथक् किये गये हैं। इसके अतिरिक्त 80 अमीनो अम्लों को भी पौधों, प्राणियों एवं सूक्ष्मजीवों से पृथक् किया गया है। इस पोस्ट में अमीनो अम्ल तथा पेप्टाइड्स क्या होता है (What are amino acids and peptides in Hindi) के बारे में जानेंगे। 

जैसे (Citriline) सिट्रीलीन, तरबूज के रस से तथा कोलेजन से हाइड्रा क्सिलायसिन (Hydroxylyciyin) प्राप्त किया गया है।

अमीनो अम्ल तथा पेप्टाइड्स क्या होता है (What are amino acids and peptides in Hindi)

अमीनो अम्ल (Amino acid)- 

प्रोटीन की सबसे छोटी संरचनात्मक व क्रियात्मक इकाई (Structural and Functional Unit) है। अमीनो अम्ल में दो क्रियात्मक इकाई पाये जाते हैं -

  1. अमीनो समूह (-NH2)  
  2. कॉर्बोक्सिलिक समूह (-COOH)

-COOH समूह में हाइड्रोजन देने व -NH2 समूह में हाइड्रोजन को ग्रहण करने की क्षमता पायी जाती है। इसे उभयधर्मी आयन कहते हैं। प्रोटीन में दो अमीनो अम्लों के बीच पेप्टाइड बन्ध का निर्माण होता है। सामान्यतः 'अमीनो अम्ल' (Amino acids) उस यौगिक को कहते हैं, जिसमें अमीनो समूह (Amino group) एवं अम्लीय कार्य (Acidic Function) पाया जाता है। अमीनो अम्ल की सामान्य संरचना को निम्नलिखित सूत्र द्वारा प्रदर्शित किया जाता है -

Structure of amino acid



Structure of amino acid

H जहाँ NH2 एक अमीनो समूह COOH एक कॉर्बोक्सिल | समूह तथा -R एक कार्बोनिक समूह को प्रदर्शित करता है। R- समूह जिस कार्बन परमाणु से जुड़ा रहता है, उसे α-कार्बन कहते हैं। अधिकांश अमीनो अम्ल का α -कार्बन सहसंयोजी बन्धों (Covalent bonds) के द्वारा 4 विभिन्न | समूहों से संयोजित रहता है। सबसे सरलतम अमीनो अम्ल ग्लाइसीन (Glycine) है। जैसा कि अमीनो एवं कार्बोक्सिल समूह एक ही कार्बन परमाणु (α- कार्बन) से जुड़े रहते हैं। अतः उन्हें α- अमीनो अम्ल (α- amino acid) कहते हैं।

Aspartice acid Glutamic acid

ऐम्फोटेरिक (Amphoteric Properties)- 

चूंकि अमीनो अम्लों में दोनों ही अमीनों समूह तथा कार्बोक्सिलिक समूह पाये जाते हैं। अतः ये कमजोर क्षार (Weak alkali) या कमजोर अम्ल (Weak acids) की तरह व्यवहार करते हैं। इस तरह के दोहरे गुण रखने वाले पदार्थों को ऐम्फोटेरिक यौगिक कहते हैं या ज्वीटर आयन (Zwitter ion) भी कहते हैं। 

वर्गीकरण (Classification)- अमीनो अम्लों को उसके पार्श्व श्रृंखला (Side chains) आकार के आधार पर निम्न प्रकारों में बाँटा गया है

(a) ऐलिफैटिक पार्श्व श्रृंखला (Aliphatic side chain) इसके उदाहरण ग्लाइसीन, ऐलेनीन, वेलीन, न्यूसीन तथा प्रोलीन हैं। 

(b) हाइड्रॉक्सिल ऐलिफैटिक पार्श्व श्रृंखला (Hy droxyl aliphatic side Chains) इसके उदाहरण सेरीन तथा थ्रियोनीन है। 

(c) ऐरोमैटिक पार्श्व श्रृंखला (Aeromatic side chains)-फिनाइलेनीनटायरोसिन तथा टिप्टोफेन 

(d) बैसिक पार्श्व शृखला (Basic side chains) - लायसिन, आर्जिनीन एवं हिस्टीडीन। 

(e) अम्लीय पार्श्व श्रृंखला Acidic side chains) -ऐस्पार्टिक एवं ग्लूटामिक अम्ल।

(f) ऐमाइड पार्श्व शृंखला (Amide side chains) - ऐस्पराजीन एवं ग्लूटामिक अम्ल । 

(g) सल्फर पार्श्व श्रृंखला (Sulphur side chains) -सिस्टीन एवं मिथियोनीन। सरचनात्मक दृष्टि से अमीनो अम्लो को तीन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है।

अमीनो अम्लो को तीन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है।

1.अम्लीय अमीनो अम्ल (Acidic Amino acidc) - इन एमीनो अम्लो में दो कार्बोक्सिलिक अम्ल तथा एक अमीनो वर्ग होता है। 

उदाहरण- एस्पार्टिक अम्ल, ग्लूटैमिक अम्ल 

2. क्षारीय अमीनो अम्ल (Basic amino acid) - अमीनो अम्ल में एक अमीनो तथा एक कार्बोक्सिलिक समूह होता है। 

उदाहरण- लाइसिन, आर्जिनीन 

3. उदासीन अमीनो अम्ल (Neutral amino acid) - एक अमीनो तथा एक ही कार्बोक्सिलिक समूह वाले अमीनो अम्ल उदासीन अमीनो अम्ल कहलाते है। 

उदाहरण- वैलिन, ऐलेनीन

आवश्यक एवं अनावश्यक अमीनो अम्ल (Essential and Non-essential amino acids)- 

अमीनो अम्लों को हम उसके शरीर के अन्दर संश्लेषित होने या नहीं होने के गुणों के आधार पर निम्नलिखित तीन समूहों में विभाजित करते हैं 

1.आवश्यक अमीनो अम्ल (EssentialAmino ac ids)- इस तरह के अमीनो अम्ल शरीर में संश्लेषित नहीं होते हैं बल्कि भोज्य पदार्थों के द्वारा प्राप्त किए जाते हैं। 

उदाहरण- वेलिन (Valine), ल्यूसीन (Leucine), लायसिन (Lysine) आदि। 

2. अनावश्यक अमीनो अम्ल (Non-essential amino acids)- ये वे अमीनो अम्ल हैं, जिनका शरीर में संश्लेषण किया जाता है। इस तरह के दो अमीनो अम्ल मनुष्य के शरीर में विशिष्ट स्थान रखते हैं।

उदाहरण- एलेनीन (Alanine), आर्जिनीन  ग्लाइसीन (Glysine) आदि।

3. अर्द्ध-आवश्यक अमीनो अम्ल (Semi-essen tial amino acids)- ये ऐसे अमीनो अम्ल हैं जिनका आंशिक संश्लेषण शरीर में होता है।

उदाहरण- आर्जिनीन है (Arginine) vai feteista (Histidines).

जानें- पारिस्थितिक तंत्र क्या है।

पेप्टाइड्स क्या है (what is Peptides)

जब दो या दो से अधिक अमीनो अम्ल पेप्टाइड बन्धों (Peptide bonds) के द्वारा आपस में संयोजित होते हैं तथा जो पदार्थ बनाता है उसे पेप्टाइड (Peptide) कहते हैं। बन्ध से आशय अमीनो अम्लों के बीच ऐमाइंड (Amide) की कड़ी से होता है। ऐसे अमीनो अम्ल जिसमें एक पेप्टाइड सहलग्नता (Peptide Linkage) होती है उसे डाइपेप्टाइड (Dipeptide) तथा ऐसा अणु जिसमें दो पेप्टाइड सहलग्नता होती है उनको ट्राइपेप्टाइड (Tripeptide) कहते हैं। इसी तरह से टेट्रापेप्टाइड (Tetrapeptide) जिसमें तीन पेप्टाइड सहलग्नता होती है तथा 10 अमीनो अम्ल से अधिक संयोजन से बनने वाले पदार्थ को ओलिगोपेप्टाइड (Oligopeptide) कहते हैं।

 पेप्टाइड के अनेक जैविकी कार्य 

  1. ये प्रोटीन्स के निर्माण में मध्यस्थ (Intermediat) के रूप में कार्य करते हैं। 
  2. ये यौगिकों के समूहों के घटक के रूप में होते हैं, जिनको एल्केलाइड (Alkalide) कहते हैं। 
  3. कुछ पेप्टाइड्स के प्रतिरोधी जीवाणुवीय अभिक्रियाएँ (Antibacterial activities) पाई जाती हैं। ये सामान्यतः फफूंद एवं जीवाणु में पाये जाते हैं। 
  4. कुछ अन्य पेप्टाइड्स वृद्धि कारक (Growth factor) फॉलिक अम्ल (folic acid) पानी में घुलनशील विटामिन होता है। 
  5. उच्च श्रेणी के प्राणियों के कुछ पेप्टाइड्स हॉर्मोन्स (Hormones) की तरह कार्य करते हैं। 
  6. कुछ पेप्टाइड्स कोशिका के ऑक्सीकरण-अपचायक विभव (oxiation-reduction potential) को नियंत्रित करते हैं। जैसे- ग्लूटाथीयोन (Glutathione) Sarzreamine
  7. कुछ पेप्टाइड्स प्राणियों के कुछ मनोवैज्ञानिक विसंगतियों को उत्पन्न करते हैं। 

अमीनो अम्ल के कार्य (function of amino acid)

  1. अमीनो अम्ल का मुख्य कार्य प्रोटीन का संश्लेषण करना है। 
  2. कुछ अमीनो अम्ल वर्णको में रूपान्तरित हो जाते है हमारी त्वचा में उपस्थित मिलैनिन वर्णक। टायरोसिन से बनता है। 
  3. अमीनो अम्ल के व्युत्पन्न एमाइड्स कहलाते है, वे शरीर में संचित नाइट्रोजन के रूप में होते है।
इस पोस्ट में हमने अमीनो अम्ल तथा पेप्टाइड्स क्या होता है (What are amino acids and peptides in Hindi)  के बारे में जाना। विभिन्न परीक्षाओं में अमीनो अम्ल तथा पेप्टाइड्स  से जुड़े प्रश्न पूछे जाते हैं।

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लिंग सहलग्नता क्या है (what is gender linkage)

लिंग सहलग्नता क्या है (what is gender linkage)

नमस्कार मित्रों, आज के इस आर्टिकल में लिंग सहलग्नता क्या है? लिंग सहलग्नता के प्रकार, लिंग सहलग्नता के कारण इन सब की जानकारी सरल रूप से दिया गया है अगर आप विज्ञान के विद्यार्थी हैं तो ये जानकारी आपके लिए बेहद उपयोगी होने वाला है. क्यों लिंग सहलग्नता क्या है? लिंग सहलग्नता के प्रकार, लिंग सहलग्नता के कारण कॉलेज एग्जाम हो या स्कूल में हो यह प्रश्न परीक्षा में पूछे ही जाते है.


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लिंग सहलग्नता (Sex linkage) - यह एक विशेष प्रकार की सहलग्नता (Linkage) होती है, जो आनुवंशकों (Genes) के मध्य पाई जाती है, जो कि लिंग गुणसूत्र (Sex Chromosomes) में पाये जाते हैं। समजात एवं विषमजात (Homologous and non-homologous) X एवं Y-क्रोमोसोम के खण्डों की स्थिति के अनुसार जीन विनिमय नहीं कर सकते हैं, यह स्थिति अपूर्ण रूप से जीन लिंग सहलग्न (Sex-linked) माने जाते हैं। लिंग सहलग्नता को सर्वप्रथम मॉर्गन (Morgan) ने ड्रोसोफिला पर ज्ञान किया था। 

परिभाषा (Definition)-"वे गुण जिनके जीन्स लिंग गुणसूत्र पर पाये जाते हैं, लिंग सहलग्न गुण तथा इन गुणों का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जीन्स के द्वारा जाना लिंग सहलग्न जीन्स (Sex linkage genes) तथा इसकी वंशागतिकी लिंग सहलग्नता (Sex linkage) कहलाता है।"

इन्हें पढ़े - विषाणु क्या है? संरचना का वर्णन

लिंग सहलग्नता के प्रकार (Kinds of Sex link age)

X या Y-क्रोमोसोम पर लिंग सहलग्न जीन्स के स्थित होने के आधार पर लिंग सहलग्न वंशागति निम्न प्रकार की होती है -

(i) होलोजेनिक (Hologenic)-

इस प्रकार के लिंग सहलग्न जीन सीधे मादा से मादा में वंशानुगत होते हैं। 

(ii) होलोऐन्ड्रिक (Holoandric)-

इसमें Y क्रोमोसोम, असमजात भागों में पाये जाने वाले जीन्स पिता से पुत्र में वंशानुगत होते हैं।

(iii) डाइऐन्ड्रिक (Diandric)- 

मादा के दोनों x क्रोमोसोम, समजात क्रोमोसोम के समान व्यवहार करते हैं तथा नर से प्राप्त X-क्रोमोसोम को पुत्री में वंशानुगत कर देते इस प्रकार के लिंग सहलग्न जीन्स गुणसूत्र के असमजात भाग में पाये जाते हैं। यह जीन्स पिता से F. पीढ़ी की स्त्रियों के माध्यम से F, पीढ़ी नर संतति में वंशानुगत होते हैं। 

लिंग सहलग्न वंशागति (Sex-linked inheritance) मानव के लैंगिक लक्षणों के अलावा गैर लैंगिक या दैहिक (Somatic) लक्षणों के निर्धारण के लिए जीन्स लिंग गुणसूत्रों (Sex Chromosomes) पर पाये जाते हैं। इन जीन्स को सेक्स लिंक्ड जीन्स तथा इनके लक्षणों को सेक्स लिंक्ड लक्षण कहते हैं। 

यद्यपिx और Y लिंग क्रोमोसोम की रचना भिन्न होती है, पर गैमेटोजिनेसिस के दौरान मियोटिक विभाजन में इनमें युग्मन या सिनैप्सिस अन्य समजात (Homologous) जोड़ियों के गुणसूत्रों की तरह ही होता है। लिंग गुणसूत्रों की रचना में एक समजात खण्ड तथा असमजात खण्ड होता है,

इन्हें पढ़े - लिपिड्स (Lipids) वर्गीकरण (Classification) एवं संरचना 

लिंग सहलग्न लक्षणों को तीन श्रेणियों में बाँट सकते हैं

(i) X-लिंक्ड- वे लिंग सहलग्न लक्षण जिनके जीन्स X-गुणसूत्र के असमजात खण्ड पर होते हैं, ये पुत्रियों को माता और पिता दोनों से मिल सकते हैं, परन्तु पुत्रों को केवल माता से मिलते हैं। 

(ii) Y-लिंक्ड- वे जिनके जीन्स Y- क्रोमोसोम के नॉन-होमोलॉगस खण्ड पर होते हैं अतः इनके ऐलील्स x-क्रोमोसोम पर नहीं होते, ये पीढ़ी-दर-पीढ़ी से पुत्रों में ही जाते हैं, अतः इन्हें होलोऐण्ड्रिक जीन्स कहते हैं। 

(iii) XY-लिंक्ड- वे जिनके जीन X वY-क्रोमोसोम के होमोलॉगस खण्डों पर ऐलील्स के रूप में होते हैं, अतः इनकी वंशागति सामान्य ऑटोसोमल लक्षणों की तरह होती हैं।

लिंग सहलग्नता के कारण-(type of gender linkage)

लिंग सहलग्न लक्षणों की वंशागति को लिंग सहलग्न कहते हैं। मानव के कुछ आनुवंशिक रोग के जीन मुख्य रूप से X-क्रोमोसोम में होते हैं। इनमें से अधिकांश रोगों के जीन रेसेसिव (अप्रभावी) होते हैं अर्थात् इन जीन्स के प्रभावी (Dominant) ऐलील सामान्य रोगहीन दशा स्थापित करते हैं, क्योंकि पुरुष में x क्रोमोसोम केवल एक जवलि स्त्रियों में दो होते हैं, अत : इन लक्षणों की वंशागति विशेष प्रकार की होती है। 

इन जीन्स के रेसेसिव होने के कारण ये रोग हेटरोजायगस स्त्रियों में नहीं होते, ये केवल होमोजायगस (स्त्रियों मे होते हैं, जिसमें दोनों X- क्रोमोसोमों) में रोग के जीन्स होते हैं। लेकिन पुरुषों में केवल एक X-गुणसूत्र होने के कारण रोग के लक्षण का केवल एक ही जीन उपस्थित हो सकते हैं, अतः एक ही रिसेसिव जीन से रोग पैदा हो जाता है।

इसलिए आनवंशिक रोगों के लक्षण प्रायः पुरुषों में अधिक पाये जाते हैं। दूसरी ओर इन लक्षणों की वंशागति से यह स्पष्ट हो जाता है कि पुत्रों को इन लक्षणों के जीन पिता से कभी नहीं मिलते, क्योंकि पुरुष का अकेला 'X' क्रोमोसोम हमेशा पुत्रियों में जाता है। इन पुत्रियों से फिर यह जीन दूसरी पीढ़ी 32 के पुत्रों (F Qमें ज+ है। अतः पुत्रियों की भूमिका प्रायः वाहक की होती है।

लिंग सहलग्नता के आनुवंशिकी या वंशागति 

(1) रंग वर्णान्धता (Colour blindness)- 

यह वंशागति मनुष्य में एक बीमारी के रूप में पाया जाता है जिसमें व्यक्ति मिलते जुलते रंगों में भेद नहीं कर पाता है। वैसे तो मनुष्यों में कई प्रकार के रंग वर्णान्धता के होते हैं लेकिन लाल-हरी वर्णान्धता प्रमुख है। इसे Protanopin या लाल वर्णान्धता भी कहते हैं। 

  • वर्णांध पुरुष व सामान्य स्त्री का विवाह- यदि एक सामान्य वर्णबोध वाली स्त्री का विवाह वर्णांध पुरुष के साथ होता है, तो उसकी सभी संतानें सामान्य वर्णबोध वाली होती हैं । यद्यपि पुत्रियों में दृष्टि सामान्य होगी पर वे रोग की वाहक होगी क्योंकि इन्हें एक x-क्रोमोसोम पिता से प्राप्त होता है, जिसमें वर्णांधता से सम्बन्धित जीन होता है। दूसरा X-क्रोमोसोम माता से प्राप्त होता है, इनके पुत्रों में सामान्य वर्णबोध होगा। 
  • अगर ऐसी वाहक (Carrier) पुत्री का विवाह किसी सामान्य वर्णबोध वाले पुरुष के साथ हो, तो उसकी सभी पुत्रियों में सामान्य वर्णबोध होगा, किन्तु उनमें से 50% पुत्रियाँ वाहक होंगी, क्योंकि उनमें एक जीन वर्णांधता के लिए दूसरा सामान्य वर्णबोध के लिए होगा तथा इनके पुत्रों में 50% पुत्र वर्णांध होंगे। वर्णान्ध को C द्वारा प्रदर्शित करते हैं

  • सामान्य पुरुष तथा वाहक स्त्री का विवाह- इस प्रकार के उत्पन्न सन्तानों में 25% लड़के वर्णान्ध तथा 25% सामान्य, जबकि लड़कियों में 25% वाहक तथा 25% सामान्य होंगे।
  • वर्णान्ध पुरुष तथा वाहक स्त्री का विवाह- इस प्रकार के उत्पन्न सन्तानों में 25% पुत्र वर्णान्ध 25% पुत्र वाहक तथा 25% पुत्रियाँ वर्णान्ध, 25 पुत्रियाँ सामान्य होंगी।

(2) हीमोफीलिया की वंशागति (Inheritance of Haemophilia)- 

इस रोग में थ्रॉम्बोप्लास्टिन की कमी के कारण चोट लगने पर मनुष्य में रुधिर का ठीक से थक्का नहीं बनता, जिससे रक्त का बहना जारी रहता है। इसलिए इसे ब्लीडर्स रोग (Bleeders disease) भी कहते हैं। इस रोग में रोगी के रुधिर में एण्टीहीमोफीलिक-ग्लोबिन प्रोटीन की अनुपस्थिति के कारण थ्राम्बोप्लास्टिन का निर्माण नहीं हो पाता। इस प्रोटीन का निर्माण X-क्रोमोसोम पर स्थित जीन द्वारा नियन्त्रित रहता है। इस रोग के बारे में सबसे पहले जॉन कोटो ने सन् 1803 में बताया। हीमोफीलिया रोग यूरोप के शाही खानदान में बहुत सामान्य तथा इसकी शुरुआत महारानी विक्टोरिया से हुईयह वंशागति 

हीमोफीलिया की वंशागति दो प्रकार की होती है 

(a) हीमोफीलिया A- यह एण्टी हीमोफीलिक ग्लोब्यूलीन की कमी के कारण होता है।

(b) हीमोफीलिया B- यह प्लाज्मा में थ्राम्बोप्लास्टीन की कमी के कारण होती है। हीमोफिलिया को h द्वारा प्रदर्शित करते हैं। 

उदाहरण (Example)-सामान्य पुरुष एवं हीमोफीलिक स्त्री का विवाह- इससे उत्पन्न सन्तानों में 50% एक लड़का, एक लड़की सामान्य होगी तथा 50% एक लड़का, एक लड़की हीमोफीलिया वंशागत होगा।

इस आर्टिकल में हमने लिंग सहलग्नता क्या है (what is gender linkage) के बारे में जाना । विभिन्न परीक्षाओं में लिंग सहलग्नता क्या है (what is gender linkage) से जुड़े प्रश्न पूछे जाते हैं।

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जीन विनिमय (Crossing over) - प्रकार, विशेषताएँ, सिद्धांत in Hindi

इस पोस्ट में हम जीन विनिमय क्या है के बारे में जानेंगे। जीन विनिमय जीवों के कोशिकाओं में होनी वाली गुणसूत्रीय प्रक्रिया है। एक जोड़ी समजात गुणसूत्र के क्रोमैटिड्स के संगत खण्डों में जीन विनिमय के फलस्वरूप सहलग्न जीन्स में पुनः संयोग की प्रक्रिया को जीन विनिमय (Crossing over) कहते हैं। जीवों में अपने पैतृक लक्षणों से मेल खाना इसी जीन विनिमय के कारण होता है। 

what is Crossing over

जीन विनिमय क्या है (What is Crossing Over in Hindi)

Table of content:

  • क्रॉसिंग ओवर के प्रकार (Types of Crossing over)
  • क्रॉसिंग ओवर की प्रक्रिया (Mechanism of Crossing over)
  • जीन विनिमय की विशेषताएँ (Characteristics of Crossing Over) 
  • जीन विनिमय के सिद्धांत (Theories of crossing over)
  • क्रॉसिंग ओवर को प्रभावित करने वाले कारक (Factors affecting Crossing over)

मॉर्गन के अनुसार, सहलग्न जीन वंशागति के समय, पीढ़ी से केवल पैतृक संयोग ही बनाते हैं तथा गुणसूत्र पर उपस्थित सभी जीन पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक समूह में वंशागत होते हैं, परन्तु कुछ संतति जीवों से जीन्स के नये संयोग भी देखने को मिलते हैं, अर्थात् यहाँ सहलग्न जीन्स पृथक हो गये हैं और इनके स्थान पर युग्मविकल्पी जीन्स के नये संयोग बने हैं। 

परिभाषा (Definition)- "जीन विनिमय- वह प्रक्रिया जिसके द्वारा जीन्स एक गुणसूत्र (Chromosome) से अपने दूसरे समजात गुणसूत्र पर उपस्थित जीन्स के साथ अदला-बदली करते है, जीन विनिमय कहलाते हैं।"

दुसरे शब्दों में-

"वह भौतिक क्रिया, जिसमें दो समजात गुणसूत्रों के अर्द्ध-गुणसूत्रों के बीच उनके कुछ भाग का सहलग्न जीन्स के साथ आदान-प्रदान होना, जीन विनिमय (Crossing over) कहलाता है।" 

उदाहरण-  ड्रोसोफिला में पुनः संयोग-धूसर (Grey) शरीर तथा लुप्तावशेषी (Vestigeal) पंखों वाली मक्खी (BBvv) तथा काले (Black) शरीर व लम्बे (Long) पंखों वाली मक्खी (bbvv) के संकरण से F, पीढ़ी में उत्पन्न सभी | F मक्खियों का काले शरीर व लुप्तावशेषी पंखों वाली अप्रभावी (Recessive) मक्खियों (bbvv) से परीक्षार्थ संकरण (Test cross) करने पर चार प्रकार की संतति मक्खियाँ मिलेगी

पढ़ें- लिंग सहलग्नता क्या है।

क्रॉसिंग ओवर के प्रकार (Types of Crossing over)

(a) एकल क्रॉस ओवर (Single Cross over)- जब गुणसूत्र युग्म पर केवल एक ही किएज्मा बने या क्रॉसिंग ओवर केवल एक ही बिन्दु पर हो तो इसे एकल क्रॉस ओवर कहते हैं।

(b) डबल क्रॉस ओवर (Double Cross over)- जब गुणसूत्र युग्म पर दो किएज्मा बने या दो क्रॉसिंग ओवर हो तो इसे डबल क्रॉस ओवर कहते हैं। 

(c) बहु क्रॉस ओवर (Multiple Cross over)- जब गुणसूत्र युग्म पर तीन या अधिक किएज्मा बने या अधिक बिन्दुओं पर क्रॉसिंग ओवर हो तो मल्टीपल क्रॉस ओवर कहलाता है। 

(d) वर्धी क्रॉस ओवर (Somatic Cross over)- जब वर्धी कोशिकाओं में क्रॉसिंग ओवर होता है तो इसे वर्धी क्रॉस ओवर कहते हैं।

क्रॉसिंग ओवर की प्रक्रिया (Mechanism of Crossing over) – 

(i) युग्मन (Synapsis)- 

अर्द्धसूत्री विभाजन की प्रथम अवस्था प्रोफेज-1 की जायगोटीन उपावस्था दोनों जनकों के गुणसूत्र एक-दूसरे के निकट आकर लम्बाई में जोड़ियाँ बना लेते हैं। यह प्रक्रिया गुणसूत्र के एक सिरे से शुरू होकर चेन (Zip) की तरह से दूसरे सिरे तक चलता है, इसे Synapsis कहा जाता है। गुणसूत्रों की यह अवस्था बाईवेलेंट कहलाती है। 

(ii) द्विगुणन (Duplication) 

प्रोफेज-1की पैकिटीन उपावस्था में बाईवेलेंट का प्रत्येक गुणसूत्र सेण्ट्रोमीयर के अलावा सम्पूर्ण लम्बाई में दो क्रोमैटिडों में बँट जाता है। अब प्रत्येक बाईवेलेंट चार क्रोमैटिडो वाला बन जाता है, इसे टेट्राड कहते हैं। इनमें एक ही गुणसूत्र के क्रोमैटिड Sister Chromatid कहलाते हैं तथा बाईवेलेंट के अलग-अलग गुणसूत्रों के क्रोमैटिड्स को Non-Sister Chromatid कहा जाता है।

(iii) जीन वनिमय (Crossing over)- 

प्रोफेज-1 की डिप्लोटीन (Diplotene) अवस्था में जब युग्मित गुणसूत्र अलग होना प्रारम्भ करते हैं तब भीतरी क्रोमैटिड के टुकड़ों में विनिमय होता है। जिससे बाईवेलेंट गुणसूत्रों के चारों क्रोमैटिड में से अन्दर वाले Non-Sister Chromatid के बीच उनके कुछ भागों की अदला-बदली हो जाती है, इस क्रिया को जीन विनिमय कहते हैं, जबकि दोनों बाहरी Non-Sister Chromatid अपनी मूल अवस्था में रहते हैं। 

जानें- प्रोटीन का वर्गीकरण।

जीन विनिमय की विशेषताएँ (Characteristics of Crossing Over) 

  1. चार क्रोमैटिडों में केवल दो में Crossing over होगा तथा शेष दो अपना वास्तविक रूप बनाए रखेंगे।
  2. बाईवेलेंट के सिर्फ Non-Sister क्रोमैटिडों में Crossing over होगा। एक ही गुणसूत्र के क्रोमैटिडों में क्रॉसिंग ओवर नहीं होगा। 
  3. किएज्मेटा की संख्या बाईवेलेंट की लम्बाई पर निर्भर होगी अर्थात् गुणसूत्र जितने लम्बे होंगे, उतनी ही अधिक किएज्मेटा बनने की सम्भावना होगी। 
  4. गुणसूत्रों पर जीन्स जितनी दूरी पर स्थित होंगे, उतनी उनकी क्रॉसिंग ओवर के द्वारा पृथक् हो जाने की सम्भावना अधिक होगी।

जीन विनिमय के सिद्धांत (Theories of crossing over) 

(i) क्लासिकल थ्योरी या दो प्लेन सिद्धांत (Classi cal theory or two plane theory)

एल. डब्ल्यू शार्प (L.W.Sharp) ने 1934 में इस सिद्धांत के अनुसार किएज्मा का निर्माण आनुवंशिक विनिमय (Genetic Crossing-over) को बढ़ाता है। किएज्मेटा (Chiasmata) एक बिन्दु है, जहाँ समजात (Homolo gous), किन्तु सिस्टर नहीं (Non-Sister) अर्द्ध-गुणसूत्रों का आकस्मिक भौतिक विनिमय होता है। इस प्रकार की परिकल्पना में अर्द्ध-गुणसूत्रों के आस-पास (Adjacent) के लूप (Loop) का इक्वेशनल (Equational) जिसमें सिस्टर अर्द्ध-गुणसूत्र पृथक होते हैं एवं रिडक्शनल (Reductional) जिसमें अर्द्ध-गुणसूत्र पृथक नहीं होते, इसे दो प्लेन सिद्धान्त (Two plane theory) कहते हैं, जिनमें समीपवर्ती (Ad jacent) विभिन्न समतलों (Planes) एक-दूसरे के समकोण (Right angle) पर उपस्थित होते हैं।

(ii) किएज्मा प्रकार सिद्धांत या एक समतल सिद्धांत (Chiasma type theory or one plane theory) -

EA.Janssens, 1909 इस सिद्धान्त में, विनिमय विखण्डन (Breakage) के कारण होता है, जो कि समजात गुणसूत्रों से प्राप्त हुए नॉन-सिस्टर अर्द्ध-गुणसूत्रों (Non-Sister Chromatids) को आदान-प्रदान या पुर्नसंयोजन के बाद होता है। 

पढ़ें- हार्मोन क्या है।

क्लासिकल (Classical) या दो समतल सिद्धांत (Two plane theory) की अब केवल ऐतिहासिक महत्ता है एवं सभी प्रायोगिक प्रमाण 'किएज्मा प्रकार सिद्धांत' या 'एक समतल सिद्धांत' के पक्ष में जाते हैं।

(iii) प्रिकॉसिटी सिद्धांत (Precosity theory) 

C.D. Darlington के प्रिकॉसिटी सिद्धांत (Precosity theory) के आधार पर, डार्लिन्गटन (Darlington) ने - इसकी यह व्याख्या की है कि तनाव बल (Strain) का परिणाम, विनिमय (Crossing over), सिस्टर अर्द्ध-गुणसूत्रों (Sister Chromatids) तथा समजात गुणसूत्रों के कुण्डलित होने के कारण होता है।

(iv) बैलिंग्स की परिकल्पना (Belling's Hypoth esis)-

John Belling, 1928 तथा कॉपी चॉइस मॉडल (Copy choice modal)- कॉपी चॉइस मॉडल का अर्थ यह है कि एक नया संश्लेषित हुआ पुत्री अर्द्ध-गुणसूत्र, (Daughter Chromatids), एक खास दूरी द्वारा कॉपी (Copy) हुए गुणसूत्र के द्वारा व्युत्पन्न (Derived) होता है तथा बाद में दूसरे समजात गुणसूत्र पर जुड़ जाता (Switch ing) है। यह मॉडल DNA द्विगुण (DNA Replication) के कान्जर्वेटिव मोड (Conservative Mode) को बताता हैं।

(v) संकर DNA मॉडल (Hybrid DNA model) या हॉलीडे का मॉडल (Hollidays model-1960)- 

इस मॉडल में नान-सिस्टर अर्द्ध-गुणसूत्रों (Non-sister chromatids) के समजात से प्रत्येक दो DNA डुप्लेक्सेस (DNA duplexes) का एक सूत्र (Strand) टूटता (Break) है। इन विखण्डनों (Breakages) से एक सूत्र (Single Strand) निकलकर पूरक बेस युग्मन (Complementary base pairing) के साथ क्रॉसवाइज (Crosswise) जोड़ा बनाते हैं और इस प्रकार इसे DNA संकर मॉडल (DNA Hybrid model) का नाम दिया गया है।

क्रॉसिंग ओवर को प्रभावित करने वाले कारक (Factors affecting Crossing over) 

  1. उम्र बढ़ने के साथ किएज्मा बनने की आवृत्ति घट जाती है। 
  2. तापक्रम बढ़ने से किएज्मा निर्माण की आवृत्ति बढ़ जाती है। 
  3. विविध रसायनों के प्रभाव से भी किएज्मा की आवृत्ति घटती है। 
  4. जीन्स के बीच की दूरी बढ़ने या घटने पर किएज्मा निर्माण की आवृत्ति बढ़ती या पटती है।

उदाहरण - 1. ड्रोसोफिला में पुनः संयोग-धूसर (Grey) शरीर तथा लुप्तावशेषी (Vestigeal) पंखों वाली मक्खी (BBvv) तथा काले (Black) शरीर व लम्बे (Long) पंखों वाली मक्खी (bbvv) के संकरण से F, पीढ़ी में उत्पन्न सभी मक्खियों का काले शरीर व लुप्तावशेषी पंखों वाली अप्रभावी (Recessive) मक्खियों (bbvv) से परीक्षार्थ संकरण (Test cross) करने पर चार प्रकार की संतति मक्खियाँ मिलेगी -

Crossing over in Drosophila
  1. धूसर शरीर लुप्तावशेषी पंखों वाली - 41.5%
  2. काला शरीर, लम्बे पंखों वाली - 41.5%
  3. काला शरीर, लुप्तावशेषी पंख - 8.5%
  4. धूसर शरीर, लम्बे पंख - 8.5%

इस पोस्ट में हमने जीन विनिमय क्या है (what is Crossing over) जीन विनिमय के प्रकार ,जीन विनिमय की प्रक्रिया आदि के बारे में जाना। जीन विनिमय से सम्बंधित प्रश्न विभिन्न परीक्षाओं में पूछे जाते हैं।

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जीन विनिमय की विशेषताएं

विषाणुओं द्वारा संक्रमित रोग (Virus Germ disease in Hindi)

विषाणुओं द्वारा मनुष्य में होने वाली बीमारियों के बारे में एक लेख लिखिए।

नमस्कार दोस्तों, आंसर दुनिया में आपका स्वागत है। आज एक इस आर्टिकल में हम विषाणुओं द्वारा होने वाले संक्रमित रोग के बारे में जानने वाले हैं। विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं जैसे- UPSC,STATE PCS, RRB, NTPC ,SSC,RAILWAY, NET/JRF, CDS इत्यादि में विषाणुओं द्वारा संक्रमित रोग के बारे में पूछा जाता है। साथ ही हमें आपने स्वास्थ्य की नजर से भी विषाणुओं द्वारा संक्रमित रोग के बारे में जरुर जानना चाहिए।

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विषाणु (virus) अकोशिकीय अतिसूक्ष्म जीव हैं जो केवल जीवित कोशिका में ही वंश वृद्धि कर सकते हैं।[1] ये नाभिकीय अम्ल और प्रोटीन से मिलकर गठित होते हैं, शरीर के बाहर तो ये मृत-समान होते हैं परंतु शरीर के अंदर जीवित हो जाते हैं। इन्हे क्रिस्टल के रूप में इकट्ठा किया जा सकता है।
वायरस (virus) की रचना में न्यूक्लिक अम्ल प्रोटीन की परत से घिरी रहती है। वाइरस के विभिन्न प्रणालियों के द्वारा मनुष्य के शरीर में विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं, इनमें से महत्वपूर्ण बीमारियों के सम्बन्ध में निम्नलिखित वर्णन दिया जा रहा है।
विषाणुओं द्वारा संक्रमित रोग  (Virus Germ disease in Hindi)

  1. एड्स (AIDS) - 
  2. चेचक (Small pox) -  
  3. खसरा (Measles) - 
  4. पोलियो (Polio) - 
  5. रेबीज (rabies) - 
  6. फ्लू (Enfluenza) - 
  7. हीपेटाइटिस (Hepatitis) -

विषाणुओं द्वारा मनुष्य में होने वाली बीमारियों के नाम कुछ इस प्रकार हैं -

1. एड्स (AIDS) - 

एड्स (AIDS) का पूरा नाम "Acquired Immune Deficiency Syndrome" है। इस रोग से सन् 1980 में सर्वप्रथम न्यूयार्क में एक मनुष्य की मृत्यु हुई थी। उस मनुष्य की मृत्यु इम्यूनोसप्रेशन के कारण हुई थी। अतः उसी के आधार पर इस बीमारी का नाम ‘एड्स' रखा गया है। यह बीमारी अफ्रीका में बहुत ही सामान्य है और लगभग 2.5 मिलियन लोग AIDS वाइरस से प्रभावित है। इसकी शुरूआत यूरोप में हुई थी और इसके लक्षण के सम्बन्ध में सन् 1979 में अध्ययन किया गया।

2. चेचक (Small pox) -

यह variola virus नामक वाइरस से होता है। इसमें शरीर में छोटे-छोटे फफोले पड़ जाते हैं। गम्भीर रूप से बीमार व्यक्ति की आँख भी खराब हो सकती है। इलाज के लिए सावधानियाँ रखना आवश्यक है तथा बचाव के लिए चेचक का टीका लगवाना चाहिए।

जानें- एंजाइम क्या है।

3. खसरा (Measles) -

यह Measles virus नामक वाइरस से होता है। यह चेचक की तरह ही होता है। इसका संक्रमण बच्चों में सबसे अधिक होता है। इससे बचाव के लिए टीका लगवाना चाहिए। इसमे शरीर पर चकते बन जाते है साथ ही नाक बहते है, आँखे लाल हो जाती है, कभी-कभी खासी भी आती है।

4. पोलियो (Polio) - 

यह Polio-virus नामक वाइरस से होता है। यह कम उम्र के बच्चों में होने वाली वाइरल बीमारी है। इसमें हाथ या पैर या दोनों ही अंग का नियंत्रण समाप्त हो जाता है। साथ ही मुँह से लार बहना एवं जबान का लड़खड़ाना भी अन्य लक्षण है। इस बीमारी से बचाव के लिये गर्भावस्था में ही माता को पोलियों का टीका लगवाना चाहिए और बच्चों को पैदा होने के तीन दिनों के अन्दर DPT के टीके लगवाना चाहिए। 

5. रेबीज (rabies) - 

यह कुत्ते के काटने से फैलता है। यह Rabies lyssavirus नामक वाइरस से होता है। इस बीमारी में मरीज पानी से डरता है। बचाव के लिये समय समय पर एण्टीरेबीज का टीका लगवाना चाहिए।

6. फ्लू (Enfluenza) - 

यह influenza नामक वाइरस से होता है। इन्फ़्लुएन्ज़ा (श्लैष्मिक ज्वर) विशेष समूह के वायरस के कारण मानव में होनेवाला एक संक्रामक (pathogenic) रोग है। इसमें सर्दी हो जाती है, छींक आती है और हल्का सा बुखार हो जाता है। 

7. हीपेटाइटिस (Hepatitis) - 

यह मनुष्यों में होने वाली बीमारी है जो कि दूषित जल पीने से फैलता है। यह कैंसर से भी खतरनाक बीमारी है। इसमें समय रहते उपचार नहीं करने पर मरीज की मृत्यु हो जाती है। इसके बचाव के लिए “एण्टी-हीपेटाइटिस” का इंजेक्शन लगवा लेना चाहिए।


इस आर्टिकल में हमने विषाणुओं द्वारा होने वाले संक्रमित रोग के बारे में जाना। विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में विषाणुओं द्वारा संक्रमित रोग  के बारे में पूछा जाता है।

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Virus in Hindi | विषाणु क्या है | Virus kya hai

विषाणु क्या है और विषाणु की संरचना | Virus in Hindi | Vishanu kya hai?

नमस्कार दोस्तों आज के इस पोस्ट में  विषाणु क्या है, विषाणु की सरंचना का वर्णन, महत्वपूर्ण लक्षण, विषाणु की प्रकृति, साथ ही विषाणु जनन के बारे में जानेंगे। विषाणु शब्द का इस्तेमाल अक्सर हम दैनिक जीवन में करते रहते हैं। जिसे अंग्रेजी में वायरस कहा जाता है। कोरोना महामारी आने के बाद इस विषाणु यानि वायरस शब्द से सभी परिचित हो गए हैं। इस पोस्ट मे हम विषाणु और उसकी सरंचना के बारे में जानने वाले हैं।

Virus in Hindi

Virus in Hindi | Virus kya hai

विषाणु (Viruses)- विषाणु या वायरस शब्द का उद्गम लैटिन भाषा से हुआ है, जिसका अर्थ घातक विष (Morbid poison) होता है। मनुष्यों में अनेक भयंकर बीमारियाँ जैसे- इन्फ्लूएंजा, पोलियो, चेचक (Smallpox) वाइरस के कारण ही होती है। वायरस अति सूक्ष्मजीवियों का एक समूह है, जो परजीवी होते हैं । वायरस को न तो पादपों में और न ही जन्तुओं की श्रेणी में रखा जा सकता है।

पाश्चर (Pasture, 1867) ने सर्वप्रथम कीटों में वायरस रोगों का अध्ययन किया जिसे फ्लैकरी (Flacherie) कहा गया। इवॉनोस्की (Iwanoski) ने सन् 1892 में इस वायरस के प्रकृति का अध्ययन किया। बाद में अनेक वैज्ञानिकों ने विभिन्न जन्तुओं में पाए जाने वाले वायरस के सम्बन्ध में बताया।

पढ़ें- जीन उत्परिवर्तन क्या है।

virus in hindi
structure of virus in hindi
वायरस की संरचना
virus structure in hindi
vishanu kya hai
virus ki sanrachna
virus kya hai
विषाणु क्या है
virus ki sanrachna in hindi
विषाणु की संरचना का सचित्र वर्णन

विषाणु की संरचना का वर्णन कीजिए?

विषाणु के महत्वपूर्ण लक्षण (vital signs of the virus in hindi)- 

विषाणुओं के महत्वपूर्ण भौतिक एवं रासायनिक गुण निम्नलिखित हैं विषाणु केवल सूक्ष्मदर्शी द्वारा ही देखे जा सकते हैं और बैक्टीरिया से आकार में छोटे होते हैं। 

  1. ये बैक्टीरियल फिल्टर्स से छनकर निकल जाते हैं। 
  2. ये अनिवार्य परजीवी हैं, जो कि सिर्फ जीवित कोशिकाओं में ही वृद्धि और गुणन कर सकते हैं। 
  3. ये कृत्रिम संवर्धन पर नहीं उगाए जा सकते हैं।
  4. ये विशिष्ट प्रकार के पोषकों तथा ऊतकों पर ही आक्रमण करते हैं।
  5. ये ताप तथा रासायनिक पदार्थ द्वारा निष्क्रिय किए जा सकते हैं।
  6. ये परपोषी (Host) के प्रति विशिष्टता प्रदर्शित करते हैं। 
  7. ये न्यूक्लियों प्रोटीन के बने क्रिस्टल होते हैं। 
  8. इनमें आनुवंशिक पदार्थ DNA या RNA होते हैं।

विषाणु की प्रकृति (Nature of Viruses in hindi) -

वायरस की प्रकृति के बारें में अनेक वैज्ञानिकों ने अनेक प्रकार के मत प्रस्तुत किए हैं। कुछ ने वायरस को सजीव तो कुछ ने इसे निर्जीव माना है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित मत प्रस्तुत किए गये हैं -

(A) विषाणु के निर्जीव लक्षण (non-living symptoms of virus)

  1. इन्हें आसानी से रवों (Crystals) में प्राप्त किया जा सकता है। । 
  2. पोषक के शरीर के बाहर ये निष्क्रिय रासायनिक पदार्थों के समान होते हैं। 
  3. इसमें श्वसन, प्रकाश-संश्लेषण आदि जैसी क्रियायें नहीं पाई जाती हैं। 
  4. इसमें कोशिका-भित्ति कोशिका कला तथा जीवद्रव्य का अभाव होता है। 
  5. इसमें एन्जाइमी तंत्र नहीं पाया जाता है।

(B) विषाणु के सजीव लक्षण (Living properties of viruses) 

  1. वायरस में वृद्धि तथा जनन की क्रियाएँ जीवित कोशिका के अन्दर ही होती है।
  2. इनमें ताप, रसायन आदि के प्रति उद्दीपन होता है। 
  3. ये जीवित पादप, जन्तुओं तथा जीवाणु में रोग उत्पन्न करते हैं। 
  4. इनका आनुवंशिक पदार्थ पुनरावृत्ति (Replication) करता है। 
  5. इनमें RNA या DNA तथा प्रोटीन्स पायी जाती है।
  6. पोषक के प्रति विशिष्ट होते हैं। 
  7. ये एक परपोषी से दूसरे परपोषी में संचारित हो जात हैं। 
  8. इनमें गुणन (Multiplication) तथा उत्परिवर्तन (Mutation) होता है। 
  9. प्रत्येक वाइरस में न्यूक्लिक अम्ल होता है, जो प्रोटीन के आवरण द्वारा घिरा रहता है।

आकृति एवं माप (Shape and size of virus)- 

ये विभिन्न आकृति तथा साइज वाले होते हैं। ये गोलाकार (Spherical), छड़ के आकार (Rod shaped) से लेकर बहुतलीय (Polyhedral) कुण्डलित (Coiled) अथवा सर्पिल (Spiral) आकार के होते हैं। वाइरस 174 व्यास से लेकर 500 x 121 तक के होते हैं।

विषाणु की संरचना (Structure of virus in hindi) - 

विषाणु न्यूक्लिक अम्ल तथा प्रोटीन्स के बने हुए होते हैं । प्रोटीन न्यूक्लिक अम्ल के चारों ओर एक आवरण बनाता है, जो कि कैप्सिड कहलाता है। विषाणु के मध्य में न्यूक्लिक अम्ल का केन्द्रीय कोर होता है। न्यूक्लिक अम्ल में RNA या DNA पाये जाते हैं। केन्द्रीय कोर तथा कैप्सिड को संयुक्त रूप से न्यूक्लियोंकैप्सिड कहते हैं।

tmv virus structure

तम्बाकू मोजैक विषाणु (TMV) की संरचना बेलनाकार होती है, जिसका व्यास 160A तथा लम्बाई 3000A होती है। प्रोटीन आवरण अनेक (2130) उपइकाइयों में विभक्त रहता है, जिन्हें कैप्सोमीयर (Capsomere) कहते हैं । इनका RNA 2130 कैप्सोमीयर्स को कुण्डलित रूप से जोड़ता है। शुष्क भार के अनुसार प्रोटीन 94.5% तथा न्यूक्लिक अम्ल 5.5% होता है।

कुछ जन्तु विषाणुओं एवं जीवाणुभोजी (Bacteriophage) में DNA पाया जाता है। विषाणु का न्यूक्लिक अम्ल RNA या DNA ही संक्रामक होता है। यही विषाणु के लिये प्रोटीन-संश्लेषण को नियंत्रित करता है और अपने लिए पुनरुत्पादित होते हैं। विषाणु में कार्बोहाइड्रेट और लाइपोइड्स का पूर्ण अभाव रहता है। इनमें कोई भी एन्जाइम तंत्र नहीं पाया जाता है। अतः ये पोषक के ही एन्जाइम तंत्र को नियंत्रित कर उसकी ऊर्जा से अपना गुणन करते हैं।

जानें- 100+ जनरल नॉलेज प्रश्न उत्तर

विषाणु जनन (Virus Reproduction in hindi)-

विषाणु केवल पोषक की जीवित कोशिकाओं में ही पुनरुत्पादित हो सकते हैं। पोषक के बाहर ये निष्क्रिय होते हैं। पोषक कोशिका के भीतर प्रवेश कर ये अपना प्रोटीन आवरण छोड़ देते हैं और न्यूक्लिक अम्ल कोशिका के भीतर स्वतंत्र हो जाता है। पोषक कोशिका इस तरह विषाणु के समान न्यूक्लिक अम्ल बनाना शुरू कर देती है और इस प्रकार विषाणु का गुणन अलैंगिक विधि से हो जाता है। यह गुणन की क्रिया दो चरणों में पूरी होती है।

(1) प्रारंभिक चरण (Early period)- इस चरण में वायरस जीनोम गुणन हेतु सक्रिय होता है। इनमें पोषी के DNA, RNA तथा प्रोटीन-संश्लेषण का नियंत्रण करके प्रोटीन-संश्लेषण वायरस के अनुसार होता है, फिर वायरस के DNA एवं RNA की तरह संश्लेषण होता है।

(ii) पश्चात् चरण (Late period)- इस चरण में VIRUS की क्रिया उभर जाती है और वायरस जीनोम एवं प्रोटीन के मिलने से नए वायरस का निर्माण होता है। यह क्रिया मार्कोजिनेसिस (Morphogenesis) कहलाती है। इस प्रकार से नए वायरस का निर्माण पूर्ण होता है।

इस पोस्ट में हमने विषाणु क्या है, विषाणु की सरंचना का वर्णन, महत्वपूर्ण लक्षण, विषाणु की प्रकृति, साथ ही विषाणु जनन के बारे में विस्तार से जाना। विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में विषाणु से जुड़े प्रश्न पूछे जाते हैं। इस लिए विषाणु से सम्बंधित इन सामान्य प्रश्नों के बारे में हमें जरुर पता होना चाहिए।

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टॉक्सिकोलॉजी क्या हैं (what is toxicology)

टॉक्सिकोलॉजी (विषविज्ञान) क्या हैं (what is toxicology)

नमस्कार, आंसर दुनिया में आपका स्वागत है। इस आर्टिकल में हम टॉक्सिकोलॉजी की परिभाषा क्या हैं टॉक्सिकोलॉजी का क्या मतलब होता हैं साथ ही हम टॉक्सिकोलॉजी  की विभिन्न शाखाओ के बारे में भी जानेंगे | टॉक्सिकोलॉजी से जुडी इस महत्वपूर्ण जानकरी को पूरा जरुर पढ़े।


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टॉक्सिकोलॉजी क्या हैं ?

टॉक्सिकोलॉजी विज्ञान की वह शाखा है, जिसके अन्तर्गत विषों की प्रकृति, गुणों प्रभाव एवं उनकी पहचान करते हैं। टॉक्सिकोलॉजी एनवाइरनमेन्टल साइंस का बहुआयामी क्षेत्र हैं जो कि अनेकों क्षेत्रों से मिलकर बना है  जैसे-इकोलोजी, एनवाइरनमेन्टल बायोलाजी, एनवाइरनमेन्टल केमिस्ट्री आदि तथा दिन-प्रतिदिन इसका स्कोप बढ़ता ही जा रहा है।

तो अब आप समझ गये होंगे की टॉक्सिकोलॉजी  क्या हैं टॉक्सिकोलॉजी  किसे कहते हैं तो चलिए अब टॉक्सिकोलॉजी  की विभिन्न शाखाओ के बारे में जानते हैं।

टॉक्सिकोलॉजी की शाखाएँ (Branches of Toxicology)

1. वातावरणीय टॉक्सिकोलॉजी (Environmental Toxicology)

एनवाइरनमेण्टल टॉक्सिकोलॉजी के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के रसायन जो कि एटमोस्फियर (Atmosphere), हाइड्रोस्फियर (Hydrosphere), लिथोस्फियर (Lithosphere) या बायोस्फियर (Biosphere) में पाये जाते हैं, उन केमिकल्स के दुष्प्रभावों का अध्ययन है। कृषि-उद्यान, कृषि, मृदा तथा जलीय शालाओं में टॉक्सिक रसायनों (Toxic chemicals) का प्रयोग तेजी से बढ़ रहा है। 

इनमें से अनेक रसायनों का प्रयोग घरों व कारखानों तथा उद्योगों में किया जा रहा है। अनेक उद्योगों से टॉक्सिक रसायन अपशिष्ट पदार्थों के रूप में विसर्जित हो रहे हैं। इस प्रकार के विभिन्न प्रदूषकों के कारण पर्यावरण क्षीण होता जा रहा हैहम वातावरणीय टॉक्सिकोलॉजी (Environmental Toxicology) के अन्तर्गत जीवों एवं जीव मण्डल पर इन प्रदूषकों के प्रभाव एवं कारणों का अध्ययन करते हैं।

2. फोरेन्सिक टॉक्सिकोलॉजी (Forensic Toxicology)

इसमें टॉक्सिकोलॉजी (Toxicology) के मौलिक सिद्धांत एवं विश्लेषिक रासायनिकी (Analytical chemistry) का अध्ययन करते हैं। इसके अन्तर्गत रसायनों व अनेक प्रयोग के प्रभाव, अभिज्ञान, उपचार एवं मात्रात्मक परीक्षण (Quantitative test) का अध्ययन करते हैं। यह जानकारी न्यायालयों में अदालती जाँच के समय उपयोगी होती है।

 किसी को विष देने या विष लेने का सन्देह होने पर इसकी सत्यता प्रमाणित करने के लिए फोरेन्सिक टॉक्सिकोलॉजी की विधियों का उपयोग किया जाता है। फोरेन्सिक टॉक्सिकोलॉजी द्वारा परिस्थतियों एवं उपलब्ध प्रमाणों की जानकारी के साथ-साथ सम्बन्धित व्यक्ति की मानसिक दशा, उसकी सामाजिक आर्थिक परिस्थिति तथा मृत्यु से पूर्व होने वाली घटनाओं का भी अध्ययन किया जाता है।

जानें- विषाणुओं द्वारा संक्रमित रोग।

3. इकोनॉमिक टॉक्सिकोलॉजी (Economic Toxicology)

इसके अन्तर्गत बायोलॉजिक सिस्टम या दवाइयों आदि के प्रयोग से होने वाले दुष्प्रभावों का अध्ययन है। जैसे विभिन्न खाद्य पदार्थों में पाये जाने वाले रसायन, जो स्वाद एवं सुगन्ध को बढ़ाने में प्रयोग करते हैं, जैसे प्रिजर्वेटिव, कलरैब्ट्स, फ्लेवोरेंटस आदि। इसी प्रकार अनेक कीटनाशक एवं पेस्टीसाइड (Insecticide and Pesticide) अनेक प्रकार के कीटों एवं पीड़कों (Pests) को नष्ट करने में सक्षम हैं, किन्तु आर्थिक महत्व वाले जीवों पर इनका कोई प्रभाव नहीं . पड़ता है। 

आर्थिक टॉक्सिकोलॉजी के अन्तर्गत विभिन्न रसायनों के अवांछनीय एवं लाभदायक प्रभावों का विभिन्न जीवों पर अध्ययन करते हैं। यह भी देखा जाता है कि किन परिस्थितियों में ये प्रभाव विकसित होते हैं तथा वे कौन से रासायनिक एवं जैव कारक हैं, जो इन रसायनों की वरण क्षमता (Selectivity) का नियमन करते हैं।

पढ़ें- जीन-विनिमय क्या है।

टॉक्सिकोलॉजी का क्षेत्र (Scope of Toxicology)

विषैले पदार्थ के विज्ञान को टॉक्सिकोलॉजी (Toxicology) कहते हैं। यह विज्ञान की नवीनतम शाखा है। वर्तमान में इसका विस्तार तेजी से हो रहा है। इसका सम्बन्ध जीवों पर रासायनिक पदार्थों के प्रतिकूल प्रभावों तथा उसकी सम्भावनाओं से हैं। टॉक्सिकोलॉजी (Toxicology) पर्यावरण विज्ञान की एक शाखा है

इसकी अनेक शाखाओं का परस्पर घनिष्ठ संबंध है। टॉक्सिकोलॉजी (Toxicology) के अन्तर्गत हम पर्यावरण में उपस्थित विभिन्न रासायनिक पदार्थों की सान्द्रता, वितरण, रूपान्तरण एवं अन्त में उत्सर्जन का अध्ययन करते हैं। 

संभाव्य रूप से टॉक्सिक (Toxic) पदार्थों द्वारा पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव तथा पर्यावरण द्वारा इनके प्रति प्रतिक्रया की जानकारी के लिए निम्नलिखित कारकों की जानकारी होनी आवश्यक हैं -

(i) भौतिक कारक- टॉक्सिन की आण्विक संरचना, विलेयता का गुण, अवशोषण, सान्द्रता आदि का उत्पादन। 

(ii) रासायनिक अध्ययन-  टॉक्सिन की रासायनिक क्रिया से जल-अपघटन तथा प्रकाशीय अपघटन का अध्ययन होता है। 

(iii) जैविक कारक- इसके अंतर्गत जैव स्थानान्तरण की जानकारी प्राप्त की जाती है। जीवों पर टॉक्सिक पदार्थों के प्रभाव को समझने के लिए पारिस्थितिक विज्ञान, शरीर क्रिया विज्ञान, जैव जीवों पर टॉक्सिक पदार्थों के प्रभावों को समझने के लिए पारिस्थितिक विज्ञान, शरीर क्रिया-विज्ञान, जैव रसायन, औतिकी एवं व्यवहार से संबंधित जानकारी होना आवश्यक है।

इस आर्टिकल में हमने टॉक्सिकोलॉजी क्या हैं के बारे में विस्तार से जाना। टॉक्सिकोलॉजी  विज्ञानं की ही एक शाखा है। विभिन्न परीक्षाओं में टॉक्सिकोलॉजी क्या हैं से जुड़े प्रश्न पूछे जाते हैं।

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कार्बन चक्र और फास्फोरस चक्र | Carbon Cycle and Phosphorus cycle

कार्बन चक्र और फास्फोरस चक्र

हेल्लो दोस्तों आज के इस उपयोगी और महत्वपूर्ण आर्टिकल में हम कार्बन चक्र और फास्फोरस चक्र के बारे में जानेंगे। ये चक्र एग्जाम के दृष्टी से उपयोगी है कार्बन चक्र और फास्फोरस चक्र यह प्रश्न अक्सर कई परीक्षाओ में पूछा जाता ही हैं तो आपको इसे लिखकर अभ्यास करना चाहिए और इसकी तैयारी करनी चाहिए | 

आगे हम जानेंगे की कार्बन चक्र क्या हैं कार्बन चक्र कैसे पूरा होता हैं कार्बन चक्र से जुडी अन्य महत्वपूर्ण जानकरी को समझेंगे तो जानकारी पूरी जरुर पढ़े और शेयर भी करें 

कार्बन चक्र क्या हैं?

कार्बन चक्र जैव-भूरासायनिक चक्र है जिसके द्वारा कार्बन का जीवमंडल, मृदामंडल, भूमंडल, जलमंडल और पृथ्वी के वायुमंडल के साथ विनिमय होता है। यह पृथ्वी के सबसे महत्वपूर्ण चक्रों में एक है और जीवमंडल तथा उसके समस्त जीवों के साथ कार्बन के पुनर्नवीनीकरण और पुनरुपयोग को अनुमत करता है.

कार्बन चक्र और कार्बन डाइ-ऑक्साइड चक्र दोनों इसी चक्र को कहते है.

Carbon Cycle

जीवन का आधार माने जाने वाले जीव द्रव्य (Protoplasm) में उपस्थित सभी कार्बनिक यौगिकों, जैसे-प्रोटीन्स, कार्बोहाइड्रेटस, वसा तथा न्यूक्लिक अम्ल आदि सभी जीवधारियों के लिए प्रमुख ऊर्जा के स्रोत हैं। इनके ऑक्सीकरण से ऊर्जा मिलती है। वायुमण्डल में 0.03%, CO2 होती है। इसका उपयोग सर्वप्रथम हरे पौधे करते हैं और प्रकाश-संश्लेषण (Photosynth) द्वारा कार्बोहाइड्रेट का निर्माण करते हैं। 

6CO2 +6H2O → C6H12O6 +6O2

नोट - यह अभिक्रिया प्रकाश और क्लोरोफिल की उपस्थिति में पूर्ण होती है.

शाकाहारी प्राणी इन पौधों को ग्रहण करते हैं, जिससे ये कार्बनिक पदार्थ प्राणियों के शरीर में पहुँच जाते हैं।शाकाहारी प्राणियों को मांसाहारी प्राणी खाते हैं और ये कार्बनिक पदार्थ मांसाहारी प्राणियों के शरीर में पहुँच जाते हैं। इनमें से कुछ भाग शरीर की वृद्धि के लिए उपयोग में ले ली जाती है। कुछ भाग श्वसन क्रिया में CO, में परिवर्तित होकर वायुमण्डल में चली जाती है। 

वायुमण्डल की CO2 का कुछ भाग समुद्र जल द्वारा अवशोषित होकर समुद्री पौधों द्वारा प्रकाश-संश्लेषण में उपयोग कर ली जाती है और कुछ Co, कार्बोनेट के रूप में अवशोषित हो जाता है। प्राणियों और पौधों की मृत्यु के बाद कार्बनिक पदार्थ CO2 और H20 में अपघटित हो जाते हैं, जिसे पुनः पौधों द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है। इस प्रकार CO2 का चक्र चलता है।

तो यहाँ हमने कार्बन चक्र के बारे में जाना की कार्बन चक्र क्या हैं और कार्बन चक्र क्या हैं कैसे पूरा होता हैं कार्बन चक्र कैसे काम करता हैं आगे चलिए हम जानते है की फॉस्फोरस चक्र क्या हैं और फॉस्फोरस चक्र कैसे कम करता हैं साथ ही हम जानेंगे की फॉस्फोरस चक्र कैसे पूरा होता हैं |


फॉस्फोरस चक्र -( Phosphorus cycle )

फॉस्फोरस चक्र क्या हैं ?

फॉस्फोरस चक्र जैविक और अजैविक तन्त्रों के बीच चक्रीय परिभ्रमण, फॉस्फोरस चक्र कहलाता है। यह एक तलछटीय या अवसादी चक्र (Sedimentary cycle) है। प्राणियों में फॉस्फोरस एवं अन्य तत्वों का अनुपात प्राप्त एवं प्राथमिक सम्पदा की अपेक्षा काफी ज्यादा होता है।

Phosphorus cycle

फॉस्फोरस के स्त्रोत और चक्रीय परिभ्रमण

फॉस्फोरस का स्रोत पृथ्वी की चट्टान, शैल तथा ऐसे निक्षेप (Deposits) है, जो पिछले भूवैज्ञानिक काल में निर्मित हुए। फॉस्फेट युक्त चट्टानों पर अनेक अपरदन (Erosion) क्रियाएँ (भौतिकीय, रासायनिक, जैविक) होती रहती हैं जिसके फलस्वरूप फॉस्फेट मृदा में मिलता रहता है, जहाँ इसका कुछ भाग उछले अवसादों (Sediments) में निक्षेपित होता रहता है तथा कुछ गहराई पर स्थित अवसादों (Sedans) में विलीन हो जाता है।

1.फॉस्फोरस का स्थानान्तरण- फॉस्फोरस पौधों से शाकाहारी उपभोक्ता जन्तुओं तक पहुँचता है, जहाँ से यह द्वितीयक, उपभोक्ता, मांसाहारी जन्तुओं के शरीर में प्रवेश करता है। इस प्रकार फॉस्फेट खाद्य श्रृंखला के विभिन्न पोषक स्तरों (Trophic levels) से होते हुए भूमि में पहुँचता है। 

2. चक्र से फॉस्फोरस की हानि- जीवों की पहुँच एवं जल संचरण से फॉस्फोरस को दूर हटाने वाली भौतिक विधियों में अवसादन भी एक प्रक्रिया है। फॉस्फेट की बड़ी मात्रा भूमि से तलछट (Sedimentation) द्वारा बहकर समुद्र की तली में और चट्टानों में जमा हो जाती है।

इस चक्र का मुख्य भाग से फॉस्फोरस की हानि के लिए दाँतों व हड्डियों का निर्माण तथा प्राणियों द्वारा उत्सर्जन जैसी जैविक क्रियाएँ उत्तरदायी हैं। कई विधियाँ इस तत्व को कम मात्रा में पुनः चक्रीय पथ में डाल देती हैं। जीवों के उत्सर्जन और मल पदार्थ द्वारा फॉस्फोरस भूमि में मिल जाता है और तलछट (Sedimentation) चट्टानों में पहुंचकर अधिकांश भाग अप्राप्य हो जाता है। इस चक्र से हुई हानि की तुलना में पुनः प्रवेश कराने वाली विधियाँ अपेक्षाकृत कम रहती है।


इस पोस्ट में हमें कार्बन और फास्फोरस चक्र के बारे में विस्तार से जाना। विभिन्न परीक्षाओं में कार्बन चक्र और फास्फोरस चक्र से जुड़े प्रश्न पूछे जाते हैं ।

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नाइट्रोजन और ऑक्सीजन चक्र (nitrogen and oxygen cycle)

नाइट्रोजन और ऑक्सीजन चक्र (nitrogen and oxygen cycle)

हेल्लो दोस्तों इस आर्टिकल में  नाइट्रोजन चक्र (Nitrogen cycle) और ऑक्सीजन चक्र (Oxygen cycle) के बारे में विस्तार से जानेंगे। .नाइट्रोजन चक्र (Nitrogen cycle) और ऑक्सीजन चक्र (Oxygen cycle) परीक्षा में पूछे जाते है. नीचे आपको नाइट्रोजन चक्र (Nitrogen cycle) | ऑक्सीजन चक्र (Oxygen cycle) की पूरी जानकारी दी गई हैं।

1. नाइट्रोजन के स्रोत (Source of Nitrogen)

(a) वायुमण्डल (नाइट्रोजन चक्र) का मुख्य स्रोत है जो लगभग 79% आयतन की दृष्टि में उपस्थित रहती है। लेकिन जीव वायुमण्डल की इस नाइट्रोजन को सीधे ग्रहण करने में असमर्थ होते हैं। यह नाइट्रेट या नाइट्रेट आयन्स (NO,) के रूप में उपयोग की जा सकती है। 

(b) जल व भूमि में रहने वाले नीले-हरे शैवाल (Blue green algae) तथा नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जीव ही नाइट्रोजन का सीधे उपयोग कर सकते हैं। 

(c) पौधे नाइट्रेट आयन (NOJ) को अमीनो समूह में बदलते हैं, जिसे पौधे जमीन से ग्रहण करते हैं। पौधों से नाइट्रोजन शाकाहारी प्राणियों और उनसे मांसाहारी प्राणियों के शरीर में पहुँचती है। जल एवं भूमि में उपस्थित नाइट्रेट भी नाइट्रोजन के मुख्य स्रोत हैं। 

पौधे नाइट्रेट का अवशोषण के करके उन्हें अमीनों अम्ल तथा प्रोटीन्स में बदल देते हैं, जिन्हें प्राणी ग्रहण करते हैं । मृत पेड़-पौधों व जन्तुओं के शरीर में स्थित नाइट्रोजनी कार्बनिक पदार्थ तथा उत्सर्जी पदार्थों पर जीवाणु क्रिया करके उन्हें पुनः नाइट्रेट में बदल देते हैं, जिन्हें पौधे पुनः ग्रहण करते हैं।

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जीवाणु नाइट्रोजन का स्थिरीकरण (Fixation of Nitrogen)-

नाइट्रोजन स्थिरीकरण वह क्रिया है जिसके द्वारा वायुमण्डलीय नाइट्रोजन जल में घुलनशील नाइट्रोजनीय यौगिकों जैसे NHA, NHA, NO3, NO, आदि में बदल दी जाती है। 

नाइट्रोजन का स्थिरीकरण दो प्रकार से होता है 

1. विद्युत्-रासायनिक स्थिरीकरण (Electro-chemical fixation) 

2. जैविक स्थिरीकरण (Biological fixation)।


  1. विद्युत्-रासायनिक स्थिरीकरण (Electro-chemical fixation)-वायुमण्डलीय विद्युत् या तड़ित विद्युत (Lighting electric discharge) जो बादलों की क्रिया से बनती है, नाइट्रोजन को नाइट्रेट्स और नाइट्राइट्स में बदल देती है। N2+02→2NO 2NO+02→2NO, +02-2NOJ 
  2. जैविक स्थिरीकरण (Biological fixation)-कुछ जीवधारी जैसे-बैक्टीरिया नील-हरित शैवाल, कवक तथा अन्य सूक्ष्मजीव वायुमण्डलीय स्वतन्त्र नाइट्रोजन को घुलनशील लवणों में बदले देते हैं। इस विधि से लगभग 140 से 700mg/m2 प्रति वर्ष नाइट्रोजन स्थिर की जाती है। 

सूक्ष्मजीव जो नाइट्रोजन स्थिरीकरण करते हैं, वे प्रमुख रूप से राइजोबियम (Rh : zobium), ऐजोबैक्टर (Azobactor), क्लोस्ट्रीडियम (Clostridium), नाइट्रोमोनास (Nitromonas), नाइट्रोबैक्टर (Nitrobactor), नाइट्रोकोककस (Nitrococcus), नॉस्टॉक (Nostoc) आदि हैं।

तो यहाँ हमने Nitrogen cycle (नाइट्रोजन चक्र)  के बारे में जाना साथ ही नाइट्रोजन स्थिरीकरण  क्या हैं और नाइट्रोजन स्थिरीकरण  के प्रकार को जाना अब आगे हम ऑक्सीजन चक्र के बारे में जानेंगे जैसे की ऑक्सीजन चक्र की हैं ऑक्सीजन चक्र कैसे पूरा होता हैं साथ ही ऑक्सीजन चक्र से जुडी अन्य महत्वपूर्ण जानकारी | 

ऑक्सीजन चक्र (Oxygen cycle)

वायुमण्डल में ऑक्सीजन 21% होता है। ऑक्सीजन चक्र  जीवों में श्वसन के द्वारा ग्रहण की जाती है। यह कार्बोहाइड्रेट्स का ऑक्सीकरण करके पानी और कार्बन डाइ-ऑक्साइड बनाती है। C6H1206 +60276H2O+6CO2 +673k.cals O, जीव की मृत्यु के बाद क्षय होकर पुनः वातावरण में CO, तथा पानी के रूप में चली जाती है। 

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पौधों में जल कच्चे पदार्थ के रूप में कार्य करता है और प्रकाश-संश्लेषण (Photosynthesis) में 02 और H, में टूट जाता है। स्वतंत्र में ऑक्सीजन वायुमण्डल में चली जाती है। इस प्रकार ऑक्सीजन चक्र चलता है।


इस आर्टिकल मे हमने नाइट्रोजन और ऑक्सीजन चक्र (nitrogen and oxygen cycle) के बारे में जाना। पृथ्वी पर जीवन यापन करने वाले सभी जीव जंतुओं और पेड़ पौधों के ऑक्सीजन सबसे ज्यादा जरुरी है ऑक्सीजन के बिना मानव जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। इसलिए हमें नाइट्रोजन और ऑक्सीजन चक्र (nitrogen and oxygen cycle) के बारे में जरुर जानना चाहिए।

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कोकीन क्या है और कोकीन का उपयोग (What is cocaine and its uses)

कोकेन क्या है? (What is Cocaine)

नमस्कार, आंसर दुनिया में आपका स्वागत है। क्या आपने कभी सुना या पढ़ा हैं कि कोकीन क्या है और उसके क्या उपयोग होते हैं इस पोस्ट में हम आपको बताने जा रहे हैं की  कोकेन क्या है और  कोकेन क्या उपयोग हैं | साथ ही आपको  कोकेन से जुडी अन्य कई जानकारी नीचे दिए जा रहे हैं।

कोकीन यह बहुत पावर फूल नशीला पदार्थ है जो कोका पौधे के पत्ती से बनता है, यह ज्यादातर साउथ अमेरिका में पाया जाता है, यह एक क्रिस्टलीय ट्रोपेन है यह केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र का एक उत्तेजक और क्षुधा मारक है विशेष रूप में यह एक सेरोटोनिन नोरेपिने फ्राइन डोपामिन रीअपटेक प्रावरोधक है जो बाहरी केटकोलाइन ट्रांसपोर्टर लिगेंड जैसे कार्यक्षमता की मध्यस्थता करता है।

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क्योंकि जिस तरह से यह मेसोलिम्बिक रिवार्ड पाथवे को प्रभावित करता है कोकने व्यसनकारी है। cocaine अधिकांश देशों में कोकीन के उत्पादो का उत्पादन वितरण और बिक्री प्रतिबंधित है। जैसे कि सिंगल कन्वेशन आन नारकॉटिक ड्रग्स द्वारा विनियमित है।

सयुक्त राज्य अमेरिका में कोकेन के उत्पादन, आयम वितरण (Controlled sub stances Act (CSH) 1970) द्वारा विनियमित है। कुछ देश जैसे पेरू और बोलिविया को पारंपरिक उपभोग के लिए कोका पत्ती की खेती की अनुमति है लेकिन फिर भी बिक्री पर निषेध है। इसके अलावा यूरोप के कुछ हिस्सों में उपयोग की अनुमति है।

कोका पत्ती (coca leaf) -

पिछले करीब हजार साल से दक्षिण अमेरिका के देशी लोग कोका पत्ती (एरिथ्रोसाईलोन कोका) चबाते रहे हैं, एक पौधा जिसमें महत्वपूर्ण पोषक तत्व होते हैं और साथ ही साथ कोकेन सहित कई उपक्षार भी होते हैं। इस पत्ते को, कुछ देशी समुदायों द्वारा लगभग सार्वभौमिक रूप से चबाया जाता था और है - प्राचीन पेरू की ममी के साथ कोका की पत्तियां और मिट्टी के बर्तनों के अवशेष मिले हैं और यह उस अवधि से है जब मनुष्य को, कुछ चबाते हुए जिससे उनके गाल फूले हुए से लगते हैं, चित्रित किया गया है। इस बात के भी सबूत हैं कि ये संस्कृतियां ट्रीपनेशन की क्रिया के लिए एक चेतनाशून्य करनेवाली औषधि के रूप में कोका की पत्तियों और लार के मिश्रण का प्रयोग करती थीं।

जब स्पेनिअर्ड ने दक्षिण अमेरिका पर विजय प्राप्त की, तो उन्होंने शुरू में आदिवासी दावों की अनदेखी की कि इस पत्ती से उन्हें ताकत और ऊर्जा मिलती है और उन्होंने उसे चबाने के रिवाज़ को शैतान का काम घोषित किया। लेकिन यह पता चलने पर कि इन दावों में सच्चाई है, उन्होंने पत्ते को वैध और कर लगा दिया जिसके तहत वे हर फसल के मूल्य से 10% लेते थे। 1569 में, निकोलस मोनार्देस ने मूल निवासियों द्वारा तम्बाकू के मिश्रण और कोका पत्ती चबाने के व्यवहार को "महान संतोष" प्रदान करने वाला वर्णित किया है।

आधुनिक प्रयोग (modern usage) -

कई देशों में कोकीन एक लोकप्रिय मनोरंजन दवा है। अमेरिका में, "क्रैक" कोकेन के विकास ने इस चीज़ को आम तौर पर शहर के गरीब भीतरी बाज़ार में शुरू किया। पाउडर रूप का उपयोग अपेक्षाकृत स्थिर बना रहा और अमेरिका में 1990 के दशक के उत्तरार्ध और 2000 के दशक के पूर्वार्ध के दौरान इसके इस्तेमाल में एक नई चरम सीमा का अनुभव किया गया और पिछले कुछ वर्षों में यह ब्रिटेन में अधिक लोकप्रिय हो गया है।

कोकीन का सेवन सभी सामाजिक-आर्थिक स्तर पर प्रचलित है, जिसमें उम्र, जनसांख्यिकी, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आजीविका शामिल है। अमेरिका का अनुमानित कोकेन बाज़ार वर्ष 2005 के लिए $70 बीलियन से अधिक के नुक्कड़ मूल्य का है, स्टारबक्स जैसे निगमों के राजस्व से अधिक.

अमेरिकी बाज़ार में कोकीन की ज़बरदस्त मांग है, विशेष रूप से उन लोगों के बीच जो विलासिता में खर्च करने के लायक कमाते हैं, जैसे एकल वयस्क और पेशेवर जिनके पास स्वतन्त्र आय है। क्लब ड्रग के रूप में कोकेन की स्थिति, "पार्टी समुदाय" के बीच इसकी भारी लोकप्रियता को दर्शाती है।

उपर हमने जाना की  कोकेन क्या है चलिए अब जानते हैं की कोकेन का उत्पादन कैसे होता और कोकेन के उपयोग कौन कौन से हैं 

उत्पादन (Production) -

कोलम्बिया दुनिया में कोकीन का अग्रणी उत्पादक है कोलम्बिया द्वारा 1994 में निजी इस्तेमाल के लिए कोकेन की थोड़ी मात्रा का वैधीकरण के कारण, जबकि कोकीन की बिक्री तब भी प्रतिबंधित थी, स्थानीय कोका फसलों का प्रसार हुआ, जो कुछ हद तक स्थानीय मांग के कारण जायज था।

कोकेन के उपयोग (Cocaine use) -

2007 के अनुसार संयुक्त राष्ट्र संघ रिपोर्ट के अनुसार संयुक्त राज्य अमेरिका 2.8%, इग्लैण्ड 2-4%, कनाडा 2 : 3%, इटली 2.1%, चिली 1-8%, स्काटलैण्ड 1.5%, रहा। अमेरिका में कोकेन एक लोकप्रिय अवैध मनोरंजक दवा है। यह कालेज के छात्रों के बीच एक पार्टी ड्रग के रूप में भी लोकप्रिय है। 1970 और 80 के दशक में यह ड्रग डिस्को संस्कृति में विशेष रूप से लोकप्रिय हो चूकि थी।

इस आर्टिकल में हमने कोकीन क्या है कोकीन के कितने प्रकार होते हैं इसके बारे में जाना। सामान्य चेतना  की दृष्टि से हमें कोकीन जैसी वस्तुओं के बारे में जरुर जानना चाहिए।

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Population Ecology (जनसंख्या पारिस्थितिकी) - प्रकार, गुण, वृद्धि

जनसंख्या पारिस्थितिकी का वर्णन कीजिए (Describe population ecology in Hindi)

Population Ecology in Hindi : नमस्कार, आंसर दुनिया में आपका स्वागत है। इस आर्टिकल में  जनसंख्या पारिस्थितिकी के बारे में बताया गया है। जनसंख्या पारिस्थितिकी (Population ecosystem) एक विशेष जीव जाति की संख्या जो कि एक विशेष क्षेत्र में पायी जाती है, उसे समष्टि (Population) कहते हैं।

Population Ecology in Hindi

पॉपुलेशन (Population) शब्द की उत्पत्ति एक लैटिन शब्द पॉपुलस (Populous) से हुई है, जिसका अर्थ किसी जाति समूह या समाज के लोगों से है, जैसे किसी तालाब में पाये जाने वाले मेढ़क की संख्या। पॉपुलेशन शब्द का सामान्य उपयोग जनसंख्या के लिए किया जाता है, किन्तु बायोलॉजी की दृष्टि से पॉपुलेशन का अर्थ एक विशेष प्रदेश में स्थित एक ही जाति या घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित जातियों के जीवों (जन्तु अथवा पेड़-पौधे) का एक समुच्चय (Assemblage) से है।

population ecology in Hindi

Describe population ecology in Hindi

"एक अकेला जीव इकोतंत्र (ecosystem) की आधारभूत कार्यशील इकाई (Fundamental functional unit) है, जो कि वातावरण से सीधे सम्बन्धित रहती है। इन जीवों की संख्या तथा वितरण का अध्ययन “पॉपुलेशन इकोलॉजी" कहलाता है।"

जनसंख्या पारिस्थितिकी (Population Ecology) के प्रकार 

क्लार्क (Clark, 1954) के अनुसार, समष्टि दो प्रकार की होती है -

(i) एक प्रजाति समष्टि (Single species population) - इसमें प्राणी या जीव की एक ही स्पीशीज होती है। 

(ii) मिश्रित प्रजातिय समष्टि (Mixed species population) - इसमें जीवों या प्राणी की कई स्पीशीज होती हैं।

समष्टि के गुण (Characteristics of Population) -

प्रत्येक समष्टि के कुछ विशेष गुण होते हैं। ये गुण किसी एक प्राणी के न होकर पूरे समूह के होते हैं। मुख्य गुण निम्नलिखित हैं 

1. समष्टि घनत्व (Population Density) -

समष्टि घनत्व किसी भी समष्टि का मुख्य लक्षण होता है, किसी निश्चित अवधि में प्रत्येक इकाई क्षेत्र या आयतन में जीवों की संख्या को समष्टि घनत्व (Population density) कहते हैंसमष्टि घनत्व की इकाई विभिन्न क्षेत्र में भिन्न-भिन्न होती है। यदि जीवों की कुल संख्या को N से, इकाई की संख्या को S द्वारा निरूपित करें, तो समष्टि का घनत्व D, निम्न प्रकार से होगा

समष्टि घनत्व को दो प्रकार से व्यक्त कर सकते हैं -

(i) क्रूड घनत्व (Crude density)-यह कुछ क्षेत्र या आयतन के प्रत्येक इकाई में जीवों की संख्या को प्रदर्शित करता है। 

(ii) इकोलॉजिकल घनत्व (Ecological density) यह उस क्षेत्र या आयतन के उस इकाई में जीवों की संख्या है, जिसमें वास्तविक रूप से जीव रहते हैं। 

इकोलॉजिकल घनत्व को ज्ञात करना -

a. समष्टि में विभिन्न प्रावस्थाओं वाले जीवों को गिनना इस विधि से विभिन्न जीवधारियों की अलग-अलग जनसंख्या एक निश्चित क्षेत्र एवं समय पर ज्ञात हो जाती है। यह विधि बड़े जन्तुओं की समष्टि घनत्व ज्ञात करने के लिए की जाती है, परन्तु यह विधि जन्तुओं की अपेक्षा पादपों के लिए अधिक व्यावहारिक है।

b. सैम्पलिंग विधि - इस विधि में अनेक सैम्पल लिये जाते हैं तथा प्रत्येक सैम्पल के एक इकाई में उपस्थित जीवों की गिनती की जाती है। इस विधि को कई बार दोहराते हैं। प्राप्त सभी परिणामों को जोड़कर सैम्पल की संख्या से औसत निकाल लेते हैं। स्थलीय जन्तुओं में यही कार्य छोटे-छोटे सैम्पलिंग इकाई के क्षेत्र में किया जाता है। उदाहरणार्थ-पैरामीशियम के एक लीटर से प्रयोग करता हुआ मनुष्य, पैरामीशियम को भली प्रकार हिलाता है, फिर शीघ्र एक घन लीटर द्रव निकाल लेता है, और इस सैम्पल में पैरामीशियम की संख्या ज्ञात कर लेता है। इस प्रकार नये सेम्पलों की संख्या में सम्पूर्ण आयतन में तथा एक घन सेमी में पैरामीशियम की संख्या ज्ञात कर लेता है।

c. यादुच्छिक प्रतिचयन अथवा निदर्शन विधिकुछ सीमा तक जीवसंख्या का घनत्व जीव संख्या के कुछ भाग का प्रतिचयन (Sampling) करने से भी किया जा सकता हैइस प्रकार से पूरी जीव संख्या का अनुमान लगाया जा सकता है। बहुत गतिशीलता वाले जन्तु में प्रतिचयन (Random sampling) के लिये क्षेत्र काफी बड़ा होना चाहिए, जैसे-मछलियों, उड़ने वाले कीट, पक्षी इत्यादि। 

d. टैगिंग तथा पुनर्गणना करना - बड़े आकार के जन्तुओं जैसे-गिलहरी एवं पक्षियों आदि की गणना करने के लिए इस विधि का प्रयोग किया जाता है। इस विधि में जन्तुओं को एक निश्चित संख्या में पकड़कर उनको टैग करके छोड़ दिया जाता है। अगले दिन उसी क्षेत्र में पुनः उतने ही संख्या में जन्तुओं को पकड़कर इनमें टैग किए गए जन्तुओं की गणना की जाती है। इस प्रकार टैग किये तथा बिना टैग किए गए जन्तुओं के समानुपात द्वारा समष्टि घनत्व ज्ञात कर ली जाती है।समष्टि वृद्धि-समष्टि घनत्व के अध्ययन से समष्टि के स्वभाव का पता चलता है, तथा इससे समष्टि की मृत्यु दर एवं जन्म-दर भी ज्ञात होती है।

समष्टि वृद्धि (population growth) -

समष्टि घनत्व के अध्ययन से समष्टि के स्वभाव का पता चलता है, तथा इससे समष्टि की मृत्यु दर एवं जन्म-दर भी ज्ञात होती है। समष्टि का घनत्व जन्म दर, मृत्यु-दर एवं प्रजनन दर पर निर्भर करती है -

(i) जन्म दर (Birth rate) - "किसी समष्टि की जन्म-दर को इस प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है “एक निश्चित अवधि में किसी समष्टि द्वारा उत्पन्न नये जीवों की औसत संख्या को जन्म-दर कहते हैं।" उत्तम परिस्थितियों में एक इकाई अवधि में उत्पन्न होने वाले नये जीवों की अधिकतम संख्या को अधिकतम जन्म-दर (Maxi mum birth rate) या पोटेंशियल जन्म-दर (Potential natality) कहते हैं। जीवों में अधिकतम जन्म-दर उनके शरीर क्रियात्मक कारकों, जैसे - लैंगिक रूप से परिपक्व नर एवं मादा जीव की संख्या, मादा जीवों का समानुपात तथा एक निश्चित इकाई समय में मादा द्वारा उत्पन्न अण्डों या शिशुओं की संख्या आदि से निर्धारित होता है। किसी भी समष्टि की अधिकतम जन्म-दर सदैव ही स्थिर रहती है।

वास्तविक या पारिस्थितिक जन्म-दर (Actual or ecological birth rate) - किसी एक निश्चित समय में समष्टि में उत्पन्न नये जीवों की वास्तविक संख्या के योग को वास्तविक या पारिस्थितिक जन्म-दर कहते हैं। यह अधिकतम जन्म-दर से कम होती है, क्योंकि किसी भी समष्टि में सभी मादाओं की जनन क्षमता समान नहीं होती और उनमें उत्पन्न सभी अण्डों में अण्ड भेदन (hatching) भी नहीं हो पाता तथा अण्ड भेदन के फलस्वरूप निकले समस्त लार्वा प्रौढ़ में परिवर्तित नहीं हो पाते।

(ii) मृत्यु-दर (Death rate or Mortality) "किसी समष्टि में इकाई समय में मरने वाले जीवों की संख्या को मृत्यु दर कहते हैं। मृत्यु दर दो प्रकार के होते हैं।"(i) न्यूनतम तथा (ii) वास्तविक मृत्यु-दर। किसी भी समष्टि में मृत्यु के संयोग को उत्तरजीविता वक्र (Survival ship curve) द्वारा सरलतापूर्वक प्रदर्शित किया जा सकता है। इस वक्र को बनाने के लिए समष्टि के उत्तर जीवियों को कल के साथ आलेखित किया जाता है। 

उत्तरजीवित वक्र तीन प्रकार के होते हैं -

 (a) विकर्ण चक्र (Diagonal curve)-जब समष्टि में विभिन्न आयु वाले जीवों की मृत्यु-दर समान होती है तो एक सीधी विकर्ण रेखा (Straight diagonal line) के रूप में होती है। जैसे- हाइड्रा, माइस तथा अनेक प्रौढ़ पक्षियों के लिए बनाया जाता है।

 (b) उत्तल वक्र (Convex curve)-जब अधिकांश जीव अपना बायोटिक पोटेन्शियल (Biotic potential) पूरा कर लेते हैं और वृद्धावस्था में मृत्यु को प्राप्त करते हैं तो चक्र अत्यधिक उत्तल (Convex) होता है। बायोटिक पोटेन्शियल के पहुंचने तक लगभग यह क्षैतिज (Horizontal) रूप से चलता है और उसके बाद तीव्रता से नीचे की ओर मुड़ जाता है। इस तरह का चक्र मनुष्यों में पाया जाता है।

(c) अवतल वक्र (Concave curve)-जब अधिकांश जीव अपना बायोटिक पोटेन्शियल पूर्ण करने से काफी पहले मर जाते हैं, तो चक्र अत्यधिक अवतल (Concave) होता है। जैसे-ऑयस्टर्स अन्य कशेरूक जन्तु तथा मछलियों में।

2. वयस वितरण (Age distribution) - 

यह विभिन्न वयस वर्गों में समष्टि के जीवों की संख्या है। आपेक्षिक रूप से भिन्न युवा एवं वृद्ध जीवों की संख्या वाली समष्टियाँ भिन्न मृत्यु-दर, जन्म-दर व अन्य भिन्न पूर्वेक्षण प्रदर्शित

3. जैवीय विभव (Biotic potential) -

किसी समष्टि के वयस वितरण (Age distribution) के स्थायी होने तथा सभी वातावरण सम्बन्धी परिस्थितियाँ अनुकूल होने पर समष्टि को वृद्धि करने की समस्या या अंतनिर्हित शक्ति (inherent power) का जैवीय विभव (Biotic potential) या प्रजननीय विभव (Reproductive potential) कहते हैं। 

4. वृद्धि प्रतिरूप (Growth pattern)-

का आकार एवं संयोजन सदैव परिवर्तित होता रहता है। आकार एवं संयोजन दोनों वृद्धि की दर पर निर्भर करते हैं । समष्टियाँ वृद्धि विशिष्ट निशिष्ट प्रतिरूप प्रदर्शित करती हैं, जिन्हें वृद्धि प्रतिरूप (Growth pattern) कहते हैं। 

वृद्धि प्रतिरूप यह दो प्रकार के होते हैं -

(i) J-आकार का वृद्धि प्रतिरूप (J-shaped Growth pattern)-इस प्रकार की वृद्धि प्रतिरूप में चक्रवृद्धि ब्याज के समान शुरू में समष्टि के घनत्व (Density) में तेजी से वृद्धि होती है, किन्तु वातावरणीय प्रतिरोध तथा अन्य सीमाकारी कारकों के प्रभाव में आने पर यह सहसा रुक जाती हैं।

(ii) S- आकार का सिग्मॉइड वृद्धि प्रतिरूप (S-shaped of Sigmoid Growth pattern) - इस प्रकार के वृद्धि प्रतिरूप में समष्टि एक अनुकूल क्षेत्र को घेरकर प्रारम्भ में तो धीरे-धीरे वृद्धि करती है उसके बाद यह तेजी से वृद्धि करती है और अन्त में वातावरणीय प्रतिरोध के बढ़ने से एक सन्तुलन स्तर पर स्थापित हो जाती है और अब यह मंद गति से वृद्धि करना प्रारम्भ कर देती है। इस प्रकार का वृद्धि प्रतिरूप सामान्य रूप से यीस्ट कोशिकाओं तथा मानव समष्टि में देखने को मिलता है। समय और समष्टि के घनत्व का ग्राफ बनाने पर समष्टि की वृद्धि S-आकार का

5. समष्टि का परिक्षेपण (Population dispersal)

समष्टि के जीवों का अथवा उसकी जनन उत्पादी अवस्थाओं का भीतर प्रवेश अथवा बाहरी विकास को समष्टि का परिक्षेपण कहते हैं। ये तीन प्रकार के होते हैं 

(i) अप्रवासन (Immigration) - किसी क्षेत्र की एक ही जाति के सदस्यों द्वारा किया गया प्रवास, जिससे उनके वापस लौटने की सम्भावना न हो, अप्रवास कहलाता है।

(ii) उत्प्रवासन (Emigration) - किसी नये क्षेत्र में समष्टि के जीवों के प्रकीर्णन को उत्प्रवास कहते हैं। इनमें उन्हें मूल क्षेत्र में वापस आने की इच्छा नहीं होती है। 

(iii) प्रवसन (Migration) - किसी एक क्षेत्र से जीवों का दूसरे क्षेत्र में कुछ समय के लिए आना-जाना प्रवास कहलाता है। इस प्रकार के प्रवास में पूर्ण समष्टि प्रभावित होती है। जैसे-पक्षियों का अलग-अलग ऋतुओं में प्रवास।

6. समष्टि वितरण (Population distribution) 

समष्टि में जीवों के परिक्षेपण को समष्टि का वितरण कहते हैं। इसके कारण समष्टि की आन्तरिक रचना एव अन्य गुणों पर व्यापक प्रभाव पड़ता है, समष्टि का वितरण कहते हैं। इसके कारण समष्टि की आन्तरिक रचना एवं अन्य गुणों पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। समष्टि के जीवों में वितरण के तीन प्रतिरूप देखने को मिलते हैं। 

समष्टि के जीवों में वितरण तीन प्रतिरूप होता है -

(i) समान वितरण (Uniform distribution)-इसमें समष्टि के जीव लगभग समान रूप से वितरित होते हैं। इस प्रकार का वितरण समष्टियों के जीवों के बीच तीव्र प्रतिस्पर्धा के कारण उत्पन्न होता है।

(ii) अनियमित वितरण (Random distribution) इस प्रकार के वितरण में जीव न तो एक जगह एकत्रित होकर झुंड में रहते हैं और न ही वे समान रूप से वितरित होते हैं इस प्रकार का वितरण प्रायः असमान वातावरण के कारण होता है। 

(iii) झुरमुट अथवा झुण्ड वितरण (Clumped distribution)-इसमें जीव प्रायः झुण्ड बनाकर रहते हैं, जो सपूंजन (Aggregation) की विभिनन अवस्थाएँ प्रदर्शित करते हैं किन्त एक समष्टि में एक ही प्रकार के पुंज बनाकर रहते हैं।

7. समष्टि उच्चावचन (Population fluctuations) -

"किसी विशेष क्षेत्र में समष्टि के स्थापित होने के पश्चात् साम्यावस्था में पहुँचने पर इसकी संख्या समय समय पर साम्यावस्था से कम या अधिक होती रहती है इसी को समष्टि का उच्चावचन कहते हैं।" समष्टि में यह उच्चावचन पारिस्थितिक पर्यावरण में होने वाले परिवर्तन अथवा अन्तरा या अंतरजातीय प्रतिक्रयाओं के फलस्वरूप होता है। 

समष्टि का उच्चावचन यह दो प्रकार का होता है -

(i) मौसमी उच्चावचन (Seasonal fluctuations) यह मौसमी परिवर्तनों से उत्पन्न अनुकूलन द्वारा नियमित है। जैसे- वर्षा ऋतु में मक्खी तथा मच्छरों की वृद्धि।

(ii) वार्षिक उच्चावचन (Annual Fluctuations) भौतिक कारकों में वार्षिक परिवर्तनों के कारण समष्टियों में होने वाले उच्चावचन को वार्षिक उच्चावचन कहते हैं। जैसे-तापक्रम, वर्षा आदि।

इस आर्टिकल में हमने  जनसंख्या पारिस्थितिकी (population ecology in Hindi) के बारे में जाना। विश्व के लिए जनसँख्या नियंत्रण एक बहुत बड़ा मुद्दा है। जिस पर सभी देश काम कर रहे हैं ।

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